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Showing posts from February, 2019

गुरूदक्षिणा में अकेलापन

      "...स्वामीजी क्या कह रहे हैं, क्या बताना चाहते हैं | क्यों नहीं जाने का वहाँ ? क्यों रोक रहे हैं ? सोचो न ! अंदर से आ रहे संकेतों को समझो, उधर ध्यान दो | और उसको निगलेक्ट (उपेक्षा) मत करो,  उसको टाल करके आगे मत बढ़ो | और मैं सारा तमाशा देखता रहता हूँ | क्योंकि मैं क्या कर सकता हूँ ? इसलिए इस गुरूपुर्णिमा में गुरुदक्षिणा में वह अकेलापन दे दो, वह 'मैं' दे दो, वह अहंकार दे दो | देखो, 'मैं' का अहंकार रहेगा न,  तो ही अकेलेपन का एकाकीपन महसूस करेंगे | अगर आपके अंदर बिल्कुल भी अहंकार नहीं है, 'मैं' का भाव ही नहीं है, तो आप पूर्ण समर्पित है, आपका खुद का कोई अलग अस्तित्व ही नहीं है | अलग अस्तित्व नहीं है, तो अलग डर भी नहीं है, अलग भय भी नहीं है, अलग अकेलापन भी नहीं है | आप भले ही एकांत में बैठे रहो, अकेले बैठे रहो, आपको नहीं लगेगा - आप अकेले है, आपको लगेगा, "अहाहा !गुरूपूर्णिमा में आनंद ले रहा हूँ |"  क्योंकि जहाँ गुरु, वहाँ गुरूपुर्णिमा | गुरू का सान्निध्य अनुभव करोगे ! इसलिए आज की गुरूपूर्णिमा में सभी साधक अपना अकेलापन दे दें, अपना 'मैं' दे

आत्मसाक्षात्कार प्राप्त होने के बाद

" आत्मसाक्षात्कार प्राप्त होने के बाद जैसे-जैसे हम नियमित ध्यान करते हैँ , वैसे-वैसे हमारे विचारोँ मेँ बदलाव आना शुरु होता है । हम सकारात्मक रुप से विचार करने लगते हैँ । और जिवन ही नहीँ, प्रत्याक बात की तरफ देखने का हमारा नजरिया ही सकारात्मक हो जाता है । नकारात्मक विचार आते तो है, पर एकदम कम समय के लिए , जैसे पानी का एक बुलबुला कम समय रहता है । भुतकाल की यादेँ धुँधली होना शुरु हो जाती है और हमारा चित्त सदैव वर्तमान मे रहने लग जाता है । हम अंतरमुखी हो जाते है । हम हमारी समस्या के लिए दुसरे को जिम्मेदार नही मानते, "मेरी क्या गलती हुई " वह देखते है । अपने दोषोँ की तरफ चित्त जाता है तो अपने दोष दुर होना चालु हो जातेँ है । परमात्मा की खोज बाहर करना बंद करते है क्योकि जान जाते हैँ - परमात्मा तो आत्मा के रुप मेँ मेरे ही अंदर बैठा है । और आत्मिक सुख और समाधान महसुस करते है और जीवन मेँ आत्मशांति अनुभव करते है । आत्मसाक्षात्कार वास्तव मेँ दुसरा जन्म ही होता है । पुराना सब छूट जाता है । " -H.H.Shivkrupanand Swamiji, From:Adhyatmik Satya.

चैतन्यपूर्ण शरीर का सानिध्य

कई बार कई संत इस धरती पर अवतरित होते हैं और किसी स्थानविशेष को पवित्र करते हैं । उनके कारण उस स्थान की स्पंदन की शक्त्ति बढ़ जाती है । उन संतो के सानिध्य के कारण उस स्थानविशेष का प्रभाव बढ़ जाता है ।      " उनके लिए कोई भूमि अच्छी या ख़राब नहीं होती। वे भूमि की अच्छी या ख़राब स्थिति नहीं देखते हैं। वे समूची भूमि की शक्त्ति से जुड़े होते हैं। इसी कारण संत किसी भी भूमि पर निवास करें, किसी भी स्थान पर बैठे, किसी भी स्थान को उनके चैतन्यपूर्ण शरीर का सानिध्य मिले, वह स्थानविशेष पवित्र हो जाता है क्योंकि उनके सानिध्य में प्राप्त चैतन्य उस स्थान पर सदैव बना ही रहता है।वह संत की जीवन-समाप्ति के बाद भी सैकड़ों सालों तक अनुभूतियाँ प्रदान करते ही रहता हैं। हि. का. स.योग 1⃣ पेज 70/71 H0⃣3⃣6⃣

साधक को ध्यान-साधना करते समय स्थान का सदैव 'ध्यान' रखना चाहिए।

साधक को ध्यान-साधना करते समय स्थान का सदैव 'ध्यान' रखना चाहिए। सभी स्थान ध्यान करने के योग्य नहीं होते हैं। कई स्थानों पर बैठकर किया गया 'ध्यान' साधक के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता हैं।         बुरे कर्म मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए करता है, पर बुरे कर्म के कारण वह मनुष्य तो बुरा बनता ही है, वह उस स्थान को भी बुरा कर देता है जिस स्थान पर बैठकर उसने वह बुरा कार्य किया है।तो उस निश्चित स्थान पर उस बुरे कार्य का प्रभाव बन जाता है। और ठीक उसी स्थान के ऊपर, आकाश में उस ख़राब कार्य का आभामंडल तैयार हो जाता है।         जब कोई अच्छा व्यक्ति भी उस स्थान पर पहुँचता है, तो स्थान का ख़राब प्रभाव और उसी स्थान के खराब आभामंडल से वह अच्छा व्यक्ति भी आहत होता है।इसलिए सभी स्थान ध्यानकरने योग्य नहीं होतें हैं । हि. का. स. यो.(1)पेज 40010

एक बार भीतर आकर तो देख

एक बार केवल एक बार भीतर आकर तो देख तू समाधान को प्राप्त हो जायेगा ।  उस समाधान में कब समाधी लग गयी तुझे तेरा ही पता नहीं चलेगा । जो बाहर में नहीं मिला वह सब भीतर प्राप्त हो जायेगा । अब तू भीतर आयेगा ना ? मेरी आवाज तू सुनेगा ना ? आ में तेरा भीतर ही तेरा इंतज़ार कर रहा हुँ ।                                तेरा सिर्फ तेरा बाबा स्वामी (भितर हुँ ।) मूल स्त्रोत :- सन्देश (27-1-2008)

जंगल और वन

एक दिन एक वृक्ष के पास बैठकर गुरुदेव जंगल और वन का अंतर समझा रहें थे। उनका कहना था,"जंगल प्रकृतिप्रदत्त होते हैं।वह प्रकृति की स्वयं की रचना होती है। इसलिए प्रकृति अच्छे, रसदार फल देने वाले वृक्ष का भी निर्माण करती है और उसी वृक्ष के पास एक काँटेवाले वृक्ष का भी निर्माण करती है।यह भेदभाव नहीं करती, दोनों प्रकार के वृक्षों को वह विकसित करती है।प्रकृति में समानता हैं।वह सबसे एक जैसा व्यवहार करती हैं। हि. का. स. यो.(1)पेज 37007

आज की युवा पीढ़ी

आज की युवा पीढ़ी प्यार चाहती है,प्रेम चाहती है और उन्हें इस ध्यानपध्दति को अपनाने के बाद महसूस होगा--प्रेम पाने की नहीं,देने की चीज है;प्रेम तो ईश्वर का वह प्रसाद है जो बाँटना है। प्रेम,निर्व्याज प्रेम करो,किसी स्वार्थ से नहीं, किसीभी अपेक्षा से नहीं। आप सभी के साथ प्रेम करो।तो आप देखोगे की जो आप देगे,वही आपको वापस मिलेगा। आप लोगों को प्रेम दोगे तो लोग आपको प्रेम देंगे। प्रेम करनाअपना स्वभाव ही बना डालो;आप देखोगे  कि प्रेम आप में से ही बहना प्रारंभ हो जाएगा। जो दोगे, वही आपको वापस मिलेगा। इसलिए, आप जीवन में जो चाहते हैं,वह देना प्रारंभ करो। परमात्मा वही आपको लौटना प्रारंभ कर देगा क्योंकि वह अपने पास तो कुछ रख ही नहीं सकता है! आज विश्वभर में माता-पिता अपने बच्चों के लिए चिंतित हैं कि बिगड़ते हुए माहौल का असर उनके बच्चों पर न पड़े।वे अपने बच्चों को बिगड़ते हुए माहौल से बचाना चाहते हैं पर बचाने का मार्ग उनके पास नहींहै।किसी धर्म में अनुभूति नहीं है।सारे धर्म केवल पुस्तकों में,उपदेशों में रह गए हैं।युवा पीढ़ी उपदेश नहीं चाहती,अनुभूति चाहते है और वह अनुभूति ' समर्पण ध्यान ' में है।इस

प्रकृति का नियम

प्रकृति का नियम है आप वह जीवन ही जीते हैं जो जीवन जीने की आप इच्छा रखते हैं | आप जो जीवन जीने की इच्छा रखते हैं तो प्रकृति में फैली विश्वचेतना वह जीवन का निर्माण करने में लग जाती है | हाँ समय लगता है, काफी साल लगते हैं | इसलिए कहते हैं - सदैव अच्छा सकारात्मक ही सोचो | क्योंकि आपका जीवन बचपन में एक गीले,कच्चे हंडे की तरह होता है जिसकी मिटटी गीली और नरम होती है | हम हमारे विचारों से ,हमारे चित्त से उसे एक मार्ग दिखाते  हैं ,दिशा देते हैं और बाद में जीवन धीरे धीरे वैसा ही निर्मित हो जाता है जैसा की हम सोचते हैं |- यह वैश्विक चेतना का नियम है - वह कार्यरत सदैव रहती है ,बस उसकी दिशा और दशा निश्चित नहीं होती है | उसे हमारा चित्त दिशा प्रदान करता है | और चित्त जो दिशा प्रदान करता है ,वह उस दिशा में बहना प्रारम्भ कर देती है | गुरु का आजका संदेश              प्रगतिशील सामूहिकता     किसकी एवं किस प्रकार की     और भितर... और भितर... और ... हि.स.यो.५/१९५

ध्यान

आज समुचे विश्व मे घुमने के अनुभव के आधार पर ही कह सकता हु । की केवल ध्यान ही एक मात्र माध्यम है। जिसके द्रारा मनुष्य मनुष्य के साथ जोडा जा सकता है।                         आपका बाबा स्वामी २३/१०/२०१७

विश्वशांन्ती

प्रत्येक मनुष्य के आसपास उसका अपना एक नीजी ओरा का आभामंडल का छोटा सा विश्व होता है। वह ओरा कैसा हो यह पुणेतह  आपके अपने हाथ मे होता है।कोईभी मनुष्य चाहे तो कल्याणकारी. शांन्तीमय. सुरक्षीत. आभामंडल का विश्व बना सकता है। ऐसा आभामंडल का विश्व अगर विश्व प्रत्येक मनुष्य बनाये तो ही विश्व मे शांन्ती स्थापीत हो सकती है, अन्यथा विश्व मे स्थाई शांन्ती संभव प्रतीत नही होती । इस प्रकार से सभी मनुष्य अपने योगदान से एक ऐसे विश्व का नीमाेण करे जहॉ मानव धमे हो और सारे विश्व मे शांन्ती हो यही परमात्मा से प्राथेना है।                   आपका बाबा स्वामी २२/१०/२०१७

भीतर की यात्रा

हम  दुनियाभर  की  खोज  करते  है , पर  अपने आपको  कभी  नहीं  खोजते  है। जो  खोज  करना  आवश्यक  है , वह  छोड़कर  बाहर  सब  खोजते  रहते  है। और  जैसे  ही  यह  प्रश्न  जानने  का  प्रयास  करते  है , तो  हमारी  भीतर  की  यात्रा  प्रारंभ  हो  जाती  है। और जब  भीतर  की  यात्रा  प्रारंभ  हो  जाती  है , तो  हम  जानते  है - "शरीर"  औऱ  "मैं " अलग -अलग  है । और  "मैं " शरीर  से  अलग  हो  जाता  है  और  एक  आध्यात्मिक  क्रांति  घटित  होती  है । आपका बाबा स्वामी l

एक सुबह होती है तो हमारा नया जीवन

हर एक सुबह होती है तो हमारा नया जीवन होता है | आज हमारा नया जन्म हुवा  है | आज के दीन जो भी होगा वह बहोत अच्छे से हो | हर एक काम हमे  हर एक करम बहोत अच्छे से सावधानी बरखते हूए  करना होगा |  जब रात होती है, तो यह हमारी आखरी रात होगी या हो सकती है यह सोच मन में डालके आराम से सोना चाहीए |   "दिल्ली पार्लमेन्ट शिबीर" बाबा स्वामी  
समर्पण  ध्यान  की  साधना  का  उपयोग  आपको  जीवन  मे  किसके  लिए  करना  है ,वह  आपके  ही  ऊपर  निर्भर  है ।आज  इतना  अवश्य  बताता  हूँ  की  आप  जब  समस्याग्रस्त  रहते  हो ,वह  समय  आध्यात्मिक  प्रगति  का  नही  होता  है ।आपकि  आध्यात्मिक  प्रगति  तभी  हो  सकती  है  जब  आप  सभी  समस्याओं  से  मुक्त  रहते  हो  क्योंकि  लंगड़ा  मनुष्य  कभी  दौड़  नही  सकता ।इसलिए  जब  स्वस्थ  हो ,तभी  आध्यात्म  की  दौड़  प्रारंभ  करो । बाबा स्वामी      श्री  सदगुरु  के  सानिध्य  में  जाते  है , जैसे  उनका  दर्शन  करते  है , हमारी  भी  भीतर  की  यात्रा  प्रारंभ  हो  जाती  है । अब  प्रश्न  ये  आता  है --अगर  हम  आत्मा  है  तो  भीतर  कौन  जाता  है ? भीतर  शरीर  का  अहंकार  जाता  है ।  अहंकार  का  भाव  धीरे - धीरे  धीरे -धीरे   अंदर  जाता  है  और  जितना  अंदर  जाएगा  उतना  ही  ध्यान  अच्छा  लगेगा । ✍ . . . .  .   आपका बाबा स्वामी  कई जन्मों के पश्चात मनुष्य को समझ आती है कि धन में, भौतिक सुखों में , शाश्वत सुख नहीं है | फिर कहीं वो शाश्वत सुख की खोज में जन्म लेती है और फिर किसी सद्गुरु की कृप

जैन मुनि शिविर" में प्राप्त हुए महत्वपूर्ण वचन

1) आत्मा प्रत्येक जन्म के अंदर  धमँ बदलते रहती है | 2) सब प्रोब्लेम की जड है - अपेक्षा | 3)  पुरूष तना है तो स्त्री जड है | 4)  हम अगर हमारे अंदर की स्थिति अच्छी करते हैं तो बाहर की स्थिति अच्छी  हो जाएगी | 5)ध्यान में शरीर का स्वस्थ होना जरूरी है | 6) मनुष्यधमँ का बोध हमें तब होता है हमारा आत्मधमँ जागृत  होता है | 7)  किसी भी अपेक्षा से ध्यान  मत करो | कोई भी  मित्रता स्वाथँ से करते हैं तो मित्रता तूट जाएगी | 8)  प्रत्येक मनुष्य के अंदर प्रगती की संभावना  छुपा हुई होती है | 9) सभी ध्यान  पद्धतियों का एक ही ऊदेश है - आत्मभाव को वृद्धि गत करना | 10) आत्मभाव  वृध्धिगत करने से हमारा हमारे शरीर पर संपूर्ण नियंत्रण हो जाता है | 11) मेरे को जैन मुनियों के मोती मिले हैं,  बस , धागे से पुराने की बात है | 12)  ध्यान  आ जाएगा , सब दोष हो जाएँगा | 13) निभँय रहो,  स्वामीजी साथ में है,  कुछ नही होगा | 14) संथारा करने के लिए  शरीर स्वस्थ होना चाहिए | 15) सब मंत्र अच्छे हैं , हमको उसकी फ्रिक्वन्सी के साथ  मेच होना चाहिए | 16) अभिमान तुम्हारे कायँ को प्रोत्साहित करता है | तुमसे किसी

अहंकार विलीन होने के बाद मनुष्य

अहंकार विलीन होने के बाद मनुष्य कार्य करता नहीं, मनुष्य के हाथों से कार्य हो जाते हैं | मनुष्य को सद्गुरु का सान्निध्य कितना मिला ,उसका कोई मायने नहीं है | मायना है,उसने कितना समझा ,कितना माना ,कितना ग्रहण किया ,कितना अनुभव किया | क्युंकि सद्गुरु तो अनुभव करने की चीज़ है | हि.स.यो.१/३६६ 

समाधी

१.  हम संसार में अनेक 'गुरुओं' के दर्शन करते हैं। किसी का कुछ कहना हमें अच्छा लगता है, किसी का कुछ कहना हमें अच्छा लगता है। किसी की कुछ बातें अच्छी लगती हैं, किसी की कुछ बातें अच्छी लगती हैं। २.  संसार में ऐसा कोई गुरु नहीं होता जो संपूर्ण अच्छा लगता हो। ऐसा कोई गुरु नहीं है जिसकी सब बातें हमें अच्छी लगती ही हो। ३.  हमें गुरु संपूर्ण अच्छा इसलिए नहीं लगता क्योंकि इस संसार में ऐसा कोई गुरु है ही नहीं तो हमें मिलेगा कैसे ? ४.  इसे इस प्रकार समझें               - जीवंत गुरु आया तो साथ उसका शरीर भी आया और बिना दोष का कोई शरीर ही नहीं होता है। इसलिए कोई ऐसा गुरु नहीं है जो हमें संपूर्ण अच्छा लगें। ५.  हम अपनी बुद्धि के स्तर पर प्रत्येक गुरु को तौलते रहते हैं। यह अच्छा है या यह अच्छा है ?  यह सही कह रहा है या यह सही कह रहा है? हम जाँच रहे हैं। यह जाँच ऐसी होती है, जैसे दूसरी कक्षा का लडका १२ वीं कक्षा के लडके की जाँच करे। ६.  जीवंत गुरु आपके भ्रम को तोडेगा। आपको नींद से जगाएगा। तो जो नींद से जगाए, ऐसा व्यक्ति भला किसे अच्छा लगेगा ? ७.  आपकी कल्पना ऐसी होती है - गुरु ऐसा

मैं शरीर का अहंकार

मैं समझ रहे हैं , वह मैं शरीर का अहंकार है। आपको जैसे ही आपका बोघ हो जाएगा ,आपका सारा शरीर का अहंकार टूट जाएगा क्योंकि आप जान चुके होंगे कि आप एक आत्मा हैं। मनुष्य शरीर के आवरण के साथ जन्म लेता है और शरीर के आवरण में ही रहता है। और आवरण गिर जाने के बाद उसे पता चलता है -  यह तो आवरण था जो अब नहीं रहा। शरीर वाहन है , आत्मा ड्राईवर ( वाहनचालक ) है। बिना वाहन के ड्राईवर आगे नहीं बढ़ सकता है । लेकिन यह भी सच है बिना ड्राईवर के गाड़ी भी आगे नहीं बढ़ सकती है। इसलिए किसको किसकी जरुरत है , यह भी जाना नहीं जा सकता है। दोनों अपने-अपने स्थान पर योग्य हैं और दोनों एक-दुसरे के पूरक हैं। इसलिए अपनी मंजिल प्राप्त करने के लिए हमें दोनों को समझना आवश्यक है। दोनों का तालमेल और दोनों का संतुलन अगर हम रख पाते हैं , तो ही मंजिल तक पहुँच सकते हैं। जो हमारे शरीर है , साधनरूपि वाहन है। जिस प्रकार से गाड़ी का मेंटेनेन्स , रख - रखाव जरुरी होता है , ठीक उसी प्रकार से , शरीर का रख-रखाव भी अत्यंत जरुरी है। कुछ धर्मों में शरीर के रख-रखाव को , शरीर के महत्त्व को सिरे से ही नकारा दिया गया है  और आत्मा पर ही जोर दिया

कुण्डलिनी

"कुण्डलिनी के रुप में प्रत्येक आत्मा के साथ उसके कर्मों का हिसाब-किताब होता है | कुण्डलिनी एक प्रकार की हिसाब-किताब की पुस्तक ही है, ऐसा समझें तो चलेगा | कुण्डलिनी शक्ति मनुष्य की सी.आर.(कॉन्फिडेंशियल रिपोर्ट) ही है | इसमें मनुष्य के जन्मों-जन्मों का हिसाब-किताब होता है | और कुण्डलिनी का यह हिसाब सद्गुरु को पढ़ते आता है | इसलिए वे यह हिसाब पढ़कर ही सब करते रहते हैं | और यही कारण है कि वे प्रत्येक आत्मा से अपेक्षा नहीं करते कि वह इसी जन्म में मोक्ष प्राप्त कर ही ले |" ("हिमालय का समर्पण योग", भाग-६, पेज २६)

ગુરૂ ના મહત્વ

ભારતીય સંસ્કૃતિએ "ગુરૂ" ના મહત્વને જાણેલું અને તેથી અહી ગુરૂકૃપા વિભિન્ન રૂપોમાં વરસતી રહે છે. કોઈને પણ શરીરથી ઉપર આત્માના રૂપમાં જોવાની દ્ષ્ટિ ગુરૂ સંસ્કૃતિની દેણ છે.તેથી આધ્યાત્મિક જગતમાં ભારતનું ખૂબ મહત્વ છે.      સદગુરૂ એક સૂયૅ જેવા હોય છે.તેમનું  કાયૅ આત્માને પરકાશિત કરવાનું હોય છે. સદગુરૂ જાતિ , ધમૅ ,ભાષા , રંગના ભેદથી ઉપર હોય છે. આ પરત્યકના આત્માને પરકાશિત કરવાનો પરયાસ કરે છે.ફક્ત શરત એટલી કે આત્મા પોતાના દરવાજા ખોલે , અને પરકાશને ગરહણ કરે.       સદગુરૂની પોતાની સીમાઓ છે. જો આપ લેવા માટે તૈયાર ન હો , તો તેઓ બળજબરીથી નથી આપી શકતા. "પેજ નં :-143 આધ્યામિક સત્ય"

अपना दिया जला लो

     सदैव  अपने -आपको  प्रकाशित  करने  की  इच्छा  करो । और  यह  इच्छा  ऐसी  है  जो  तुम  अपने  जीवनकाल  में  पूरी  कर  सकते  हो । दुनिया  को  सुधारने  की  इच्छा  मत  करो । उसमें  तुम्हारा  जीवन  ही  समाप्त  हो  जाएगा , पर  दुनिया  ना  सुधरी  है , न  सुधरेगी । बस  अपना  दिया  जला  लो । ✍ . . . . . . . . ही .का .स .योग     1/486

क्या स्वामीजी विश्व में सर्वत्र विद्यमान है ?

प्रश्न 1 :  क्या स्वामीजी विश्व में सर्वत्र विद्यमान है ? स्वामीजी :  विश्व में सर्वत्र विद्यमान परमात्मा है। परमात्मा से स्वामीजी जुड़े है। परमात्मा अलग है ।स्वामीजी अलग है । हाँ , जो साधक स्वामीजी के माध्यम से सर्वत्र जुड़ते है,  उनकी दृष्टी में स्वामीजी व सर्वत्र एक ही है । उनके लिए ही स्वामीजी सर्वत्र है । इसलिए दुनिया का कोई भी व्यक्ती इच्छा करे, तो दुनिया में कही भी स्वामीजी की अनुभुती प्राप्त कर सकता है । यानी स्वामीजी सर्वत्र है , सिर्फ सर्वत्र को ग्रहण करने की इच्छा होनी चाहिए ! मधुचैतन्य जू./ऑ./स.2005
इस दुनिया में सबसे अधिक खुशी और सबसे अधिक आनंद अगर कहीं है, तो बस वह चैतन्य को सुपात्र मनुष्य को बाँटने में ही है। हि.स.यो.६/३०८

ब्राह्मण शब्द का अर्थ

ब्राह्मण शब्द का अर्थ है - जो ब्रह्मज्ञानी व्यक्ति है ,जिसे ब्रह्म का ज्ञान है | ध्यान रखना , यहाँ पर 'ज्ञान ' शब्द का अर्थ है - 'अनुभूति '| यानी, ' ब्राह्मण ' यानी वह व्यक्ति जिसने ब्रह्म की अनुभूति पाई हो | और जिसने ब्रह्म की अनुभूति पाई हो, वह इन जाति और धर्म की सीमाओं से ऊपर हो जाता है | और जब मैंने ब्रह्म अनुभूति पाई तो 'ब्राह्मण' शब्द का अर्थ समझ में आ गया | ' ब्राह्मण ' यानि ब्रह्मज्ञानी व्यक्ति | और आवश्यक नहीं की वह ब्रह्मज्ञानी व्यक्ति जाति से ब्राह्मण ही हो | अब तो प्रत्येक ब्रह्मज्ञानी व्यक्ति को मैं 'ब्राह्मण' ही मानता हूँ , भले ही वह जाती से ब्राह्मण न हो | "    हि.स.यो.६/ २४

कुंडलिनी शक्ति

*॥जय बाबा स्वामी॥* आत्मा जब मनुष्य शरीर को धारण करती है तो उसके साथ-साथ 'कुंडलिनी' नामक एक वैश्विक चेतना भी शरीर में आती है। इस शक्ति के आसपास कर्मों का आवरण होता है जिसमें मनुष्य के द्वारा किए गए अच्छे और बुरे , दोनों कर्म होते हैं। जब बच्चा माँ के गर्भ में रहता है और गर्भ तीन माह का हो जाता है , तब आत्मा और कुंडलिनी शक्ति बच्चे के तालूभाग से उसके शरीर में प्रवेश करती है। और तीन माह में शरीर के चक्र जिस प्रकार के होते हैं , उसी प्रकार चक्र इसकी ऊर्जा को ग्रहण कर पाते हैं और फिर वे क्रियान्वित हो जाते हैं। और इन चक्रों के विकसित होने में माँ के विचारों का योगदान रहता है। माँ क्या सोचती है , कैसे विचार करती है , उस पर निर्भर करता है। किस गर्भ में कौनसी आत्मा और कुंडलिनी शक्ति आएगी , यह तो तीन माह पूर्व माता और पिता के द्वारा किए गए संभोग के समय की उन दोनों की शारीरिक , मानसिक और आध्यात्मिक स्थिति पर ही निर्भर होता है। और यह स्थिति बदलते रहती है। इसलिए दो भाई एक ही माता-पिता से पैदा होने पर भी अलग-अलग स्वभाव व विचारोंवाले होते हैं। यह शक्ति बच्चे के शरीर के मूलाधार चक्र

मनुष्य योनि

अनेक योनियों में जन्म लेने के बाद आत्मा मानव योनि में आती है | --मनुष्य योनि में आने के बाद भी क्रमबद्ध तरीके से उसका विकास होता है और सारा विकास इन बातों पर निर्भर करता है - उसे केसा सान्निध्य मिला ,कैसी सांगत मिली ,कैसे माता पिता मिले | ये सब बातें मनुष्य की उत्क्रांति में सहायक होती हैं | (मनुष्य योनि में मिले जन्म, और हर जन्म के साथ होती आत्मिक उत्क्रांति) , गुरु वचन- १. साधारणत: प्रथम अत्यंत दरिद्री के घर में जन्म लेती है  और दो समय के भोजन की व्यवस्था में ही सारा जीवम चला जाता है | ऐसे समय में आत्मा इच्छा  करती है कि कम से कम दो समय का भोजन तो मिलना चाहिए ,तभी आगे कुछ किया जा सकता है | २.तो अगले जन्म में थोड़ा ठीक सा परिवार मिलता है, खाने की समस्या नहीं होती | कपडे,मकान,शिक्षा की आवश्यकता होती है | फिर इन सब आवश्यकताओं पर चित्त रहता है | ३. तो अगले जन्म में एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्म लेती है | इस जन्म में ये सब बातें उपलब्ध हो जाती हैं | फिर अधिक सुविधाएं अधिक धन मिलना चाहिए ,ऐसे विचार आते रहते हैं | विचार अधिक आने के कारण कार्य कम ही हो पाता है और विचार करने में

संत योगास्वामी

     *कुछ  भी  अमंगल  या  गलत  नहीं  होता । अच्छा  और  बुरा  मनुष्य  के  द्वारा  निर्मित  भेदभाव  है । परम  सिद्धांत  के दृष्टिकोण  से  न  तो  कुछ  अच्छा  है  और  न  ही  बुरा । जिसे  हम  "बुराई  " कहते  है  वह  परमात्मा  कि  माया  है । हम  परमात्मा  के  तरीके  या  निर्णय  को  समझ  पाने  में  असक्षम  है । जो  कुछ  हम  बुरा  या  आपत्तिजनक  समझते  है  उसका  वास्तव  में  कोई  दिव्य  उद्देश्य हों  सकता  है , यहाँ  तक  कि  वह  एक  तरह  से  आशीर्वाद   भी  हो  सकता  है ।* *संकलन : श्रीमती कृपा कावड़िया* *मधुचैतन्य .सी , अक्टू 2018*

ध्यान करने के लिए मंत्र की क्या आवश्यकता है ?

 11 : ध्यान करने के लिए मंत्र की क्या आवश्यकता है ? स्वामीजी : मंत्र के माध्यम से हम उस सामूहिकता से जुड़ते हैं | उस मंत्र के माध्यम से बहुत सारे लोग ध्यान करते हैं कि नहीं ? हमने जैसे ही वो मंत्र बोला, तो उन सारे लोगों की सामूहिकता, कलेक्टिविटी हमें मिल जाती है | शुरुआत में हमारा चित्त एकाध समय विचलित होता है, पर आदत लगने से हमारा चित्त सिर के तालू भाग में स्थिर होने लगता है | अकेले ध्यान करने की अपेक्षा सामूहिकता में ध्यान करना ज्यादा लाभदाई है | ध्यान में शुरुआत के समय मंत्रोच्चार की आवश्यकता है | फिर जैसे-जैसे हमारी ध्यान में प्रगति होती जाएगी,  वैसे-वैसे हमारी चित्त एकाग्र करने की क्षमता बढ़ेगी और फिर मंत्र की भी आवश्यकता नहीं रहेगी | और दूसरा,  सुबह 3:30 से 5:30 बजे का समय अच्छा होता है | ध्यान के लिए यह अच्छा समय है | दिन में कम से कम आधा घंटा ध्यान करना जरूरी है | मधुचैतन्य : अप्रेल,मई,जून - 2008

स्वामीजी,क्या हम गुरूलोक की यात्रा इसी जन्म में कर सकते हैं?औऱ हम उस यात्रा की तरफ अग्रसर है, उसकी पहचान क्या है ?

प्रश्न 9 : स्वामीजी,क्या हम गुरूलोक की यात्रा इसी जन्म में कर सकते हैं?औऱ हम उस यात्रा की तरफ अग्रसर है, उसकी पहचान क्या है ? स्वामीजी : जिस प्रकार से मैं पति-पत्नी के सम्बंध के लिए यु-ट्यूब का उदाहरण देता हूँ। यु-ट्यूब मतलब 100 ग्राम अगर पानी इसमें डाला तो 50 ग्राम पानी इसमें ऑटोमेटिकली जाता है क्योंकि वो शरीर से भीतर से जुड़े हुए रहते है । ठीक उसी प्रकार से, गुरू औऱ शिष्य आत्मा के स्तर पे जुड़े हुए रहते हैं । तो जो - जो गुरू के पास में है, वो सब कुछ शिष्य को प्राप्त हो सकता है । अब जैसे मैं सिर्फ जैन मुनियों के सानिध्य में रहा, जैन मुनियों के साथ में रहा, जबकि जैन धर्म के ऊपर हमारी कोई चर्चा नहीं हुई । उसके बावजूद भी जैन मुनियों के पास जो ज्ञान था, जैन मुनियों के पास जो नॉलेज था, वो नॉलेज ऑटोमेटिकली मेरे में ट्रांसफर हो गया । उन्होंने मुझे सिखाया नहीं , मैंने उनसे सीखा नहीं। क्योंकि ये जो ज्ञान है न, यह सिखाने औऱ सीखने से परे है । तो ऑटोमेटिकली वो सब ट्रांसफर होता है। लेकिन हमको समरस होते आना चाहिए। गुरुसे समरस होते आना चाहिए । तो जितने हम समरस होंगे, उतने अच्छे रिज़ल्ट्

'समर्पण' शब्द 'ध्यान' शब्द से जुड़ने से 'समर्पण ध्यान' नाम हुआ | 'समर्पण ध्यान' यह नाम से गुरुशक्तियों का क्या संकेत है ? यह नाम गुरुकृपा में कैसे मिला ?

प्रश्न 10: 'समर्पण' शब्द 'ध्यान' शब्द से जुड़ने से 'समर्पण ध्यान' नाम हुआ | 'समर्पण ध्यान' यह नाम से गुरुशक्तियों का क्या संकेत है ? यह नाम गुरुकृपा में कैसे मिला ? स्वामीजी : दो शब्द है | एक है 'समर्पण' , दूसरा है 'ध्यान' |  एक है रास्ता,  एक है मंजिल | समर्पण रास्ता है | समर्पण ईश्वरीय अनुभूति का मार्ग है और ध्यान वह मंजिल है, वह शिखर है, जहां तक सबको पहुंचने का है | तो उस शिखर तक किस मार्ग से पहुंचा जा सकता है ? ध्यान की स्थिति तक कैसे पहुंचा जा सकता है ? उसी का मार्ग, उसी का रास्ता समर्पण है | तो गुरू इन दो शब्दों के द्वारा एक मैसेज देना चाहते हैं,  एक संदेश देना चाहते हैं कि अगर ध्यान की अवस्था प्राप्त करनी हो,  ध्यान की स्थिति प्राप्त करनी हो तो समर्पित हो जाओ | समर्पित होने के बाद में आपका अस्तित्व शून्य हो जाता है और 'समर्पण'  का अर्थ ही है जिसका कोई अस्तित्व नहीं है | जो शून्य है | तो जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं है,  ध्यान तो खुद-ब-खुद लग जाता है | मंजिल तो चल कर पास आएगी,  आपको मंजिल तक नहीं पहुंचना पड़ेगा | लेकिन आ

સાંજે સેન્ટરપર જવા નથી મળતું

પ્રશ્ન 8: પ્રભુ, અમે કચ્છી પટેલ છીએ અને જોઇન્ટ ફેમિલીમાં છીએતો જોઇન્ટ ફેમીલીમાં બધું કામ જલદીજલદી થઈ જાય છે પણ સાંજે સેન્ટરપર જવા નથી મળતું ઘણી મહિલાઓનેજે સ્ત્રી અને પુરુષમાંથી એક જ આ માર્ગમાં છે, બીજું નથી તો કોઈને સાંજે સેન્ટર પર જવા નથી મળતું. તો મારી તમને કરબદ્ધ પ્રાર્થના છે કે પ્રભુ એવી મહિલા ઓ અને પુરુષોને પણ સેન્ટર પર જઈને ધ્યાન કરવા મળે. અમે તમને બહુ પ્રાર્થનાકરીએ છીએ કે અમારાથી કોઈ ભૂલ થઈહોઈ તો.. તકલીફ ન થાય તમને એવું અમને કાંઈ બતાવો અને તમે અમારાથીહમેંશા ખુશ રહો ,એવું કાંઈ જણાવો ? સ્વામીજી : તમે ક્યાં રહો છો ? સાધિકા   : અમદાવાદ, નિકોલ. સ્વામીજી : ના,ત્યાં જ કચ્છી મહિલાઓને લઈને તમે મહિલાઓનું એક સેન્ટર ચાલુ કરો ને ! બપોર નું કરશો તો પણ ચાલશે. સાધિકા : ના, કેટલીક મહિલાઓ એવી હોય છે જે ના પાડે છે. અમને પણ તમારાવિશે કહે છે, અમારાથી સહન નથી થતું.અમારા ઘરના લોકો પણ અમને ગુરુકાર્યકરવા માટે જવા નથી દેતા. અમારી બહુ ઇચ્છા હોય છે કે અમે ગુરૂકાર્ય કરીએ.અમે અહીંયાં આવીએ છીએ તો પણ ડર રહે છે કે શું કહેશે.. શું કહેશે ? સ્વામીજી : ના, જુઓ, બધામાંથી આપણે કાંઈક ને કાંઈક રસ્

सांस्कृतिक कार्यक्रम के पीछे परमपुज्य गुरुदेव का उद्देश्य

प्रश्न 12 : गुरुदेव ! तो हम देखते हैं - गुरूपूर्णिमा महाशिविर फिर चैतन्य महाशिविर में कल्चरल प्रोग्राम (सांस्कृतिक कार्यक्रम ) करते हैं और उसमें अलग-अलग नृत्य पेश करते हैं | तो गुरुदेव ये नृत्य ज्ञानी क्या ? मीन्स (मतलब) हाथ-पैर हिलाना, गर्दन हिलाना ? नृत्य यानी क्या? एक्जेक्ट आपका क्या मानना है गुरुदेव? थोड़ा मार्गदर्शन दीजिए | स्वामीजी : नहीं, इसका करने के पीछे का दो-तीन उद्देश्य हैं |  प्रत्येक मनुष्य में कोई कला, कोई गुण विद्यमान होता है |और उस कला को, उस गुण को अपने घर से ही प्रोत्साहन मिलना आवश्यक है | तो ये चैतन्य महोत्सव हुआ, गुरुपूर्णिमा हुई, ये सब समर्पण परिवार के कार्यक्रम है | और यही सब हमारे कार्यक्रम, हमारे परिवार के सदस्यों के द्वारा आयोजित किए जाते हैं ताकि हमारे ही परिवार के सदस्यों को उनकी कला को प्रकट करने का अवसर प्राप्त हो | इसीलिए यह मंच का निर्माण किया जाता है | और सदैव जब भी किसी गुण के ऊपर, किसी कला के ऊपर गुरु की दृष्टि हो जाए तो वह गुण, वो कला हजारों गुना बढ़ जाती है| दूसरा, अाप देखो न,  जिन्होंने डांस किये या जिन्होंने डांस किया उनको पूछो तो उनको भी खू

वसुधैव कुटुंबकम्

    गुरुपूर्णिमा के पावन पर्व पर ,हमारे पूर्वजों ने जो एक  स्वप्न देखा था, हमारे पूर्वजों ने    हमारे सामने आनेवालेा विश्र्    की एक परिकल्पना प्रस्तुत की थी, ' वसुधैव कुटुंबकम् ' , उस ' वसुधैव कुटुंबकम् ' की   कल्पना को फिर से एक बार याद करने का, फिर से एक बार नए सिरे से , एक नए दृष्टिकोण से , एक नए आयाम से सोचने का प्रयास,  अगर आज हम करेंगे तो हमारे उन  पूर्वगूरूओं को सही अर्थ में गुरुदक्षिणा होंगी । ' वसुधैव कुटुंबकम् ' यानी सारा विश्व , विश्व में रहनेवाला प्रतेक मनुष्य उसमें शामिल हैं ।                         प.पू.स्वामीजी २००९,पुष्कर(अजमेर)

औरा

आज एक सांधक ने इच्छा की जैसा आपने पहले दिपावली पर होने वाले चैतन्य महोत्सव मे “औरा” का दशेन करवाया था वैसा करवाईये। तो रात को 8:30 बजे 15 मीनीट के लिये सारे आश्रम की लांईट बंन्द कर दी गयी थी।और बाद हजारो की संख्या मे साधको को को औरा के दशेन हुये सभी साधको को उनकी आध्यात्मीक स्थीती के अनुसार औरा के दशेन हुये और सभी सांधको के जीवन का यह एक यादगार क्षण था सभी को बहुत ही प्रसन्नता का अनुंभव हुआ।अब औरा अत्याधीक प्रभावशाली होने के कारण स्पष्ट रूप से सभी दिखा यह आज के चैतन्य महोत्सव की बडी घटना बनी।

Aura

Today a sadhak made a wish that just as during the first Chaitanya Mahotsav which took place on Deepavali you had given us the darshan of your aura, please do the same. So at 8.30pm for 15 minutes all the Ashram lights were switched off; and later thousands of sadhaks got the darshan of my aura, all of them got to see my aura according to their individual spiritual state and this was a memorable moment for all the sadhaks. All experienced a state of great happiness. Since the aura is extremely effective now, everybody got to see it very clearly - this became a very big incident of today's Chaitanya Mahotsav.

कमेमुक्त ध्यान

आज सुबह 6 बजे चैतन्य महोत्सव  मै कमेमुक्त ध्यान का कायेक्रम सपन्न हुआ। सभी साधको ने एक कमेमुक्त अवस्था का अनुभव कीया मुक्त स्थीती क्या होती है उसका अनुभव कीया । हमारा जन्म कैसे हुआ यह शरीर हमने क्यो धारण कीया और कमे के चक्र से हम कैसे अपने आप को मुक्त कर सकते है। यह सभी ने जाना और एक “मुक्त” स्थीती की अनुभुती की और इस सामुहीक रूप से यह मुक्त स्थीती पाने के लिये के किया गया सामुहीक ध्यान यह पहला ही प्रयोग था। जो एकदम सफल रहा और सभी को ही जिवन भर याद रहेगॉ ऐसा ध्यान का कायेक्रम सपन्न हुआ ।और सभी पुण्यआत्मा शामील हुये जो इस ध्यान की स्थिती पाने के योग्य थे। यह चैतन्य महोत्सव कई कारणो से एक अव्दितीय था।                  बाबा स्वामी       समेपण आश्रम दांन्डी          10/11/2019

क्या हम नाशवान औऱ शाश्वत दोनों हैं ?

*साधक :---क्या  हम  नाशवान  औऱ  शाश्वत  दोनों  हैं ?* *पूज्य स्वामीजी :--*मानव शरीर  शाश्वत  नही  हैं ,वह  नाशवान  हैं ।हमारे  माता -पिता  हमारे  स्थूल  शरीर  को  जन्म  देते  हैं , हमारी  आत्मा  को  नही । मेरे  अंदर  की  आत्मा  मेरे  माता -या  पिता  द्वारा  दी  हुई  नही  हैं । हमारे  माता - पिता  हमारी  आत्मा  को  न  तो  भीतर  डाल  सकते  हैं  औऱ  न  ही  उसे  निकाल  सकते  हैं । हम  केवल  स्थूल  शरीर  नही  हैं , हम  आत्मा  हैं । केवल  हमारे  माता -पिता  ने  ही  हमें  बनाया  नही  हैं ।* *✍--- पूज्य गुरु माऊली* *टिम शाईम [ U.K ] की प्रश्नोत्तरी*

आत्मा की अनुभूति ही "मोक्ष " का द्वार

     आत्मा  की  अनुभूति  ही  "मोक्ष " का  द्वार  हैं । लेकिन  अपने  शरीर  के  साथ  द्वार  से  प्रवेश  नही  हो  सकता  हैं । शरीर  पर  नियंत्रण  हैं  "मैं" के  अहंकार  का । वह  शरीर  को  पकड़ता  हैं  औऱ  शरीर  आत्मा  को । इसीलिए  एक  ही  मार्ग  हैं - अपनी  आत्मा  को  सशक्त  करो , तभी  शरीर  के  अहंकार  पर  नियंत्रण  पाया  जा  सकता  हैं । ✍--परमपूज्य बाबा स्वामीजी संदर्भ : श्री  सद्गुरु  वाणी

कर्म मुक्त ध्यान प्रवचन के अंश

आज का ध्यान एक भाव की यात्रा है,यह भाव की यात्रा प्रारम्भ करने के पूर्व हमे हमारा देह भाव यही छोड़ना होगा। हमें हमारी बुद्धि यही छोड़नी होगी, क्योंकि बुद्धि की दिशा केवल और केवल बाहर की ओर होती है। जन्म से लेकर आज तक बुद्धि बाहर ही लेकर गयी। अपने आप को पहले स्थिर कर लो,सारे विचारों को इस्थिर कर लो,अपनी सम्पूर्ण एकाग्रता और ध्यान सम्पूर्ण चित्त धीरे धीरे तालु भाग पर इस्थिर कर लो,पूर्णतः तालु भाग पे चित्त स्थिर हो जाने के बाद आपको आपके तालु भाग पर हल्का सा स्पंदन महसूस होगा वो स्पंदन को महसूस करो शरीर को एकदम रिलैक्स ओर खाली कर दो। आप महसूस करो तालु पे जो स्पंदन हो रहा है।धीरे धीरे वो स्पंदन का एहसास बढ़ रहा है। उस स्पंदन ने एक दिशा तय की है। स्पंदन हमारी ही तालु भाग पे क्लॉकवाइज आगे बढ़ रहा है। उसने बडा सर्किल सहस्त्रार पे बना दिया है।फिर अंदर का सर्किल, फिर एक अंदर का सर्किल बनाया है, और अंदर का सर्किल बनाया है, और बाद में बीचों बीच एक बिंदु पे जाके वो स्थिर हो गया है,स्थिर होकर के वो आकाश की ओर उठ रहा है। आपके ही तालु भाग के 6 इंच ऊपर स्थिर हो गया है, अब हमारा संबंध शरीर के साथ पूरा छ

देह आत्मा का वाहन

*॥जय बाबा स्वामी॥* यदि हम समर्पण की दृष्टि से देखें , तब भी देह ये बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि देह क्या है? देह आत्मा का वाहन है। और आत्मा का ये वाहन जब तक अच्छा होगा , सही स्थिति में होगा , तभी तक हमें ढंग से बैठके ध्यान करने देगा। अन्यथा , बैठते समय भी हम कभी इधर लुढकेंगे , कभी उधर लुढकेंगे , बैठा नहीं जा रहा है , लेट जाएँगे और हमारा शरीर हमारा साथ नहीं देगा। तो शरीर बहुत महत्वपूर्ण है , आत्मा की प्रगति जितनी महत्वपूर्ण है , उतना ही महत्वपूर्ण हमारी ये देह है। क्योंकि वाहन के बिना क्या मोक्षप्राप्ति हो सकती है? हो सकती है? क्या देह के बिना मोक्षप्राप्ति हो सकती है? नहीं हो सकती! तो हमें जन्म से लेकरके मोक्ष तक - मृत्यु तक नहीं कह रही हूँ , मोक्ष तक इस देह की आवश्यकता है ही! और मोक्ष से लेके मृत्यु तक भी देह की आवश्यकता है ही!              ------ *पूज्या  गुरुमाँ* *मधुचैतन्य जनवरी २०१८* *॥आत्म देवो भव:॥*

अपने आपको संतुलित करने के उपाय

प्रश्न 14 :  स्वामीजी, जब हम जीवन के बुरे समय से गुजर रहे हैं ऐसा लगता है और ध्यान केंद्र पर जाने के लिए भी असमर्थ होंगे, तब हमें अपने आपको शांत कैसे रखना चाहिए ? स्वामीजी  :  पहले ये विचार करने का विषय है की एैसी स्थिति ही जीवन में क्यों आयी ? 'दुख में सुमिरण सब करें, सुख में करे न कोय | और अगर सुख में सुमिरण करे तो दुख काहेको होय |'  इन दो पंक्तियों में इसका उत्तर है, इसका आंसर है | मैडिटेशन्स अगर आप नियमित करते हैं ये परिस्थिति ही आपके जीवन में कभी खड़ी नहीं हो सकती | दूसरा, अगर नियमित ध्यान करते है ऐसी परिस्थितियां ही नहीं निर्माण होंगी | परिस्थितियां नहीं निर्माण होगी इसका उत्तर क्या है ? नियमित ध्यान करने की आवश्यकता है, नियमित मेडिटेशन्स करने की आवश्यकता है | ऐसी परिस्थितियों में दो-तीन और उपाय बताके रखता हूं | होता क्या है, आदमी जब ऐसे परिस्थिति में रहता है न, उसको कुछ भी नहीं सूझता और कुछ भी करने सरीकी उसकी स्थिति ही नहीं रहती | कई बार मैंने देखा है, साधकों को अगर उनके भोग भोगने के हैं, तो उनको कोई उपाय बता रहा हूं न, तो वो उपाय उनकी समझ में नहीं आएगा | फिर पॉंच

समर्पण ध्यान

*"समर्पण हाऊस "* *फोग्स डोर्फ -जर्मनी* *18/8/2014*      *"समर्पण " ध्यान  की  वह  पद्धति  हैं , जो  सामान्य  से  सामान्य  मनुष्य  को  भी  "आत्मा  के  अधीन "रहकर  जीना  सीखलाती  है । इस  पद्धति  में  आत्मा  को  प्रधानता  दी  जाती  है । तो  शरीर  को  बीना  कष्ट  दिये  भी  शरीर  की  प्रधानता  कम  हो  जाती  है । य़ह  ठीक  वैसा  ही  है , जैसे  किसी  लकीर  को  बीना  काटे  छोटा  करना  हो  तो  इसके  आगई  एक  नयी  बड़ी  लकीर  खेच  दी  जाये । आत्मभाव  की  लकीर  साधक  जीवन  में  जितनी  बड़ी  खेचता  है , उतनी  ही  छोटी  इसके  "शरीरभाव " की  लकीर  हो  जाती  है , और  "शरीरभाव " की  लकीर  छोटी  हो  जाने  पर  शरीर  से  संबंधित  समस्याएँ  भी  छोटी  हों  जाती  है । क्योंकि  जीवन  की  सारी  समस्याएँ  ही  शरीर  से  ही  संबंधित  होती  है  और  इस  प्रकार  साधक  का  जीवन  सूखी  हो  जाता  है ।* *✍--बाबा स्वामी*

स्वामीजी, अध्यात्मिक प्रगति करने के लिए गुरुकार्य और ध्यान, दोनों में से क्या ज्यादा उचित है ?

गुरु कार्य या ध्यान साधक 15 : स्वामीजी, अध्यात्मिक प्रगति करने के लिए गुरुकार्य और ध्यान, दोनों में से क्या ज्यादा उचित है ? स्वामीजी : गुरुकार्य और ध्यान दोनों ही मार्ग है और दोनों से आखिर में एक ही जगह पहुंचते हैं | आखिर में, अपने आप में भाव जगाने में आप सफल होने चाहिए | जब गुरु के प्रति पूर्ण भाव लाने में अपने-आपको पूरा डुबो दो, अपने अस्तित्व को शून्य कर दो,  तब आप गुरुशक्ति से जुड़ने में सफल हो जाते हो |      अगर गुरुकार्य करने में आपको रुचि हो तो गुरु के लिए जो भी कार्य करो, वह सब गुरु को अर्पित कर दो | जिसे ध्यान नहीं लगता हो, उसे गुरुकार्य करना चाहिए | गुरुकार्य शरीर से होता है, पर कार्य करते समय चित्त गुरु पर हो तो आखिर में गुरु से जुड़ जाओगे | गुरु के माध्यम से,आगे ऊपर का रास्ता है जो सामूहिकतामें पार करना है |      जिस तरह किसी ऐतिहासिक स्थान पर अगर जाओगे, तो उस स्थान की सही जानकारी पाने के लिए गाईड की मदद लोगे | तो स्थान और गाइड दोनों अलग-अलग चीजें हैं | जब गाइड आपको माहिती (जानकारी) देगा, तब आपका पूरा ध्यान गाईड के शब्दों पर होगा | तब आप उस स्थान को सही मायने में

स्वामीजी मैं प्रचार करना चाहता हूं तो मेरा ध्यान लगना जरूरी है ? गुरु कार्य करना चाहता हूं तो ध्यान लगना जरूरी है ?

ध्यान  अनिवार्य  प्रश्न 16 : स्वामीजी मैं प्रचार करना चाहता हूं तो मेरा ध्यान लगना जरूरी है ? गुरु कार्य करना चाहता हूं तो ध्यान लगना जरूरी है ? स्वामीजी : नहीं, ध्यान किए बगैर कुछ भी मत करो | तुम बताओ ना टूथपेस्ट बेचने जा रहे हो और खुद के दांत पीले हैं, तो कैसे चलेगा ? मधुचैतन्य : जुलाई-अगस्त 2016

45 दिन अनुष्ठान में खंड(गैप)

पत्रकार (प्रश्न 17) : शिविर के बाद 45 दिन ध्यान करते समय अगर कुछ रुकावट आई, कुछ निजी कारणवश रुकावट आई,  गैप (विराम) हुआ तो इसमें क्या बाधा आ सकती है ? स्वामीजी : बाधा कुछ नहीं है | देखो, इसमें कैसा रहता है - जैसे एक नया पौधा हमने लगाया, उसे अगर रोज पानी दिया तो उसके उगने के ज्यादा चांसेस (संभावनाएं) है | कभी दिया, कभी नहीं दिया, तब उगने के चांसेस कम है | आठ दिन के बाद दिया तो उगने के चांसेस और भी कम है | कहने का मतलब, जितना रेग्युलर (नियमित) करोगे 45 दिन,  उतना रिजल्ट (परिणाम) अच्छा आएगा | और  एकाध गैप हुआ तो गिल्टी फील (आत्मग्लानि) मत करो कि हां ! हां ! आज मेरा गैप हुआ | ऐसा विचार मत करो | गैप हुआ तो भी स्वामी जी की इच्छा | अाप इच्छा करो कि मुझे 45 दिन करना है | कुछ नहीं, "एक दिन गैप हुआ तो हुआ, उनकी इच्छा !" ऐसा कहकर....,गिल्टी फिलिंग मत करो क्योंकि आत्मग्लानि हुई तो उसकी रिकवरी (ठीक) होने में और दो-तीन दिन लगेंगे | प्रयत्न करो कि 45 दिन हो | लेकिन 45 दिन के बाद अपने-आप उसमें चेंज आता है, बदलाव आता है | गोवा महाशिबीर मधुचैतन्य : अप्रैल, मे, जून - 2008

समर्पण आश्रम का अद्भुत अनुभव

     दांडी समर्पण आश्रम एक बेहद सुंदर,  शांत एवं प्राकृतिक वातावरण स्थित है | यहां ऐसा महसूस होता है जैसे एक कोरे कैनवास पर, विभिन्न देशों, धर्मो और जातियों के, समर्पण ध्यान के आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले साधकों की सामूहिकता ने, सुंदर रंगों से चित्रकारी कर दी हो | यहां का जीवन खुशी और प्रेम के रंगों से रंगा है जो उमंग और प्रेरणा का स्त्रोत है |       आश्रम में बिताए हुए दिन केवल कैलेंडर के दिन नहीं लगते | यहां बीता हुआ कल और आने वाला कल 'आज'  की तुलना में महत्वहीन लगता है | हम आश्रम में किसी इमारत में नहीं रहते, बल्कि 'वर्तमान' में रहते हैं | आनेवाले कल का न कोई दायित्व रहता है और न हीं बीते हुए कल का उत्तरदायित्व | मन मुक्त होकर  विहरने लगता है...ताड़ के पत्तों से सरसराती हवा में, पक्षियों के चहचहाट में और अरबी समुद्र में उठती हुई लहरों की लयबद्ध तालो में...|  तब चित्त एक अलौकिक आनंद में स्थिर हो जाता है,  क्योंकि अब समय का कोई बंधन नहीं रहता, केवल वर्तमान वर्तमान का परमानंद रहता है | तब रह जाती है, केवल और केवल शुद्ध, पवित्र, प्रकृतिमय शून्यता ! - लुईस ग्रिफिथ

ध्यान के भी दो पहिए

॥जय बाबा स्वामी॥ ध्यान के भी दो पहिए हैं। एक , नियमित ध्यान करना और दुसरा , सामूहिक ध्यान करना। सबेरे का ध्यान आप आपके लिए करो। कुछ नहीं , अकेले में किसी गच्ची पे जाके बैठो , किसी गार्डन में जाके बैठो कि आपके दस फीट में कोई नहीं हो या एखादे रूम में अपने-आपको बंद कर लो , उस रूम में ध्यान करो। तो उससे क्या होगा मालूम है? धीरे-धीरे , धीरे-धीरे तुम्हारा आभामंडल विकसित होगा। बडा होगा , थोडा-थोडा , थोडा-थोडा , थोडा-थोडा , थोडा -थोडा ..दो फीट , चार फीट , पाँच फीट , दस फीट , बीस फीट और दुसरा सामूहिकता में जाके ध्यान करो, सेंटर पे जाके ध्यान करो। सेंटर पे जाके ध्यान करने से क्या होगा? तुमको तुम्हारे  चित्त का नियंत्रण करना आएगा। होता है ना , कई बार। कई बार साधक अकेले ध्यान करके चित्त को खूब स्ट्राँग कर लेते हैं। चित्त को खूब मजबूत कर लेते हैं , चित्त को खूब सशक्त कर लेते हैं लेकिन नियंत्रण नहीं रख पाते और छ:महिने के बाद में फिर उनकी स्थिति एकदम ही खराब हो जाती हैं। क्यों ? क्योंकि नियंत्रण नहीं रखा। तुम  चित्त को स्ट्राँग करते हो और तुम्हारी आदत से बाज नहीं आते। तुम्हारी आदत है इसके द

वर्तमान

 समय हम किन्हीं विचारों में खोकर पूरी बातें ग्रहण नहीं कर पाते हैं , किंतु पढ़ते समय हम वर्तमान में रहते हुए संपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। पूज्या गुरुमाँ (समर्पण ग्रंथ) समर्पण "शिर्डी" मोक्ष का द्वार है।

स्वामीजी, कई बार हम जीवन में महत्वपूर्ण निर्णय लेते हैं और फिर हम सोचते हैं कि वे सही है या नहीं | कृपया मार्गदर्शन कीजिए कि हम अच्छे निर्णय कैसे ले और उन पर अमल कैसे करें ?

प्रश्न 18 : स्वामीजी, कई बार हम जीवन में महत्वपूर्ण निर्णय लेते हैं और फिर हम सोचते हैं कि वे सही है या नहीं | कृपया मार्गदर्शन कीजिए कि हम अच्छे निर्णय कैसे ले और उन पर अमल कैसे करें ? स्वामीजी : आपने प्रश्न पूछा है कि आप जीवन में कई निर्णय लेते हैं और वो निर्णय अच्छे हैं या नहीं ये कैसे पहचाना चाहिए ?  तो पहले क्या करो,  ध्यान करने के लिए बैठो | ध्यान करने के बाद में दोनों हाथ में तुम्हारे वाइब्रेशंस आ रहे हैं क्या नहीं, देखो | और वाइब्रेशन आने के बाद में फिर अपने आपको ही प्रश्न पूछो न, कि ये मैं काम करूं क्या ? अगर 'करू' आया तो आपकी दसों उंगलियों में खूब अच्छे वाइब्रेशंस ठंडे-ठंडे आएंगे | इसका अर्थ है कि आत्मा कह रही है कि ये कार्य करो | और मान लो कि एक हाथ में वाइब्रेशन आ रहे हैं, एक हाथ में नहीं आ रहे हैं, तो समझ लो आत्मा उसको 'ना' कह रही है | तो इसलिए दूसरे को प्रश्न पूछने की जरूरत ही नहीं है | तुम तुम्हारा अपने-आपको ही प्रश्न पूछा न ¡ उसका उत्तर मिल जाएगा | दूसरा क्या होता है मालूम है ? आत्मा को मालूम रहता है, क्या चीज सही है, क्या चीज नहीं है, तो वो जो उ

Shortlist of Our Samarpan Websites.

..Jai Baba Swami.. Hear is the Shortlist of Our Samarpan Websites.. ▶ For Donation Intention go to.. donation.samarpanmeditation.org ▶For Marriage Purposes go to .. vivah.shivkrupanandji.guru ▶For Namkaran Intention go to.. namakaran.shivkrupanandji.guru ▶For ECS every month to our account go to.. sankalp.samarpanmeditation.org ▶For Cultural Event Registration Intention go to.. cultural.samarpanmeditaion.org ▶For Gurushakti Ahvan mail on gurushaktiahvan@gmail.com this is manage by Geetaben Pagare. Her ph no is 8689933666.  ▶For Prayer Registration Purpose go to.. https://en.samarpanmeditation.org/ashram/prayer_centre/index   (24*7 Prayer Centre) Emergency Ph No for prayer is 9574651555. ▶ To ask any Spiritual Questions to Our Beloved Guruji mail on shreebabaswami99@gmail.com (answer will be given by our guruji during our event) ▶For Samarpan Centre Information go to https://en.samarpanmeditation.org/centre/index/0  (CENTRES) ▶For Guru Purnima and

ध्यान का प्रदर्शन

मुझे लगता है , 'ध्यान' का प्रदर्शन साधकों ने समाज में नहीं करना चाहिए और "मैं साधक हूँ" यह अहंकार भी बिल्कुल नहीं करना चाहिए । यह दोनों बातें आसपास के लोगों का नकारात्मक चित्त आपकेऊपर लाती । आप आपके परिवार में भी ध्यान करो तो चुपचाप करो ।आपके ध्यान से दूसरे को तकलीफ नहीं होनी चाहिए । ध्यान को छुपाने का भी नहीं हैं , लेकिन सामने वाला पूछे नहीं तब तक बताने का भी नहीं है । आप सभी को खूब-खूब आशीर्वाद ! आपका बाबा स्वामी  मधुचैतन्य नवम्बर-दिसम्बर पेज 3

पूर्ण विश्वास

तुम गंडे , धागे-दोरे (धागे-डोरे) जितने बाँधोगे , उतना तुम तुम्हारे चित्त को कमजोर कर रहे हो। देखो ना , ये मेरे हाथ में , छाती में , गले में एक धागा या गंडा नहीं है। ये समाज में मुझे साईबाबा लेके आए हैं , मेरा साईबाबा पर पूर्ण विश्वास है। जब तक वो हैं , मेरा बाल भी बाँका कोई नहीं कर सकता। और जिस दिन उनका कृपा हट जाएगी, एक  सांस भी नहीं लूँगा।                   ----- *समर्पण ग्रंथ* (समर्पण "शिर्डी" मोक्ष का द्वार है।) पृष्ठ:१६० *॥आत्म देवो भव:॥*

त्रिकाल ज्ञानी

ये जो हम पुस्तकों में पढ़ते हैं के नहीं , त्रिकाल ज्ञानी , सिध्दि,वो सिध्द योगी थे , त्रिकाल ज्ञानी थे। हम सोचते थे कोई सिध्दि है। लेकिन मेरे को अनुभव कुछ अलग ही आया। त्रिकाल ज्ञानी सिध्दि नहीं है , चित्त की एक दशा है। ध्यान करते-करते , मेडिटेशन्स करते-करते चित्त के उस दशा में आप पहुँच जाओगे कि आपका चित्त भूतकाल में , भविष्यकाल में , वर्तमान काल में , जहाँ आप चाहो एक क्षण में ले जा सकते हो , जा सकता है। उस दशा को त्रिकाल ज्ञानी दशा कहते हैं। चित्त की दशा है। सिध्दि नहीं है।                        ----- समर्पण ग्रंथ (समर्पण *"शिर्डी" मोक्ष का द्वार है।*) पृष्ठ:१०० *॥आत्म देवो भव:॥*

मैं एक पवित्र आत्मा हूँ और मैं एक शुद्ध आत्मा हूँ

" यह सदैव याद रखो- आप क्या बनना चाहते हो यह सब आपके हाथ में होता है। आप अपने आपको क्या समझते हो इसी बात पर आपका बनना तय होता है। अब बचपन से मैं ने एक मंत्र का जाप किया, वह यह है कि  *मैं एक पवित्र आत्मा हूँ और मैं एक शुद्ध आत्मा हूँ।*  यानी इस मंत्र के द्वारा मैं ने सदैव अपने को आत्मा ही माना। इससे क्या हुआ, शरीर का भाव और शरीर के विकार मुझ पर हावी नहीं हुए। यही कारण है मुझे कुछ भी व्यसन नहीं है।  ठीक इसी प्रकार आप ध्यान करेंगे तो आपके भी व्यसन छूट जाएँगे। हमारे जीवन में जितनी भी समस्याएँ आती है, वह सब हमारे शरीर से संबंधित ही होती हैं और हम अपने आपको शरीर समझेंगे तो ये समस्याएँ हमें उतना ही अधिक परेशान करेंगी। इसलिए हमें यह मानना है कि हम एक आत्मा हैं।" हि.स.योग 6 पेज.176

ગુરુ

પ્રશ્ન 6 : સ્વામીજી, ગુરુ વિશે વિસ્તારથી સમજાવો. Continue...ગુરુ અને આપણી વચ્ચે ખૂબ મોટું આધ્યાત્મિક અંતર હોય છે. તેથી તેમની વાત આપણને ઘણીવાર પછી સમજાય છે. આ જ સુધી એવા કોઈ પણ સાધક નથી, જે ગુરુને પૂર્ણતઃ સમગ્રતાથી જાણી શકે કારણ કે તેમની જે દૃષ્ટિકોણથી પ્રગતિ થાય હોય, તેજ દૃષ્ટિકોણથી તે ઓળખી શકે છે. જ્યારે તેની પૂર્ણતાથી પ્રગતિ થાય છે, ત્યારે તે તેમને સમજી શકે છે. શિષ્ય કોઈપણ સ્થિતિમાં હોય, ગુરુ તેને સંરક્ષણ આપે છે. ગુરુ પોતાની પાસે માયાનું કવચ પેદા કરે છે, જેનાથી ઘણા લોકો પોતાની શંકામાં અટવાઈને પાસે પણ નથી આવી શકતા (ઉદા. -  મહેલ જેવું બાબસ્વામી ધામ). આધ્યાત્મિક પ્રગતિથી સર્વાંગી પ્રગતિ થાય છે. સારામાં સારા ભૌતિક સુખ આપને પ્રાપ્ત થાય છે. ગુરુ જ્યાં જાય છે, ત્યાં બધું પોતાની જાતે થવા લાગે છે. સામાન્ય વ્યક્તિને પ્રાપ્ત થવાથી તે ભોગવિલાસમાં પડી જાય છે અને સાધુપુરુષ તે બધાથી અલિપ્ત રહે છે. (મધુચૈતન્ય : એપ્રિલ-જૂન, 2003)

શું એ પૂર્વ આયોજીત છે કે અમને અમારા જીવનમાં ક્યાં ગુરુ મળશે?

પ્રશ્ન 7: શું એ પૂર્વ આયોજીત છે કે અમને અમારા જીવનમાં ક્યાં ગુરુ મળશે? સ્વામીજી : હા, આ પૂર્વ આયોજીત છે કે આપણને જીવનમાં ક્યાં ગુરુ મળશે. પરંતુ ત્યાં સુધી પહોંચવું પોતાની સ્થિતિ ઉપર આધારિત છે. જ્યારે મારી નિશ્ચિત સ્થિતિ થઈ , ત્યારે જ મારા જીવનમાં મને પોતાના ગુરુ મળ્યા અને ત્યારે હું હિમાલય ગયો. પ્રત્યેકના જીવનમાં ગુરુ મળવાનું કારણ અલગ - અલગ પણ હોઇ શકે છે. જેમ કે બીમારી, સમસ્યા, સંકટ અથવા અંદરથી ગુરુને મળવાની તિવ્ર ઈચ્છા હોવી કે સ્વપ્નમાં ગુરુના દર્શન થવા. આ બધા માધ્યમ છે. જેના દ્વારા ગુરુ સુધી પહોંચી શકો છો પરંતુ એકવાર ગુરુ સુધી પહોંચી ગયા પછી તેને (માધ્યમને) ભૂલી જાવા જોઈએ. મારો અનુભવ એમ રહ્યો છે કે એકવાર જયારે હું ગુરુની પાસે પહોંચી ગયો, ત્યારથી મારા માટે ગુરુની શોધ બંધ થઈ ગઈ અને અંદરની યાત્રા શરૂ થઈ ગઇ. જે આપને અંતર્મુખ કરી દે, તે જ આપના ગુરુ છે. ખરેખર તો ગુરુ આપની બહાર નથી, આપની અંદર છે. આપનો આત્મા જ આપનો ગુરુ છે. જ્યાં સુધી આપણને પહોંચેલા ગુરુ નથી મળતા, જ્યાં સુધી આપણાં જીવનમાં આપણને અંદર તરફ વાળનાર ગુરુ નથી મળતા, ત્યાં સુધી આપણને પોતાનો ચહેરો નથી દેખાતો. આપણને પોતાની જાતન

गुरूदेव के संदेश से जुडी अनुभूति

       पूज्य स्वामीजी का आत्मपरीक्षण यह संदेश पढ़ने के बाद, मैंने रोज सुबह 5:00 बजे नियमित ध्यान करने का निश्चय किया, जो मेरे जीवन में बहुत बड़ा बदलाव था | स्वामीजी के बताते हुए आत्म परीक्षण के तरीके से सबसे पहले जो बात मैंने महसूस की, वह यह थी कि मुझमें अनुशासन की कमी थी, जो की समर्पण की पहली पादान है | मुझे यह बताते हुए खुशी हो रही है कि ध्यान के अलावा मेरे जीवन की अन्य गतिविधियों में भी अनुशासन आ गया है और मैं समय का पालन करने लगा हूँ | सभी साधकों को यह आजमाना चाहिए | एक साधक, केनेडा | मधुचैतन्य : जुलाई,अगस्त,सितंबर-2012

गुरु

गुरु को जान करके करना चाहिए । जानना यानी क्या ? बुध्दि से तो जाना नहीं जा सकता । गुरु को अगर जानना है तो एक ही मार्ग है - अनुभूति , अनुभूति , अनुभूति । जब तक आपको अनुभूति नहीं आती , जब तक कोई एक्सपिरियंस नहीं होता , तब तक गुरु को मत मानिए ।          *।। अमृत वर्षा ।।* *सद्गुरु श्री शिवकृपानंद स्वामीजी* *( गुरुपूर्णिमा समर्पण ध्यानयोग महाशिविर 2016 )*

परमात्मा की अनुभूति

 एक छोटे से बच्चे के समान आपको बनना होगा। अगर  आपको परमात्मा की अनुभूति करना है , तो आपको छोटा बच्चा बनना पड़ेगा। परमात्मा ने जब आपको पैदा किया तब आप जिस अवस्था में थे , उस अवस्था तक आपको पहुँचने का है। परमात्मा ने आपको जैसा बनाया उस मूल स्वरूप में आप आए बिना आपकी प्रगति संभव ही नहीं है। आपको उस मूल स्वरूप में आना होगा। महाशिविर २००४

पाद - पूजन

गुरु के शरीर से एक प्रक्रिया अविरत चलती रह्ती है , वह है शिष्य के चित्त के शुद्धिकरण की प्रक्रिया । शिष्य  के चित्त की अशुद्धि गुरु सदैव ग्रहण करते ही रहता है । इसीलिए गुरु के शरीर में उस अशुद्धि के कारण गर्मी आ जाती है औऱ वह गर्मी गुरु के पैरों के तलुओं में महसूस की जा सकती है । शिष्य के चित्त को शुद्ध करने में य़ह अनायास ही आ जाती है । इसीलिए शिष्य का य़ह कर्तव्य है की उसके कारण आई हुई गर्मी व दोष दूर करने में वह अपने गुरु की सहायता करे । इसिलिए गुरुपुर्णिमा में गुरु के पाद - पूजन का कार्यक्रम किया जाता है । ही .का .स .योग . - 1 

सतत साधना

जब हम सतत साधना करते हैं तो हमारी आत्मा एक ओर हमारे ऊपर नियंत्रण करती है तो वहीं दूसरी ओर वह गुरु की आत्मा के साथ जुडी होती है और इस प्रकार से हमारे शरीर तक वह, वे बातें पहुँचाती है, जो गुरुशक्तियाँ कराना चाहती हैं। हि.स.यो. ६/२६३

ગુરુચરણમાં શ્રદ્ધા હંમેશા કેવી રીતે જળવાઈ રહે?

પ્રશ્ન 11: ગુરુચરણમાં શ્રદ્ધા હંમેશા કેવી રીતે જળવાઈ રહે? સ્વામીજી : મને લાગે છે, ગુરુચરણ પર ચિત્ત રાખીને. કારણ કે ગુરુચરણ પર ચિત્ત રાખીશું, તો ત્યાં સારા લોકોની કલેક્ટિવિટી(સામૂહિકતા) છે, સારા સાધકોની કલેક્ટિવિટી. તો આપો-આપ તે કલેક્ટિવિટી આપણને મળે છે, તો આપણું ચિત્ત ત્યાં રહે છે. ઘણીવાર શું થાય છે, ખબર છે? આપ ફરિયાદ કરો છો, આ સાધક ખરાબ છે, તે સાધક ખરાબ છે, તે સાધક ખરાબ છે, સારું. મને બધું દેખાતું હોય છે, સારા પણ સાધક દેખાતા હોય છે, ખરાબ પણ સાધક દેખાતા હોય છે. તમે ખરાબ છો, તેથી તમારી આસપાસ ખરાબ લોકોની કલેક્ટિવિટી છે. તમે સારા રહેશો, તમારી આસપાસ સારાની કલેક્ટિવિટી રહેશે. તે બધા એકત્રિત થઈ જાય છે. દારૂ પીવાવાળા એક સાથે, બીડી પીવાવાળા એક સાથે, ગાંજા પીવાવાળા એક સાથે, આ ખરાબ -ખરાબ લોકો એક સ્થાને સમૂહ બનાવી લે છે, કલેક્ટિવિટી બનાવી લે છે. તો તમારી આસપાસ ખરાબ લોકો છે, તો તુરંત ત્યાંથી ભાગો. કારણ કે આ ખરાબ લોકો છે, તો આપણે ખરાબ છીએ તો જરા સારામાં જાઓને! તો મને બધું દેખાઈ રહ્યું છે. સારા પણ સાધક છે, ખરાબ પણ સાધક છે. બધા પ્રકારના સાધક છે. પરંતુ તમે જેવા છો, તેવા તમારી આસપાસ એકઠા થાય છે

गुरुमंत्र

*॥जय बाबा स्वामी॥* पुराने मंत्र खूब पवित्र हैं , खूब शक्तिशाली हैं , खूब प्रभावशाली हैं लेकिन उनकी ऊंचाई बहुत अधिक है और वे हमारी पहुँच के बाहर हैं। क्योंकि हम उस जमाने के नहीं हैं जिस जमाने का मंत्र है और वह मंत्र उस समय के लोगों के लिए ही अनुकूल है। पुराने मंत्र परमात्मा के एकदम करीब हैं लेकिन हमसे बहुत दूर हैं। वे इतने ऊँचे है कि हम जीवनभर कुद-कुदकर मर जाएँ , उन तक हमारा हाथ नहीं पहुँच पाएगा। तो ऐसे मंत्र हमारे क्या काम के? 'गुरुमंत्र' आसान है , आज का है , उसे आसानी से पकडा जा सकता है। वह अभी-अभी जन्मा है इसलिए हमारे एकदम करीब है। लेकिन उसे पकड़कर उस पर अभ्यास करना होगा, साधना करनी होगी। गुरुमंत्र तो वह रस्सी है जो आपके पास में लटक रही है। बस , पकड़कर , उसे अपनाकर चढ़ने की आवश्यकता है। गुरुशक्तियाँ अनावश्यक कार्य कभी नहीं करती , इसलिए आज की आवश्यकता के अनुसार आज का गुरुमंत्र बनाया है। और उस गुरुमंत्र को अपनाकर *अनुभूति के रूप में आपको भी प्रमाण मिल गया है।* *हिमालय का समर्पण योग ५/९१* *॥आत्म देवो भव:॥*
" सबसे सफल व्यक्ति वो हैं जिसके पास खुद के लिए टाइम हैं। " - बाबा स्वामी

ब्रम्हनाद

सदगुरु  ही  है,  जिसे  भीतर  का  मार्ग  पता  होता  है , और वही  भीतर  का  मार्ग  बता  सकता  है , भीतर  जाकर  जो  ब्रम्हनाद  सुनाई  आता  है , उसका  वर्णन  तो  किया  ही  नही  जा  सकता  है , मेरे  हाथ  उसका  वर्णन  करने  के  काविल  नही  है , वह  घटना  याद  करके  मेरा  ही  ध्यान  लग  रहा  है , मेरे  ही  भीतर  फिर  वही  ब्रम्हनाद  सुनाई  आने  लगा  है , परमात्मा  की  प्राप्ति  रूपी  " गौरीशंकर" उच्च  शिखर  प्राप्त  करने  के  बाद  एक  प्रकार  की  शांति  का  अनुभव  कर  रहा  हूँ , एक  प्रकार  की  आत्मतृप्ति  हो  गई  है , की  मैने  परमात्मा  को  पा  लिया , अब  जीवन  में  पाने  के  लिए  ही  कुछ  बाकी  नही  रहा , मेरा  जन्म  लेने  का  उद्देश  ही  पूर्ण  हो  गया ।    परम पूज्य गुरुदेव      २८ / ७ / ११          गुरुवार