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Showing posts from May, 2017

आज उसका अर्थ पूर्ण रूप से सिर्फ समझा ही नही अनुभव भी कर रही थी ।

आज   उसका   अर्थ   पूर्ण   रूप   से   सिर्फ   समझा   ही   नही   अनुभव   भी   कर   रही   थी । " जेहि विधि राखे राम तेही विधि रहिए सुखों को जो अपना कहिए      दुखों को भी सहीए हो राम         जेहि विधि राखे राम ..... *******************  गुरु माँ माँ ..पुष्प ..१

गुरुदेव [ आंगंतुक ] ने आशीर्वाद दिया "अखंड सौभाग्यवती भव

मेरी    " ।। माँ ।।" ************** गुरुदेव   [ आंगंतुक ]  ने   आशीर्वाद   दिया  "अखंड सौभाग्यवती   भव । तुम   इसकी [ स्वामीजी की ] चिंता   मत   करना । मै   इसका   पूरा   ध्यान   रखुँगा ।" कहकर   जाने   लगे ।... ****************** गुरु माँ - - - पुष्प  १- ३९

लोग धर्म और आध्यात्म में भेद नही समझते

" लोग   धर्म   और   आध्यात्म   में   भेद   नही   समझते   आध्यात्म   में   आत्मा   का   अध्ययन   होता   है , इसमें   कोई   कर्मकांड   नही   होता । धर्म   में   कम   या   जादा   कर्मकांड   होते   है ।  धर्म   हमे   अध्यात्म   तक   पहुँचने   में   सहायता   करते   है   किंतु   आध्यात्मिक   प्रगती   के   लिए   धर्म   तथा   धार्मिक     कर्मकांडों   से   ऊपर   उठना   होगा ।"... *********** [ आगंतुक ] ।।" माँ "।।         पुष्प १

आध्यात्मिक प्रगती की इच्छा

" मेरे   विचार   में  ,भौतिक   इच्छा   पूर्ण   करे   न   करे   किंतु   आध्यात्मिक    प्रगती   की   इच्छा   आत्मा   की   इच्छा   होती   है । आत्मा   की   इच्छा   अवश्य   पूर्ण   की   जानी   चाहिए ।.. ************** परम पूज्या ' गुरुमाँ ' ।। माँ ।। पुष्प १

आकाश की ऊँचाई प्राप्त करने वाले परमपूज्य स्वामीजी के पीछे पूज्या गुरुमाँ डोर समान है

आकाश   की   ऊँचाई   प्राप्त   करने   वाले   परमपूज्य   स्वामीजी   के   पीछे   पूज्या   गुरुमाँ   डोर   समान   है । वें   एक   सन्माननीय   शिक्षिका   रह   चुकी   है । उन्होने   शिक्षिका   एवंम   गृहस्थी   की   जिम्मेदारियाँ   उठाते   हुए   आध्यात्मिक   शिखर   को   प्राप्त   कर   एक   आदर्श   उदाहरण   प्रस्तुत   किया   है । वें   स्नेह   और   ममता   की   ऐसी   जिवंत   मूर्ति   है   जिनके   सानिध्य   में   मनुष्य   ही   नही , पशु   पक्षी   भी   अपने -आपको   धन्य   समजते   है ।  बहुआयामि   व्यक्तित्व   की   धनी , उच्चशिक्षित    पूज्या   गुरुमाँ   सांस्कृतिक   जिवनमुल्ल्योँ   का   बहुत   सन्मान   रखती   है   व   उनके   संवर्धन   में   विशेष   रुचि   लेती   है । परमपूज्य   स्वामीजी   की   गहन   आध्यात्मिक   बातों   को   अपनी   सहज -सरल   शैली   के   द्वारा   अत्यंत   सुलभ   बना   देती   है । स्वयं   को   सदैव   एक   सामान्य   साधिका   ही   समझने   वाली   शक्तिस्वरुपा   पूज्या   गुरुमाँ   समर्पण   परिवार   का   प्रेरणा   स्थान   है ।.. " माँ "  पुष्प १

"शाश्वती , बाबाधाम, 31st May 2017

कल स्वामीजी आचार्य संमेलन के बाद घर आए। वे थोडे थके होने पर भी उन्हें शाम को बगीचे में अच्छा लगता है तो उन्होंने कहा " एक धण्टे बाद नीचे गार्डन में मिलो"। चाय के साथ गार्डन में प्रवचन के विषय पर चर्चा हो रही थी और अचानक से उन्होंने कहा "मैंने साधको को संदेश दीया की आँख पलकते ही ध्यान लग जाना चाहिए, पर क्या मैं खुद कर सकता हूँ? शाश्वती क्या तुम परीक्षण करोगी की मेरा कितने समय में ध्यान लगता है? " मुझे आश्चर्य हुआ, फिर मैंने मोबाईल में स्टोपवोच चालु कि और स्वामीजी से कहा कि मैं जब 'स्टार्ट' कहूँ तब आप ध्यान शुरु कीजिएगा। पहली बार उन्हें 18 सेकन्ड लगे। फिर उन्होंने कहा , " मैं उच्च स्थिति में चला गया था। अब जब मैं कहूँ तब फिर से एकबार देखो कि मेरा कितने समय में ध्यान लग जाता है।"  तो फिर से मैंने ' स्टार्ट' कहा, तब सिर्फ 4sec में उन्होंने कहा कि  " मैं पहुँच गया। " मैं अचंबित थी क्योंकि मैं समय देख रही थी तो उनसे दूर नहीं थी, उनके इतने नजदीक होते हुए भी वे इतनी जल्दी उच्च स्थिति में चले गए। सिर्फ उन्हें ध्यान करते देखने से ही मुझे

आपका चित आपके घर के आईने के समान होता है ।

आपका चित आपके घर के आईने के समान होता है । आप आपके घर के आईने को सदैव स्वच्छ रखते हो , ताकि आपका चेहरा स्पष्ट से स्पष्ट दिख सके। केकिन अपने चित्त रूपी आईने को स्वच्छ नहीं करते। अगर आपका चित्तरूपी आईने भी स्वच्छ हो , तो आप उस चित से परमात्मा की अनुभूति कर सकते हैं। सान्निध्य - ३३

मनुष्य के शरीर का जन्म ही आत्मा के जन्म के लिए होता है ।

मनुष्य   के   शरीर   का   जन्म   ही   आत्मा   के   जन्म   के   लिए   होता   है । लेकिन    इन   दो   जँमोँ   के   बीच   कई   जँमोँ   का   अंतराल   होता  है । क्योकि   शरीर   के   कई   जन्मो   के   बाद   आत्मा   का   जन्म   होता   है । मनुष्य   का   जन्म   वह   रास्ता   है   जो   आत्मा   के   जन्म   तक   पहुँचता   है ।.. जब   तक   आत्मा   के   जन्म   की   स्थिति   नही   नही   बनती   है , आत्मा   का   जन्म   नही   होता   है ।.. ***************** परम पूज्य गुरुदेव [ आध्यात्मिक सत्य ]

आध्यात्मिक सत्य

" समर्पण ध्यान " ईश्वरप्राप्ति   का   वह   मार्ग   है   जिसमे   सदगुरु   के   सानिध्य   में   सामूहिक   प्रयास   किया   जाता   है । " समर्पण "  ध्यान   से   एक   आत्मा   अनेक   आत्माओँ   की   सामूहिक   शक्ति   से   जुड़   जाती   है।.. " समर्पण ध्यान " संपूर्ण   प्राकुतिक   है । बस   अपने   अस्तित्व   को   प्रकुति   के   अस्तित्व   में   विलीन   कर   दो ।... " समर्पण ध्यान " एक गुरुमँत्र   की   सामूहिक   शक्ति   पर   निर्भर   है । आपने   गुरुमँत्र   किस   भाव   से   कहा , उसी   पर   निर्भर   है ।... " समर्पण ध्यान " अनुभुतियोँ   पर   आधारित   है । आप   इसमें   जैसे -जैसे   प्रगती   करते   है , वैसे -वैसे   आपको   अनुभुतियाँ   होना   शुरू   हो   जता   है । " समर्पण ध्यान " आज   की   परिस्थिति   के   अनुसार   है । वर्तमान   की   ध्यान   पद्धति   है । वर्तमान   वैचारिक   प्रदूषण   के   जगत   में   आसानी   से   किया    जा   सके , ऐसी   सरल   ध्यान   की   पद्धति   है । वर्तमानकि   होने   के   कारन   आसानी   से   अ

आत्मज्ञान तो एक अनुभूति है

आत्मज्ञान तो एक अनुभूति है जो जीवंत गुरु के माध्यम से प्राप्त हो सकती है। HSY 1 pg 455

अपने गुरु से आत्मज्ञान के माध्यम से चैतन्य ग्रहण करना

अपने गुरु से आत्मज्ञान के माध्यम से चैतन्य ग्रहण करना और उसी चैतन्य को बाँटना, यही आत्मा की उत्तक्रांति है। इसके अलावा उसका कोई कार्य है ही नहीं। समान रूप से लेना और समान रूप से बाटना, बस यही एक कार्य माध्यम के रूप में करो , तो ही मोक्ष प्राप्ति सम्भव है। *_ HSY 2 pg 185

प्रत्येक मनुष्य जब जन्म लेता है, तभी ही उसकी गाडी की पटरी निश्चित हो जाती है

प्रत्येक मनुष्य जब जन्म लेता है, तभी ही उसकी गाडी की पटरी निश्चित हो जाती है और वह उसी पटरी पर चला तो ही उसकी गाडी आगे बढ सकती है और नहीं चला, तो नहीं बढेगी। और अगर हम गलत डिब्बे में बैठे हैं, तो अपने टिकट का पैसा वसूल करने के लिए पूरे मार्ग का सफर कर, गलत मार्ग पर चलकर गलत स्थान पर पहुँचने से अच्छा है- आज ही यह गाडी बदल लो। अपनी गलती स्वीकार करो कि गलत गाडी पकडी थी और उतरो और सही गाडी पकडो और आगे बढो। हि. स. यो. २/ ११५

धन एक निर्जीव साधन है ।

" धन   एक   निर्जीव   साधन   है । उसके    रहने   से   कोई   सुखी   नही   रह   सकता   और   उसके   न   रहने   से   कोई   दुःखी   नही   रह   सकता । सुख   और   दुःख   मन   की   मनोदशाएँ   हैं । आपके   मानने   पर   सुख   है   और   आपके   मानने   पर   ही   दुःख । आप   परिस्थिती   को   स्वीकार   कर   लो  तो   ही   सुख   है , स्वीकार   न   करो   तो   दुःख   है । " ~~~~~~~~~ परम पूज्य गुरुदेव  

शिष्य की गुरु से आत्मीयता होनी चाहिए ।

 शिष्य   की   गुरु   से   आत्मीयता   होनी   चाहिए । आत्मीयता   होगी   श्रद्धा   से ।... आत्मीयता   होने   पर   ही   गुरु   की   बात   उसी   अर्थ   में   समझी   जा   सकती   है , जिस   अर्थ   में   गुरु   बोल   रहे   है ।  ।। ~~~~~~~~~~~ ही .का .स . योग [ १ ]

परमात्मा सर्वत्र है । बस आवश्यकता है उस स्थिति में जाने की

परमात्मा   सर्वत्र   है । बस   आवश्यकता   है   उस   स्थिति   में   जाने   की   जिससे   उसका   सर्वत्र   अनुभव   हो । और   यह   तभी   हो   सकता    है   जब   उससे   समरसता   स्थापित   हो   जाए ।  इसलिए   भक्तिमार्ग    जो   "परमात्मा बाहर है "  उसकी   भक्ति   करने   की   प्रेरणा   देता   है   और   दुसरा  ,गहन   ध्यान   मार्ग ,  जो   "परमात्मा भीतर   है " की   प्रेरणा   देता   है ,  इन   दोनो   के   बीच   में   समर्पण   ध्यान   है ।  इसे   देखे   तो   इस   में   सबकी   अछाइयोँ   का   संगम   है   और   अति   में   कुछ   भी   नही   है ।  सब   मध्यमार्ग   में   है । ****************** "आध्यात्मिक सत्य "

*गुरुचरणों*

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*गुरुचरणों* पर चित रखना यानि सदैव उन चरणों पर ही अपनी नजर रखना नहीं है, बल्कि अपना अस्तित्व गुरु से अलग न समझना है; जिस प्रकार एक शरीर में मस्तिष्क हाथ से रहता है - उठाओ, तो वह उठाता है, पैरों को आग्ना देता है - चलो , तो वे चलते हैं | यानि शरीर के अंग- प्रत्यंग जिस प्रकार से काम करके हैं, वैसे ही अंग- प्रत्यंग बनकर काम करना, अपना ' *मैं*' का अंहकार न रखना, अपना अस्तित्व गुरु से अलग न समझना| अपने अस्तित्व को शून्य करने का मार्ग ही गुरुचरण है |.    -हि.स.यो-३.   पृष्ठ-२२० गुरुचरण

स्त्री का पूर्ण स्वरूप माँ का ही है।

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*स्त्री का पूर्ण स्वरूप माँ का ही है। वह सदैव माँ ही होती है। और माँ होने के लिए आवश्यक नहि की उसे बच्चा हो ही। माँ होना स्त्री का मूल स्वभाव है और जब वह उस स्वभाव के अनुरूप होती है तो उसके भीतर से ऊर्जा का एक प्रभाव निकलता है। वह ऊर्जा उसके मूल स्वरूप के कारण ही निर्मित होती है। * * जय बाबा स्वामी* -*HSY 2 pg 167*

आत्मशांति की दिशा भीतर ही है।

आत्मशांति की दिशा भीतर ही है। इसका ज्ञान मनुष्य को नहि है। वह ज्ञान एक बार मनुष्य को हो जाए, वह आत्मशांति पा ही लेगा। क्यूँकि मनुष्य आत्मशांति चाहता तो है, खोज भी रहा है, पर आत्मशांति की खोज बाहर हो रही है। बस उसे सही दिशा देने की आवश्यकता है। *_ HSY 1 pg 441

उस अवसर का सम्पूर्ण लाभ लेने के लिए

उस अवसर का सम्पूर्ण लाभ लेने के लिए किस किस पादानों से गुजरना होता है। कैसे कैसे पादाने चढ़ते है। और पूर्णत्व तक पहुँचते है। वही आज हम देखेंगे। गुरुपूर्णिमा तक पहुँचना, गुरुपूर्णिमा में शामिल होना काफी नहीं है। ये तो शरीर से हुआ। अभी आत्मा से शामील होने का है। ****************************** (गोआ गुरुपूर्णिमा २०१० के गुरुदेव के प्रवचन से)

भगवान को मानना ह्दय का शुध्ध भाव है |

" भगवान को मानना ह्दय का शुध्ध भाव है | जब हम भगवान को किसी भी रूप में माने हैं तो उस समय हम एक अच्छी मानसिक स्थिति में होते हैं| और यह स्थिति ही मनुष्य को समाधान एवं मन की शांति प्रदान कर सकती है | आप किसी को भी अपना भगवान् मानो, श्रध्धा की भावना से एक आत्मशांति अनुभव करते हैं | यह इसलिए हो जाता है कि जाने-अनजाने में आप कहीं-न-कहीं अपने *मैं* ' के अस्तित्व को विसर्जित करते हैं|.    हि.स.यो-३.    पृष्ठ-२८८

आश्रम की व्यवस्था के कारण प्रत्तेक आश्रम में एक पवित्रता का वातावरण होता है ।

आश्रम  की  व्यवस्था  के  कारण  प्रत्तेक  आश्रम  में  एक  पवित्रता   का   वातावरण  होता  है । आपका  कार्य  अन्य  सेवाधारी  करे , कितनी  शर्म  की  बात  है ! आप  आश्रम  में  जब  भी  आए , तो  आप  यह  भाव  लेकर  आए -- मै  स्वामीजी  के  सानिध्य  में  आया  हूँ , मुझे  उस  स्थान  पर  रहने  का  सुवसर  मील  रहा  है , यहाँ  लोग  दुनियाँ  भर  से  दर्शन  करने  आते  है । यह  एहसास  भी  आपको  हो  गया , तो  भी  बाकी  सब  हो  जाएगा । आपको  सभीको  एहसास  हो , यही  गुरुशक्तियोँ  से  प्रार्थना  है । आप  सभीको  खूब  खूब  आशीर्वाद। *************** आपका बाबा स्वामी

मै का अहंकाररूपी ज़हर

" मै " का  अहंकाररूपी ज़हर  जब  तक  शरीर  रूपी  कुंभ में  है , कितना  भी  अमृत  कुंभ  में  डालो  सब  बेकार  है ।... **************** परम पूज्य स्वामीजी

परमात्मा

  परमात्मा   का  अंश  प्रत्येक  मनुष्य  में  है । जब  इसी  मनुष्य  के  ऊपर  आप  प्रेम  की  वर्षा  करते  है  तो  वह  प्रेम  की  वर्षा  आप  उस  मनुष्य  के  ऊपर  नही  करते  है , पर  परमात्मा  के  उस  अंश  पर  करते  रहते  है । उस  अंश  पर  की  गई  वर्षा  जाने - अनजाने  में  परमात्मा  पर  ही  होती  है , परमेश्वर  पर  ही  होती  है । चै..स..ध्या..महाशिविर २००१

अहंकार

अहंकार   बहुत  सूक्ष्म  रूप  में  रहता  है  और  वह  कब  चोला  बदल  लेता  है  वह  अपने  को  पता  नही  लगता  है । कहीँ  ऐसा  तो  नही  की  अहंकार  ने  साधक  का  चोला  पहन  लिया  हो ? ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ चैतन्य महोत्सव २०१६

केवल ध्यान

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गुरु के प्रति जितना श्रद्धा भाव रखोगे

गुरु  के  प्रति  जितना  श्रद्धा  भाव रखोगे , मूर्ति  के  प्रति  जितना  श्रद्धा भाव  रखोगे, समाधिस्थल  के  प्रति  जितना  श्रद्धा भाव  रखोगे  उतना ...तुम  उसके  ऊपर  नही  उपकार  कर  रहे  हो । समाधी  के  ऊपर  उपकार  नही  कर  रहे  हो , जिवंत  गुरु  पे  उपकार  नही  कर  रहे  हो , तुम  उस  देवता  के  ऊपर  उपकार  नही  कर  रहे  हो । तुम  श्रद्धा भाव  रखकरके  अपना  ही  आईना , अपना  ही  मिरर , अपना  ही  ग्लास  साफ  कर  रहे  हो , स्वच्छ  कर  रहे  हो । जितना  स्वच्छ  रखोगे , जितना  साफ  रखोगे  उतना  ही  आपको  आपका   चेहरा  जादा  स्पष्ट  नजर  आएगा । तो  जितनी  श्रद्धा  रखोगे  ,जितना  समर्पण  रखोगे  उतना  ही  भीतर, भीतर , भीतर ,भीतर , भीतर , भीतर  उतरते  चले  जाओगे । वो  एक  माध्यम  है  जिसके  माध्यम  से  आपकी  अँतर्मुखि  यात्रा  प्रारंभ  होती  है । महाध्यान -ज -२०१७

जिवंत गुरु

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आप  किसी  जिवंत  गुरु  के  सानिध्य  में  जाइए , वो  स्वयं  अँतरमुखि  रहता  है , वो  अपनी  ही  मस्ती  में  मस्त  रहता  है । जैसे  आप  उसका  दर्शन  करते  है , दर्शन  करने  के  बाद  में  आपको  अच्छा  लगता   है । और  एक  आकर्षण  बार -बार  उसकी  ओर  खींच  के  हमको  लेके  जाता  है । बार -बार  इच्छा  होती  है  कि  उनका  दर्शन   करना  चाहिए , वहाँ  जाना  चाहिए । वह  भी  निमित्य  है । जिवंत  गुरु  भी  निमित्य  है । जिवंत  गुरु  के  कारण  कुछ  नहीँ  होता । जिवंत  गुरु  अँतर्मुखि  स्थिति  में  रहता  है , उसके  पास  जाकर  के  हम  भी  अँतर्मुखि  हो  जाते  है । और  जैसे  ही  हम  अँतर्मुखि  होते  है , हमको  अच्छा  लगता  है । अच्छा  लगता  है  यानी ? मूर्ति  के  सामने  दर्शन  से  अच्छा  नहीँ  लगता , अच्छा   इसलिए  लगता है  क्योंकि  उसके  सामने  हम  आत्मा  के  करीब  पहुँच  जाते  है । समाधिस्त  गुरु  के  पास  जा  करके  भी  अच्छा  नहीँ  लगता , अच्छा  लगता है  क्योंकि  उसके  निमित्य  से , उसके  माध्यम  से  हम  आत्मा  तक  पहुँच  जाते  है । जिवंत  गुरु  के  सामने  हम  जाते  है  वहाँ  पे  भी  वौहि  प्रक्रिय

भारतीय संस्कृति अनुभूति पर आधारित है

भारतीय   संस्कृति   अनुभूति   पर   आधारित   है   और   उसी   अनुभूति   के   आधार   पर   सदगुरु   को   बड़ा   महत्व   दिया   गया   है । इसीलिए   सदगुरु   के   महत्व   को   समझाने   के   लिए   कहा   गया   है , ' गुरु साक्षात परब्रह्म ' याने   गुरु   परमात्मा   का   आज   का   साक्षात   स्वरूप   होता   है ।... ***************** परम पूज्य गुरुदेव [ आध्यात्मिक सत्य ]

संचालक, आचार्य एवं पदाधिकारियों के लिये

संचालक, आचार्य एवं पदाधिकारियों के लिये कहा बाबा ने, फर्क नाही मैं और मंगलमुर्ति, चलता फिरता हु सीर्फ मै, नाही मंगलमुर्ति, हाथ-पैर मेरे, माध्यम आपही को है बनना, माध्यम ही, मुझे चलाते फिराते है समझना, आदर्श माध्यम बनके, आपको ही है दिखाना। हम माध्यम को ही, बाबा की मिली है अधिकृता, इस्तेमाल अधिकृतता का, सही हमें है करना, इसीको स्थिति सुधारने का, मौका हमें है बनाना, फर्ज़ तीन साल निभा के, पुन्य कर्म है कमाना, सेतु, बाबा और साधकों के बीच हमे है बनना, अबतो आदर्श माध्यम, बनके ही हमें है दिखाना। गुरुओ के गुरूओ को, इस धरा पे जन्म है लेना, इसलिये समर्पण विवाह के, गुरूकार्य में हमें है जुडना। आशीर्वचन बाबा के, सबको हमें है दिलवाना, इसलिये मधुचैतन्य का, लवाजम है करवाना। चित्तशुध्दि या समस्या निवारण, यज्ञ मे है सबको बैठाना, इसलिये आश्रम तक, साधको को है लेजाना, अबतो आदर्श माध्यम, बनके ही हमें है दिखाना। चैतन्य बाबा का, साधकों में हमें है बांटना, संदेश बाबा के, साधकों तक हमें है लेजाना, समर्पण साहित्य को, आम तक हमें है पहुचाना, रजिस्ट्रेशन और अनुदान को, आगे तक हमें है देना, अबतो

वक्त

ये   वक्त    न   ठहरा   है  ये   वक्त   न   ठहरेगा ये   यूँ   ही   गुज़र   जाएगा     .घबराना   कैसा ?  सागर  के  सीने  से  पाए  है  मोती कोई  सीप  मिले  खाली , घबराना  कैसा ? ये  दुःख -सुख  जीवन  में  आते  और  जाते  है दुःख  पहले  आ  जाए , घबराना  कैसा ? ******************* परम पूज्या गुरु माँ " माँ " भाग [ २ ]

आई

कभी   जेष्ठ   माह   की   धूप   जिंदगी , कभी   आषाढ   की   जलधारा   जिंदगी । तितलियों   के   पंखों   सी   कोमल   है   जिंदगी , वज्र   सी   कठोर   भी   होती   है   जिंदगी । हर   रंग   दिखाए   हर   मौसम   में   खिलाए , हम   [ देह ]  शिशु   और   वो   हमारी   माँ   है   जिंदगी । [ जीवन , कधी   ज्येष्ठातल्या   उन्हासारख   तर   कधी   आषाढातल्या   जलधारेसारख .  फुलपाखरांच्या   पंखासारख   नाजुक   जीवन   आणि   कधी   वज्रासारख   कठोर   जीवन ,  प्रत्तेक   रंग   दाखवत ,  प्रत्तेक   ऋतूत   फूलवत .  आपण   [ देह ]  बालक   आणि   आपली   आई   म्हणजे   जीवन ] ******************** परम पूज्या गुरुमाँ " आई ''  भाग [ २ ]

जब हम नियमित ध्यान करते है , जब हम आत्मरुप होके रहते है ,

जब   हम   नियमित   ध्यान   करते   है ,  जब   हम   आत्मरुप   होके   रहते   है ,  सुबह -शाम   आत्मरुप   जब   नियमित   रूप   से   होते   है ,  तो   एक   समय   ऐसा   आता   है   कि   जब   हम   अधिकाँश   समय   उसी   स्थिति   में   होते   है ।  ध्यान   का   मतलब   ये   नही   है   कि   आप   पूरे   समय   ऐसे   ही   ध्यान   में   रहो ।  गुरुदेव   ने   कहाँ   है   ना   कि   आप   आधा   घंटा   ध्यान   करो ,  साढ़े -तेइस   घंटे   ध्यान   में   रहो । ध्यान   में   रहो   मतलब ?  आप   आत्मरुप   रहो , आप   नन्हे   बच्चे   कि   तरह   रहो ,  जो   हर   परिस्थिती   में   खुश   रह   सकता   है । **************** परम पूज्या गुरु माँ मकरसंक्रांति [ २०१७ ]

दान

मेरे   मित्रों , आप   सभी   के   पास   दान    करने   के   लिए   कुछ -न -कुछ   जरूर   है । उस   अवसर   को   समर्पण   के   भाव   से   परिवर्तित   करके   देना   है । इतना   'दिन ' कभी   नही   बनना   दोस्तों   की   आप   दान   ही   न   कर   पाओ ..!!  क्योंकि   दान  ' दान ' नही   है ,  "दान   ही   समर्पण   है ...!!' अँबरिशजि मधुचैतन्य           मा . अ . २०१७

मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है ।

मन   ही   मनुष्य   के   बंधन   और   मोक्ष   का   कारण   है । आसूरी  [ नकारात्मक ] गुण   मोक्ष   के   बाधक   है   और   दैवी [ दिव्य ] गुण   मोक्ष   कारक   है । अज्ञान   बंधन   कारक   है   और   ज्ञान   मुक्तीदायक   है । अहंकार  , रजोगुण   और   तमोगुण   बंधन   करते   है । ऋण , हत्या   और   वैरभाव ,  ये   सब   मोक्ष   मार्ग   में   बाधक   होते   है । सिद्धियाँ   भी   मोक्ष   में   बाधक   है। **************** ही .का .स .योग [ ३ ]

मुनि श्री रत्नाकरसागरजी

९ वें   गहन   ध्यान   अनुष्ठान   के   ४५ दिनों   के   दौरान   मै   आश्रम   के   निवास - स्थान   में   बैठकर   श्री   ऋशभ   देव     प्रभु   का   जीवन   चरित्र   लिख   रहा   था । जब   उनको   मोक्ष   की   स्थिति   प्राप्त   होने   की   घटना   लिख   रहा   था ,  उस   समय   करीब   ५ मिनट   तक   गुलाब   की   खुशबू   फैल   गई   और   मुझे   बड़ी   प्रसन्नता   हुई ।  एक   सप्ताह   के   बाद   दोपहर   के   समय   जब   मै   पूज्य   स्वामीजी   का   साहित्य   पढ़   रहा   था   उस   समय   दो   बार   सुगंधी   फूलों   की   महक     फैल   गई ।  उस   दिन   मेरा   जन्म दिवस   था   और   मुझे   ऐसा   प्रतीत   हुआ   जैसे   पूज्य   गुरुदेव   मुझे   मेरे   जन्म   दिन   की   बधाई   दे   रहे   है ।  मुझे   बेहद   खुशी   हुई ।.. ******************* मुनि श्री रत्नाकरसागरजी

मोक्ष ध्यान की उच्च अवस्था है

मोक्ष  ध्यान   की   उच्च   अवस्था   है   जो    प्रत्तेक   को   नियमित   ध्यान   साधना   करके   प्राप्त   करनी   होती   है । [ ही .का .स .यो .  १ ] ******* नियमित   ध्यान   के   अभ्यास   से   क्रमशः   आत्मानुभुति , आत्मज्ञान    आत्मधर्म   की   जागृति ,  आत्मानँद , आत्मसमाधान , आत्मशाँति   और   आत्ममोक्ष   की   स्थिति   संभव   होती   है ।  साधना   स्वयं   करनी   होती   है ,  मोक्ष   की   स्थिति   साधना   से   ही   संभव   है । ******** माँ पुष्प [ २ ] या   तो   समाज   में   रहकर   सामूहिक   ध्यान   करो   या   हिमालय   में   जाकर   प्रकृति   की   सामूहिकता   में   ध्यान   करो ।  ये   दो   ही   मोक्सप्राप्ति   के   मार्ग   है । *********** ही .का .स .यो .[ ३ ] हम   सभी   का   यह सद्भाग्य   है   की   मोक्सप्राप्ति   के   द्वार   जिवंत   सदगुरु   श्री   शिवक्रिपानँदजी   के   जीवनकाल   में   हम   है ।  शीवबाबा   ने   कहाँ   था   --- तुम्हारे   माध्यम   से   जगत   में   लाखों   आत्माएँ   लाभान्वित   होगी , लाखों   आत्माएँ   मोक्ष   की   प्राप्ति   करेंगी । ************ ही .का .स

हमारा समर्पण ध्यान है क्या ?

हमारा   समर्पण   ध्यान   है   क्या ? हमारा    समर्पण   ध्यान  'समर्पण ' से   शुरू   होता   है । तो   जब   हम   समर्पित   है , हम   जानते   है   गुरुशक्तियाँ   हमे   बिल्कुल   हथेली   पे   कोमल   पुष्पों   की   तरह   सँभालति   है । तो   फिर   हम   उन   गुरुशक्तियोँ   के   प्रति   समर्पित   क्यों   नही   होते ? क्यों   हम   पूर्ण   विश्वास   नही   रखते   की   सब   जो   होगा   अच्छे   के   लिए   होगा । तो   जब   हम   पूर्ण   विश्वास   के   साथ   आगे   बढेन्गे   तो   कुछ   गलत   हो   ही   नही   सकता । किसी   तरह   से   कुछ   भी   गलत   नही   होगा । यदि   कहीँ   हम   असफल   है   भी , तो   असफल   देह   है   और   देह   को   सही   रास्ते   पे   लाने   के   लिए   मन   को   सही   रास्ते   पे   लाने   के   लिए   वो   परिस्थितियाँ   गुरुशक्तियोँ  ने   निर्माण   की ,  ताकि   वहाँ   ठोकर   खाओ   और   आप   सही   रास्ते   पे   आओ। ***************** पूज्या गुरुमाँ मकरसंक्रांती २०१७

कोई पैसा नही , कुछ नही चाहिए । कुछ ...सिर्फ आधा घंटा नियमित ध्यान करो ।

समर्पण   ध्यान   में   पैसे   का   क्लच   भी   नही   है । कोई   पैसा   नही , कुछ   नही   चाहिए । कुछ ...सिर्फ   आधा   घंटा   नियमित   ध्यान   करो । जिस    प्रकार   से , बराबर   ऑटोमेटिक   गियर   में   जैसे -जैसे   आगे   बढ़ते   जाओगे ,  गियर   बदलते   चले   जाएँगे । उसी   प्रकार   से   आप   आधा   घंटा   ध्यान   करो ;  सारी   परिस्थियाँ  , सारे   कौर्सिस   आप   पूर्ण   कर   लोगे ।  सबकुछ ,  जो   कुछ   है ,  उस   आधे   घंटे   में   है । ***************** महाध्यान १ जनवरी  २०१७

मोक्ष की स्थिति

मोक्ष की स्थिति पाकर देनी होती है। यानी अपना सर्वस्व देना ही मोक्ष है। HSY 2 pg 129

परमात्मा अविनाशी है ।

परमात्मा   अविनाशी   है ।  परमात्मा   कल   भी   था ,  परमात्मा   आज   भी   है   और   परमात्मा   कल   भी   रहेगा ।  यानी   परमात्मा   कोई   शरीर   नही   हो   सकता ।   हम   सोचते   है   की   परमात्मा   कहीँ   बैठा   हुआ   है   और   वह   देख   रहा   है   इस   सृष्टि   को   की   मैने   कैसी   सृष्टि   बनाई   है , वो   कैसी   चल   रही   है ,  कैसी   क्रियान्वित   है ।  तो   ऐसे   परमात्मा   का   अस्तित्व   विश्व   में   कहीँ   नही   है ।  ये   हमारी   सिर्फ   कल्पना   है ।  कल्पना   में   ही   हम   विचार   करते   है   की   ऐसा   परमेश्वर   कहीँ   बैठकर   हमे   देख   रहा   है । वास्तव   में   परमात्मा   एक   विश्वचेतणा   है   जो   पूरे   विश्व   के   कण -कण   में   विद्यमान   है ।  इस   विश्व   को   संचालित   करने   वाली   शक्ति   परमात्मा   है !  एक   कली   को   फूल   बनाने   वाली   शक्ति   परमात्मा   है !  एक   बीज   को   अंकुरित   करने   वाली   शक्ति   परमात्मा   है ।  प्रत्तेक   मनुष्य   के   भीतर   भी   परमात्मा   का   छोटा   सा   अंश   आत्मा   के   रूप   में   है ।  जब   वह   जा

अपने आपको शांत रखने के ३ सूत्र है ।

अपने   आपको   शांत   रखने   के   ३  सूत्र   है । [ १ ]  सबको   क्षमा   कर   दो ।  जो   बुरा   करेगा   वह   उसका   भोगेगा ।  हम   क्यों   उस   बुरे   व्यक्ति   को   चित्त   में   रखे  ? [ २ ]  किसी   में   भी   आसक्ति   मत   रखो   क्योंकि   आसक्ति   मन   को   अशांत   कर   देती   है ।  [ ३ ]  जो   जीवन   में   परिस्थितियाँ   आती   है   उन्हे   स्वीकार   कर   लो ।  उनसे   शिक्षा   ग्रहण   करो , आगे   बढो । हम   अगर   हमारे   जीवन   में   इन  ३  सुत्रोँका   पालन   करेंगे ,  तो   देखेंगे , हमारा   चित्त   सदैव   शांत   बना   रहेगा । हमारे   भीतर   की   अशांति   के   कारण   ही   बाहर   अशांति   बढ़ती   है ।  इसलिए   किसी   भी   स्थिति   में   भीतर   की   स्थिति   अशांत   मत   होने   दो ।  और   लगे   अशांत   हो   रहे   है ,,,  ध्यान   करो ,, गुरुमँत्र   का   जाप   करो ,, आपके   मन   को   शांति   मिलेगी ।  अब   तो   स्थान   का   भी   निर्माण   हो   रहा   है ।  वहाँ   संपूर्ण   भाव   के   साथ   आकर   अपने   भीतर   की   यात्रा   की   जा   सकती   है ।  चित्त   भीतर   जाने   पर   खुद -ब

परमात्मा सर्वत्र है ।

*ॐ श्री शिवकृपानंद स्वामी नमोनमः* *" परमात्मा सर्वत्र है ।"*  कोई   बाहर खोजते -खोजते भीतर   चले जाते है और कोई भीतर   खोजते -खोजते बाहर आ जाते   है। समर्पणध्यान भीतर खोजते -खोजते बाहर आ जाना है । पहले  गहरे भीतर ऊतरो और जानो  -- परमात्मा आपके भीतर है । और   बाद में भीतर से बाहर की यात्रा   प्रारंभ करो तो अनुभव होगा --परमात्मा सर्वत्र है । [ आध्यात्मिक सत्य ] *सुप्रभात* *आपका दिन मंगलमय हो....*🙏🏻

मैने जीवन में मेरे "सदगुरु " को ही परमात्मा माना ।

मैने   जीवन   में   मेरे   "सदगुरु " को   ही   परमात्मा   माना । इसीलिए   मै   इस   ' छोटे   से   जीवन ' में .  ही   परमात्मा   के   इतने   करीब   पहुँच   सका   की   परमात्मा   की   खोज   ही   समाप्त .  हो   गई   और  आत्मसमाधान   प्राप्त   हो   गया   कि   मैने   ' परमात्मा   को   पा   लिया   है ।.... परम पूज्य गुरुदेव आध्यात्मिक  सत्य     

मानना आत्मा का शुद्ध भाव है।

आप किसी भी माध्यम को मानो, मानना आत्मा का शुद्ध भाव है। वह भाव ही मनुष्य को झुका सकता है और मनुष्य जितना झुकता है, उतना ही उसका स्वयं का अस्तित्व समाप्त हो जाता है।*_ HSY 2 pg 59

गुरु के सामान्य शरीर में असामान्य आत्मा होती है

गुरु के सामान्य शरीर में असामान्य आत्मा होती है और वह केवल अनुभव हो सकती है। वह देखी नहि जा सकती है। HSY 1 pg 381

माँ

गुरुदेव तक हम सब पहुँचे हैं, हम सभी की साधना है। प्रत्येक आत्मा ने अपने पूर्व जन्मों में साधना की है फिर चाहे उसके ब्रह्मचारी रहकर साधना की , उसने संन्यासी बनकर साधना की, उसने गुहस्थ रहकर साधना की, किसी भी तरह से साधना की, साधना का धन उसके पास था , साधना की संपदा उसके साथ थी। तभी वो यहाँ तक पहुँच स्का है। गुरुपूर्णिमा - २०१६ पूज्या गुरुमा

श्री गुरुशक्ति धाम

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यह   स्थान   जो   परमात्मा   को   बाहर   खोज   रहे   है , उन्हे   भीतर   की   यात्रा   कराऐगा   और   जो   भीतर   तक   पहुँच   चुके   है   और   वही   अटक   गए   है , उन्हे   बाहर   का   मार्ग   बताऐगा   और   अनुभव   कराऐगा - परमात्मा   सर्वत्र   विद्यमान   है । यह   स्थान   नए   साधकों   के   लिए   प्रायमरी   स्कूल   है   और   पुराने   साधकों   लिए   PHD [ पी .एच .डी ]  का   ज्ञान   कराऐगा । आप   जिस   स्थान   पर   हो , उस   स्थान   से   अग्रेसर   होंगे । प्रत्तेक   मनुष्य   की   तरफ   देखने   का   आपका   नज़रिया   बदल   जाएगा । आप   जीवन   की   तरफ   सकारात्मक   रूप   से   देखेंगे   क्योंकि   अब   आपके   जीवन   में     समाधान   स्थापित   हो   चुका   होगा । **************** परम पूज्य स्वामीजी [ आध्यात्मिक सत्य ]  श्री गुरुशक्ति धाम श्री गुरुशक्ति धाम

फिर सभी मुनियोंने मीलकर, सामूहीक रूप से जाकर हिमालय के ही एक वयोवृध्ध मुनि से,

फिर सभी मुनियोंने मीलकर, सामूहीक रूप से जाकर हिमालय के ही एक वयोवृध्ध मुनि से, जो अपनी तपस्या में लीन थे, प्रार्थना की, "आप ही नीचे जाने की और नीचे जाकर यह ध्यान का मार्ग समाज को बताने की क्षमता रखते हैं। और आप चाहें तो यह कर सकते हैं।" लेकिन अपनी तपस्या से पूर्णत्व प्राप्त कर चुके मुनि से यह प्रार्थना करना ठीक वैसा ही था, जैसे इंन्द्रदेव ने दधीचि रूषि से प्रार्थना की थी, "आप देह त्याग करे, मुझे आपके शरीर की अस्थियों से वज्र बनाना है।" वैसी ही यह प्रार्थना थी। उनकी प्रार्थना स्वीकार कर उन वयोवृध्ध मुनि ने अपनी तपस्या को छोडकर केवल यह संकल्प के साथ प्राणत्याग किया कि केवल यह ग्यान देने की इच्छा से ही मैं देह धारण करुँ। और बादमें उन वयोवृध्ध मुनि ने अपनी सारी शकि्त्तयाँ अपने शिष्य श्री शिवबाबा को प्रदान कर दी थीं और कहा था, "जब मैं अगला जन्म लूँगा, तब, लाखों मनुष्यों की सामूहीकता को अनुभूति करा सकूँ, ऐसी शकि्त्तयां तपस्या से मैंने प्राप्त की हैं, वे मुझे मेरे अगले जन्म में सौंपना। इन शिक्तयों को सँभालकर रखने का गुरूकार्य आज से मैं तुम्हें सौंप रहा हूँ।"

स्त्री का प्रेम तथा उसका समर्पण उसकी कमजोरी नहीं , उसकी शक्ति होती है ।

स्त्री का प्रेम तथा उसका समर्पण उसकी कमजोरी नहीं , उसकी शक्ति होती है । जैसे लताएँ वृक्ष के सहारे ऊपर चढ़ती है । वृक्ष ही लता को सँभालना है किंतु आँधी आने पर स्थिर रहने में सहायता प्रदान करती है । जब भी दुष्ट लोग स्त्री के समक्ष स्वयं को दुर्बल महसूस करते हैं , तब वे उस स्त्री का चरित्र हनन करने का प्रयास करते है । वंदनीया गुरुमाँ स्त्रोत : *माँ*

परमात्मा का अस्तित्व सर्वत्र विद्यमान है ,

परमात्मा   का   अस्तित्व   सर्वत्र   विद्यमान   है ,  पर   अगर   ब्रह्मांड   में   फैले   हुए   परमात्मा   का   अनुभव   करना   है   तो   पहले   अपने   भीतर   सुप्त   अवस्था   में   रह   रहे   परमात्मा   के   अस्तित्व   तक   पहुँचना   होगा । उसे   जानना   होगा । उस   तक   पहुँचना   सब   से   आसान   है । इसलिए   आसान   है   क्योंकि   परमात्मा   का   वह   स्वरूप   सब   से   पास   में   होता   है । उसे   जाने   बिना   बाहर   के   परमात्मा   को   हम   कभी   भी   नही   जान   सकते   है । भीतर   का   परमात्मा   जाने   बिना   बाहर   खोजते   रहोगे   तो   जन्मो   जन्मो   तक   वह   नही   मिलेगा । एक   बार   भीतर   की   परमात्मा   की   अनुभूति   हो   जाने   के   बाद   बाहर   भी   परमात्मा   की   अनुभूति   होना   शुरू   हो   जाएगी । समर्पण   ध्यान   में   भीतर   जाया   जाता   है   और   भीतर   ही   परमात्मा   की   अनुभूति   पाई   जाती   है   और   उस   अनुभूति   से   बाहर   अनुभव   हो   जाता   है । फिर   बाहर   खोजणा   नही   पड़ता   है । और   फिर   अनुभव   होता   है   -- परमात्मा   सर्वत्र   है । न 

समर्पण ध्यान आज की परिस्थिती के अनुसार है ।

॥ॐ श्री शिवकृपानंद स्वामी नमो नमः ॥ समर्पण   ध्यान   आज   की   परिस्थिती   के   अनुसार   है । वर्तमान   की   ध्यान -पद्धति   है । वर्तमान   वैचारिक   प्रदूषण   के   जगत   में   आसानी   से   किया   जा   सके , ऐसी   सरल   ध्यान   की   पद्धति   है । वर्तमान   की   होने   के   कारण   आसानी   से   अपनाई   जा   सकती   है । अपणाकर   अनुभव   करे । **************** परम पूज्य स्वामीजी आध्यात्मिक सत्य 🙏जय बाबा स्वामी 🙏 🌸   🌸   🌸   🕉   🌸   🌸   🌸

असंतुलन मनुष्य को कमज़ोर कर देता है

🦋🕉🦋 वास्तव   में   देखा   जाए   तो   असंतुलन   मनुष्य   को   कमज़ोर   कर   देता   है   और   जब   मनुष्य   कमज़ोर   हो ,  उसकी   कुछ   भी   सहन   करने   की   शक्ति   कम   हो   जाती   है   और   जीवन   की   छोटी सी   तखलीफ   भी   बड़ी   लगने   लग   जाती   है । वास्तव   में ,  अनुभूति   चैतन्य   के   द्वारा   मनुष्य   के   असंतुलन   को   ठीक   करती   है । और   फिर   संतुलित   मनुष्य   के   प्रयास   संतुलित   होते   है   और   परिणाम   भी   संतुलित   आता   है । **************** परम पूज्य स्वामीजी ही .का .स .योग ...     🌸 भाग - ५ - पृष्ठ ; ७९ 🍂   🍂  🍂  🍂 🍂 🙏जय बाबा स्वामी 🙏 🌸   🌸   🌸   🕉   🌸   🌸   🌸

फिर सभी मुनियोंने मीलकर,

फिर सभी मुनियोंने मीलकर, सामूहीक रूप से जाकर हिमालय के ही एक वयोवृध्ध मुनि से, जो अपनी तपस्या में लीन थे, प्रार्थना की, "आप ही नीचे जाने की और नीचे जाकर यह ध्यान का मार्ग समाज को बताने की क्षमता रखते हैं। और आप चाहें तो यह कर सकते हैं।" लेकिन अपनी तपस्या से पूर्णत्व प्राप्त कर चुके मुनि से यह प्रार्थना करना ठीक वैसा ही था, जैसे इंन्द्रदेव ने दधीचि रूषि से प्रार्थना की थी, "आप देह त्याग करे, मुझे आपके शरीर की अस्थियों से वज्र बनाना है।" वैसी ही यह प्रार्थना थी। उनकी प्रार्थना स्वीकार कर उन वयोवृध्ध मुनि ने अपनी तपस्या को छोडकर केवल यह संकल्प के साथ प्राणत्याग किया कि केवल यह ग्यान देने की इच्छा से ही मैं देह धारण करुँ। और बादमें उन वयोवृध्ध मुनि ने अपनी सारी शकि्त्तयाँ अपने शिष्य श्री शिवबाबा को प्रदान कर दी थीं और कहा था, "जब मैं अगला जन्म लूँगा, तब, लाखों मनुष्यों की सामूहीकता को अनुभूति करा सकूँ, ऐसी शकि्त्तयां तपस्या से मैंने प्राप्त की हैं, वे मुझे मेरे अगले जन्म में सौंपना। इन शिक्तयों को सँभालकर रखने का गुरूकार्य आज से मैं तुम्हें सौंप रहा हूँ।" व