*गुरुचरणों* पर चित रखना यानि
*गुरुचरणों* पर चित रखना यानि सदैव उन चरणों पर ही अपनी नजर रखना नहीं है, बल्कि अपना अस्तित्व गुरु से अलग न समझना है; जिस प्रकार एक शरीर में मस्तिष्क हाथ से रहता है - उठाओ, तो वह उठाता है, पैरों को आग्ना देता है - चलो , तो वे चलते हैं | यानि शरीर के अंग- प्रत्यंग जिस प्रकार से काम करके हैं, वैसे ही अंग- प्रत्यंग बनकर काम करना, अपना ' *मैं*' का अंहकार न रखना, अपना अस्तित्व गुरु से अलग न समझना| अपने अस्तित्व को शून्य करने का मार्ग ही गुरुचरण है |. हि.स.यो-३. पृष्ठ-२२०
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