स्त्री
स्त्रियों में अपने परिवार के प्रति, अपने रीश्तेदारों के प्रति अधिक लगाव होता है। इसलिए भी वे उन्हें छोड़कर नहीं जा पाती हैं। और साथ-साथ त्याग की उदार भावना भी होती है; वे उस मार्ग पर जाने वाले की मदद भी करती हैं जिस मार्ग पर वे कभी न जा पाई हों।और यह सब शायद इसलिए भी होता है कि स्त्रियों में पुरुषों की तुलना में अहंकार का भाव कम ही होता है।समाज में पुरुष का जो स्थान होता है,वही अहंकार का कारण होता है।यानी पुरुष होने का भाव आएगा तो पुरुष होने का अहंकार भी आएगा।पुरुष की अपेक्षा ध्यान में स्त्रियाँ जल्दी प्रगति कर सकती हैं क्योंकि पुरुष को प्रथम अपने ' पुरुष हूँ ' इस अहंकार पर नियंत्रण करना होगा।और इसीलिए समाज में आज भी कुछ कार्य ऐसे हैं जो पुरुष नहीं कर रहें हैं,वे कार्य केवल स्त्रियाँ कर रही हैं। लेकिन स्त्रियाँ अपना भी कार्य करती हैं और पुरुषों का कार्य भी करती हैं।यह सब हमारी समाजव्यवस्ता के कारण हुआ होगा।स्त्री और पुरुष के अंग भले ही अलग हों लेकिन भीतर की नाड़ियों और चक्रों के स्थानऔर संख्या समान होते हैं।
अगर केवल उन्हें देखों तो आप जान नहीं सकते कि वे चक्र स्त्री के हैं या पुरुष के हैं। कुछ स्त्री सुलभ भावनाएँ होती हैं। लेकिन ये भावनाएँ स्त्री की पुरुष में और पुरुष की स्त्री में हो सकती हैं। जो अर्थनारीनटेश्वर का स्वरूप बताया जाता है,यह वास्तव में आत्मा का ही प्रतिनिधित्व करता है। क्योंकि पुरुष में स्त्रीसुलभ भावनाएँ और स्त्री के शरीर में पुरुषदत्त भावनाएँ भी होती हैं। ध्यान तो सभी प्रकार की भावनाओं को संतुलित करता है। आत्मजागृति की प्रक्रिया तो दोनों में समान ही है और आत्मजागृति के परिणाम भी दोनों में प्रायः एक जैसे होत हैं। बस अंतर है आगे की प्रगति का।पुरुष ध्यान के लिए समय निकाल पाता है,स्त्री ध्यान के लिए समय नहीं निकाल पाती है। वह ध्यान के लिए पुरुष की मदद अवश्य करती है। आध्यात्मिक प्रगति का अवसर उस प्रत्येक आत्मा को मिलना चाहिए,जो आत्मा प्रगति करनी चाहे;फिर वह आत्मा पुरुष की हो या स्त्री की हो।...
हि.स.यो-४
पु-३७०
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