मनुष्य योनि
अनेक योनियों में जन्म लेने के बाद आत्मा मानव योनि में आती है | --मनुष्य योनि में आने के बाद भी क्रमबद्ध तरीके से उसका विकास होता है और सारा विकास इन बातों पर निर्भर करता है - उसे केसा सान्निध्य मिला ,कैसी सांगत मिली ,कैसे माता पिता मिले | ये सब बातें मनुष्य की उत्क्रांति में सहायक होती हैं |
(मनुष्य योनि में मिले जन्म, और हर
जन्म के साथ होती आत्मिक उत्क्रांति) , गुरु वचन-
(मनुष्य योनि में मिले जन्म, और हर
जन्म के साथ होती आत्मिक उत्क्रांति) , गुरु वचन-
१. साधारणत: प्रथम अत्यंत दरिद्री के घर में जन्म लेती है और दो समय के भोजन की व्यवस्था में ही सारा जीवम चला जाता है | ऐसे समय में आत्मा इच्छा करती है कि कम से कम दो समय का भोजन तो मिलना चाहिए ,तभी आगे कुछ किया जा सकता है |
२.तो अगले जन्म में थोड़ा ठीक सा परिवार मिलता है, खाने की समस्या नहीं होती | कपडे,मकान,शिक्षा की आवश्यकता होती है | फिर इन सब आवश्यकताओं पर चित्त रहता है |
३. तो अगले जन्म में एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्म लेती है | इस जन्म में ये सब बातें उपलब्ध हो जाती हैं | फिर अधिक सुविधाएं अधिक धन मिलना चाहिए ,ऐसे विचार आते रहते हैं | विचार अधिक आने के कारण कार्य कम ही हो पाता है और विचार करने में सारा जीवन चला जाता है |
४.फिर अगले जन्म में किसी धनवान के यहाँ जन्म लेती है | इस वक़्त सभी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए पर्याप्त धन रहता है ,फिर भी शरीर की आवश्यकताएं असीमित होने के कारण ,और भौतिक सुख सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिए, ऐसी इच्छा होती है | और यह इच्छा रहते हुए ही मृत्यु हो जाती है |
५. अगले जन्म में अत्यधिक धनवान के घर जन्म लेती है ,जहा पर जन्म से ही साडी सुख सुविधाएं होती हैं और अत्यधिक धन और अत्यधिक भौतिक सुख सुविधाएं प्राप्त करने के बाद भी अपने वृद्धत्व के समय यह महसूस करता है - जिस धन को कमाने में मेने सारा जीवन व्यतीत कर दिया और सोचा अधिक धन से अधिक सुख प्राप्त होगा ,पर सुख तो मुझे मिला ही नहीं ! प्रत्येक भौतिक साधन थोड़े समय के लिए सुख प्रदान करता था और उस समय लगता था यही सुख है | पर बाद में पता चलता था वह क्षणिक सुख था और बाद में फिर वही खालीपन ,फिर वही,नए सुख की तलाश रहती ही थी | यानि मनुष्य को यह ज्ञान हो जाता है की भौतिक साधन शाश्वत सुख नहीं दे सकते ,उनसे केवल शारीरिक सुख मिलता है जो क्षणिक सुख ही होता है | पर ज्ञान होते होते उसका जीवन ही समाप्त हो जाता है ,पर उस आत्मसुख को पाने की इक्छा बाकी रह जाती है और उसकी मृत्यु हो जाती है |
६.और फिर वह अगला जन्म लेता है तो उस आत्मसुख को प्राप्त करने के लिए ही लेता है | और फिर अपने बचपन से ही इस और चलने लगता है | और फिर उस जन्म में उसने जिस घर में जन्म लिया है , उस घर के धर्म को वह आत्मसुख प्राप्ति का साधन समझकर उसे ही पकड़ लेता है और फिर जीवनभर धर्म को ही पकडे रहता है | वह जीवन में एक कट्टर धार्मिक व्यक्ति भी कहलाता है जो जीवनभर अपने धर्म के रस्ते पर चला | ऐसे मनुष्य जन्म से ही बड़े धार्मिक होते हैं | धर्म में उनकी बड़ी आस्था होती है | बड़ी से बड़ी कठिनाई में वे अपने धर्म को पकडे ही रहते हैं और उस शाश्वत सुख की खोज करते रहते हैं | फिर वे इस सुख की खोज में अनेक कर्मकांड भी क रते हैं जो धर्म अनुसार होते हैं | कोई पूजा,कोई प्रार्थना,कोई जाप,कोई हवन ,करता है | यह सब कर्मकांड उसे थोड़ा सुख देते हैं और उस समय उसको लगता है की वह अपनी मंजिल तक पहुँच गया - और आत्मा कहती है की नहीं,अभी आत्मा का सुख और है | और अपने धर्म को जीवनभर अपनाकर भी उसके जीवन में कुछ पाने के लिए बाकी रह जाता है | फिर जो रह जाता है वह है आत्मसुख | फिर वह आत्मा आत्मसुख की इच्छा करने लगती है | फिर मृत्यु हो जाती है |
७. अगले जन्म में अपने अनुभव के साथ रहता है | जिस घर में जन्म लिया उस घर का धर्म अबकी बार अलग ही होता है और वह जान जाता है - यह धर्म नहीं है ,यह उपासना की पद्धति है और यह प्रत्येक जन्म के साथ बदलती रहती है | फिर उस घर की उपासना पद्धति को आधार बनाकर आगे बढ़ता है | पर उपासना पद्धति को पकड़े नहीं रहता है और फिर आत्मसुख की खोज में किसी जीवंत गुरु तक पहुँच जाता है | और फिर उस जीवंत गुरु की कृपा से आत्मा अनुभूति प्राप्त करता है और बाद में आत्मसुख का अनुभव करता है | और उस आत्मसुख को पाने के बाद साडी इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं | वह अनुभव करता है की मैंने मनुष्य जीवन में सबकुछ प्राप्त कर लिया है | और ऐसी तृप्त स्तिथि में आत्मसमाधान को प्राप्त होता है और अपने जीवनकाल में ही मोक्ष की स्तिथि को प्राप्त करता है | फिर भले ही देह से उसकी मृत्यु बाद में होती है ,उस मृत्यु के बाद उसका जन्म नहीं होता है क्युकी अब जन्म लेने के लिए कोई इच्छा ही कारणीभूत नहीं रही और उसका उत्क्रांति का चक्र पूर्ण होता है |
हि.स.यो.१/४४०
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