सिंगापुर प्रवास के दौरान पूज्य स्वामीजी को हुआ एक आश्चयॅजनक अनुभव
" मैं सिंगापुर-प्रवास के दौरान एक पुराने साधक के घर रूका था। उसके घर के पीछे एक नदी थी और काफी वृक्ष थे। ऐसे ही एक वृक्ष पर एक कोयल आकर बैठी और कुहु-कुहु गाने लगी।
कोयल : " स्वामीजी, आप करूणा के सागर हो। सालों से देते-देते, देना आपका स्वभाव बन गया है। आप सजीव ज्ञान की अनुभूति को भी लूटाते रहते हो। आप आपकी उच्च ध्यान की स्थिति के कारण यह लूटाने का कायॅ सदैव अविरत कर सकते हो।
बहुत कम सुपात्र आत्माएँ वह ग्रहण कर पाती हैं। और जो सुपात्र आत्माएँ ग्रहण कर पाती हैं, उसमें से बहुत कम देहधारी मनुष्य हैं। स्वामीजी, यह मनुष्य की देह ही इस मागॅ की रूकावट है। इस मनुष्य-देह के विकार मनुष्य को जीवनभर भ्रमित करते रहते हैं। इस बात की गलती का ऐहसास मनुष्य को देहत्याग करने के बाद ही होता है। मनुष्य-देह में रहते हुए मनुष्य-देह के दोषों को, देह के विकारों को आत्मा कभी नही जान सकती है।
यह मनुष्य-देह ही आध्यात्मिक मागॅ की सबसे बड़ी रूकावट है। मनुष्यप्राणी कभी भी "मनुष्य-देह के अलावा 'मैं एक आत्मा हूँ '- यह कभी सोच नहीं सकता।
और जब तक उसे यह आत्मबोध नहीं होगा, आप कितनी भी सजीव ज्ञान देने की इच्छा रखो, वह मनुष्यप्राणी कभी भी ग्रहण नहीं कर सकता है।"
स्वामीजी : " प्रिय आत्मा प्रत्येक की अपनी सीमा-रेखा होती है। वैसे ही मेरी भी अपनी सीमा-रेखा है, मेरा अपना छोटा सा मयाॅदित क्षेत्र है। उसमें रहकर ही मैं मेरा कायॅ करते रहता हूँ या मैं कहूँ कि एक निश्चित क्षेत्र की मयाॅदा में ही यह कायॅ संपन्न हो रहा है। ठीक इसी प्रकार सजीव ज्ञान की अनुभूति कराने का कायॅ, एक पवित्र कायॅ, सवॅश्रेष्ठ कायॅ हो रहा है। यह मैं नहीं कर रहा हूँ। बस कायॅ हो रहा है। सब गुरूदेव की कृपा व करूणा है। इस सवॅश्रेष्ठ कायॅ का लाभ कौन ले रहा है, कौन नहीं ले रहा है, यह मेरा कायॅक्षेत्र नहीं है।
यह कायॅ तो पवित्र गंगा नदी के सतत् बहने वाले प्रवाह जैसा ही है। जल सदैव बहते रहता है, कभी ठहराव की काई नदी में नही जमने देता है। कोई प्राणी पवित्र, निमॅल, स्वच्छ जल पिए या न पिए, गंगा नदी का जल सदैव बहते रहता है। उसका प्रवाह सबके लिए खुला है, कोई भी आ कर वह जल पी सकता है। गंगा नदी किसी को बुला नहीं सकती। जल पीने वाले को ही प्यास होनी चाहिए, वह आकर पी सकता है।"
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"कुछ अंश"
(सिंगापुर प्रवास के दौरान पूज्य स्वामीजी को हुआ एक आश्चयॅजनक अनुभव)
मधुचैतन्य, जनवरी-फरवरी-माचॅ, 2005
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