मन में स्त्रियों के प्रति एक प्रकार का आदर भाव
इन सब बातों का विरोधाभास से मेरे मन में स्त्रियों के प्रति एक प्रकार का आदर भाव जागृत हो रहा था। क्या मालूम क्यों,मुझे ऐसा लग रहा था कि स्त्रियों के लिए कुछ करना चाहिए। स्त्रियों की ओर आदरभाव जागृत होने का एक और कारण था- तब तक मेरा जीवन ही गुरुकार्य के लिए समर्पित कर चुका था और फिर जीवन में उसी व्यक्त्ति का स्थान होता था जो गुरुकार्य में मदद करता था। मेरा पत्नी के प्रति भी अधिक आदरभाव इसीलिए था क्योंकि उसकी सहायता गुरुकार्य में थी। और गुरुकार्य यह था कि गुरुदेव का संदेश जो अनुभूति के रूप में मुझे मिला था,वह प्रत्येक मनुष्य तक पहुँचे। और बाँटना स्त्री का एक मूल स्वभाव है। एक स्त्री इसी स्वभाव के कारण स्वयं खाने में उतना आनंद ग्रहण नहीं करती जितना वह दूसरों को खिलाने में ग्रहण करती है। तो मुझे उस दिन लगा -- एक पुरुष को अगर अनुभूति कराई तो वह बाँटेगा ही,यह आवश्यकता नहीं है।बाँट भी सकता है लेकिन किसी स्त्री को अनुभूति कराई तो वह ध्यान करे या ना करे लेकिन ध्यान की उस अनुभूति का प्रचार एवं प्रसार तो करेगी ही। यानी यदि वह इस प्रकार से भी गुरुकार्य करेगी तो भी उसकी प्रगति तो स्वयं ,ऐसे ही हो जाएगी। यानी गुरुकार्य की दृष्टि से स्त्री एक शक्त्ति बनकर सहायक सिध्द हो सकती है। मुझे स्त्रीशक्त्ति की ही शरण में जाना चाहिए,उसी की सहायता से कार्य का प्रारंभ करना चाहिए क्योंकि वह अपने स्वभाव के कारण, उसे जो अनुभूति मिली है, उसे बाँटेगी ही और वह बाँटेगी तो कार्य आगे बढ़ेगा।...
हि.स.यो-४
पु-३६४
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