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श्री शिवकृपानंद स्वामी संदेश जून २०१७

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श्री शिवकृपानंद स्वामी संदेश जून २०१७ | H. H. Shivkrupanand Swami Message June 2017

आध्यात्मिक मार्ग

_*आध्यात्मिक मार्ग में आगे बढ़ने के लिए पहला क़दम है- सदगुरु पर विश्वास। क्यूँकि विश्वास ही एक सकारात्मक भाव का निर्माण करता है।*_ _* HSY 3 pg 52*_

समाधान

_* समाधान को बाहर खोजोगे,भटकोगे तो जीवन में समाधान बाहर कभी नहि मिलेगा। और समाधान को बाहर नहि खोजोगे और भीतर जाओगे तो समाधान की बरसात होगी। *_ _*HSY 1 pg 246*_

मनुष्य धर्म, मूर्ति, मंदिर, हवन आदि कर्मकाण्ड से इतना बँधा हुआ है

         श्री गुरू उवाच .....यानी एक आध्यात्मिक स्तर है जिस स्तर पर मूर्ति, धर्म, कर्मकाण्ड छुट जाते हैं। वहाँ से इन आध्यात्मिक गुरूओं की आत्माओं का क्षेत्र प्रारंभ हो जाता है और वे स्वयं ही मदद करना प्रारंभ कर देते हैं । लेकिन जबतक आप किसी मूर्ति से बाँधे हो, किसी धर्म से बाँधे हो तो आप उनके क्षेत्र में भी नहीं आते हैं । मूर्ति की पूजा कर्मकाण्ड के अंतर्गत ही आती है जो एकदम प्रायमरी (प्राथमिक )कक्षा का ग्न्यान है और प्रायमरी की कक्षा में कभी पी. एच. डी.  का शिक्षक नहीं जाता है ।  आत्मग्न्यान पी. एच. डी.  का ग्न्यान है । वहीं  ये सब अधिकारी पुरुष मिलते है । मनुष्य धर्म, मूर्ति, मंदिर, हवन आदि कर्मकाण्ड से इतना बँधा हुआ है कि इसके बिना केवल चित्त से परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है, इसकी उसे कल्पना ही नहीं है । 'आत्मग्न्यान 'परमात्मा ने अपने माध्यम से आत्मा पर किया एक ' सुसंस्कार ' है । उसी सुसंस्कार के बीज को, साधक को साधनारत रहकर वृक्ष बनना होता है । यह सुसंस्कार मनुष्य में धीरे --धीरे 'आमूल ' परिवर्तन ला देता है । आत्मग्न्यान वह सत्य का ग्न्यान है जिसके प्रका

मन मे जीस व्यक्ती के प्रती नाराजगी है , उसे क्षमा कर दीजिए

आपके मन मे जीस व्यक्ती के प्रती नाराजगी है ,  उसे क्षमा कर  दीजिए ,  हृदय से क्षमा कर दीजिए । क्षमा करने से हमारे दो चक्र पवित्र हो जाते है । एक तो आज्ञा चक्र खुलता है क्योंकि  वह  व्यक्ति आपके आज्ञा चक्र मे बैठा हुआ होता है । और दुसरा, क्षमाभावना  से हृदय चक्र खूलता है। मनुष्य के कम॔ होते है संस्कारो के कारण और संस्कार आते है संगत के कारण और संगत मिलती है पिछले जन्म के  कमोॅ के कारण पूज्य गुरूदेव अमृत तो सभी आत्माओं के हृदय में है । हमारी दृष्टी उनकी उस अमृत तक होनी चाहिए । इसलिए अपने आपको कीसी बंधन में मत बांधो की हम यह  है,  हम वह है। तो फिर आप एक अपने -आपको ग्लास का पानी कर लेते है, आप एक छोटा समुदाय बनाते है। पूज्या गूरूमाॅ

चित्त मोक्ष का द्वार है।

*चित्त मोक्ष का द्वार है।* जिस प्रकार से शरीर की दो आँखे होती है , ठीक इसी प्रकार से आत्मा की आँख चित्त होता है। जिस प्रकार अपने आँखों से जो हम देखते है , उस का प्रभाव हमारे विचारों पर पड़ता है , ठीक उसी प्रकार *जहाँ चित्त रखते है , वहाँ की ऊर्जा का प्रभाव हमारी आत्मापर पड़ता है।* *हमारा चित्त दिनभर में पता नही कितने लोगों में जाता है और हमारी आध्यात्मिक स्थिति अच्छी है तो उनकी गंदी ऊर्जा हम अनजाने में ही ग्रहण कर लेते है।* चित्त को काफी संभालने की आवश्यकता होती है। *आँखों से देखने भी बुरी जगह चित्त जाता है और नष्ट होता है। बुरी बाते सुनने से भी उन बुरी जगह हमारा चित्त जाता है और नष्ट होता है और जब हम बुरी-बुरी बाते करते है , तो भी उन बुरी बातों पर हमारा चित्त जाता है और नष्ट होता है।* इसलिए चित्त को संभालने के लिए आवश्यक है , बुरा मत देखो ,बुरा मत सुनों और बुरा मत कहो क्योंकि *ये तीन द्वार है जहाँ से चित्त शक्ति नष्ट होती है।* *अपने चित्त को सदैव पवित्र रखना चाहिए। ध्यान करने से चित्त शुद्ध होता है। सशक्त भी होता है। पर सशक्त चित्त संभालना भी बहुत कठिन होता है क्योंकि वह गं
अच्छा दूसरा ना, मेरे नाम पे ठोकना चालू मत करो।नहीं,वो मेरेको तुम्हारी खूब कम्प्लेंट(फरियाद) आती है। तुम्हारे मन में जो कुछ रहता है ना वो बोल देते है 'स्वामीजी ने कहा है!गुरुमां ने कहा है!" अरे! माने, मेरा क्या कहना है, तुम बोलो ना 'ये मैंने कहा है, ये मेरेको लगता है'। तुम इतने डरपोक हो क़ि तुम तुम्हारा नाम बचाना चाहते हो? ऐसा कायको बोलते हो? माने, जैसे तुम्हारे एक जेब में स्वामीजी पडे हो,एक जेब में गुरुमाँ पड़ी है! इधर से निकाला- ये ले....,स्वामीजी! ये ले.....,गुरुमाँ निकाली!(साधक हँसते हे) माने एकदम ऐसे दो कौड़ी का मत बनाओ गुरु को। खबरदार किसी ने मेरे नाम पे कुछ बोला तो!(बाद में, पूज्य स्वामीजी हँसते हे।) नहीं, दूसरा ना में साधकों को भी बोल रहा हूँ, पूछो सेंटर आचार्य को स्वामीजी ने ये कौन से प्रवचन में कहा है? कौन से किताब में कहा है? तू तेरे मन की बाते उनके नाम पे मत ठोको। तो कहने का मतलब, ऐसा ये ठोका ठोकी बंद करो।तुम ऐसा मत करो। दूसरा, तुम्हारा भी रिस्पेक्ट कम होता है। वो तो समझ जाता है ना कि ये अपने मन की बात स्वामीजी के नाम पे ठोक रहा है। और दूसरा, तुम भी पाप के भागी

दो साधकों की लड़ाई का परिणाम बहुत बुरा होता है ।

*गुरुमा!स्वामीजी कहते हैं कि दो साधकों की लड़ाई का परिणाम बहुत बुरा होता है । माँ, किसी साधक से अनबन होना या मतभेद होना आम बात है,तो किसी एक साधक से वैरभाव हो जाए तो क्या होगा?* प्रिय साधक, अनेक आशीर्वाद,जय बाबा स्वामी! बेटा!आप सही कह रहे हैं कि दो साधको में लड़ाई होना,मतभेद होना आम बात है जब तक रूठना...मनाना चल रहा है।जब रूठना,मनाना बंद हो जाता है तब समझ लीजिए कि तब मतभेद मनभेद में तब्दील हो चूका है।यही मनभेद आगे चलकर वैरभाव में तब्दील हो जाता है। गुरुदेव ने प्रत्येक साधक में गुरुशक्तियों के साधना संस्कार का एक बीज स्थापित किया है।जब साधक नियमित ध्यान साधना करता है,तब वह गुरुशक्तियों के सूक्ष्म स्वरुप ही उस साधक को संस्कारित करता है,साधक को सुरक्षा कवच प्रदान करता है। जब दो साधक आपस में वैरभाव रखते हैं तब उन दोनों के भीतर स्थित गुरुशक्तियाँ आपस में नहीं लड़ सकती क्योंकि वे एक ही हैं तथा सकारात्मक होती हैं।वे साधक को वैरभाव समाप्त करने के लिए प्रेरित करती हैं।यदि साधक गुरुशक्तियों से जुड़ा हुआ होता है तो वह वैरभाव समाप्त करने के प्रयास करता है। किंतु वे साधक यदि वैरभाव समाप्त नहीं करत

प्रश्ण :-- गुरुशक्ति आह्वान मे स्त्रियों क्या रोल है ?

स्वामीजी :-- उसके  अंदर  महत्वपूर्ण  रोल  स्त्री  का  ही  है । जैसे  मै  एक  उदाहरण  से  बताता  हूँ । एक  माचीस  की  तीली  है । वो  कपूर  को  जलाती  है  और  बाद  मे  कपूर  प्रकाशित  हो  करके  उससे  सब  दूर  का  वातावरण  शुद्ध  होता  है । तो , तीली  का  रोल  महत्वपूर्ण  है  कि  कपूर  का ?  कपूर का ! तो  स्त्री  का  रोल  कपूर  का  है । और  पुरुष  सिर्फ  निमित्त  है  उसका । ये  अभी  जो  जैन  मुनियों  का  जो  शिविर  हुआ  न , उसमे  इसी  विषय  पर  दो  घंटे  तक  डिस्कशन [ चर्चा ] हुआ  था ।....

सामुहिकता मे अपनी प्रगति करने का एकदम सरल उपाय :

" आपका ह्रदय सबके लिये खुला होना चाहीये,आपके मनमेँ सबके प्रति अच्छा भाव होना चाहीयेँ । सामनेवाला आपके लिये क्या सोच रहा है उससे आपको कोई लेना देना नही है । वो उसका भाव है , वो उसका क्षेत्र है , वो उसका स्तर है , वो नीचे के स्तर पे है , तुमको उसके लिये नीचे के स्तर पे जाने की कुछ आवश्यकता नही है । तुम तुम्हारा स्तर बनाकरके रखो । आत्मा का स्तर बनाकरके रखो । आत्मिक स्तर के उपर तुम्हारे मन मे सबके प्रति अच्छा भाव होना चाहीये, सबके प्रति एक अच्छा भाव तुम्हारी खुदकी आध्यात्मिक प्रगति करेगा । वो आपके प्रति कैसा भाव रख रहा है उधर ध्यान मत दो । तुम तुम्हारी जगह सही रहो, वो उसकी जगह गलत है । एक दिन उसकी आँख खुलेगी, उसको पता लगेगा, तुम तो सही थे ही__गलत वो था । लेकिन वो गलत है ईसलिये तुम गलत मत हो जाओ । वो नीचे की सीड़ी पे है ईसलिये तुम नीचे की सीड़ी पे मत जाओ । ईँतजार करो , राह देखो , एक दिन उसे भी वो स्तर प्राप्त हो जायेगा ।" H.H.Shivkrupanand Swamiji, Guru-Purnima-'2008.

वैश्विक चेतना का नियम है - वह कार्यरत सदैव रहती है

"वैश्विक चेतना का नियम है - वह कार्यरत सदैव रहती है , बस। उसकी दिशा और दशा निश्चित नहीं होती है। उसे हमारा चित्त दिशा प्रदान करता है। और चित्त चित्त जो दिशा प्रदान करता है, वह उस दिशा में बहना प्रारंभ कर देती है।" - श्री शिवकृपानंद स्वामीजी HSY-5/195

Samarpan Meditation

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Samarpan Meditation Life these days is increasingly driven by competition resulting in stress, dissatisfaction and lack of fulfilment. How then can one achieve Inner Peace, Happiness and Satisfaction in life? Meditation is a universal technique that clears one’s mind and connects one’s inner energy to the Universal Energy, leading to the pure joy of being one with Universal Consciousness, and experiencing unlimited Peace and Happiness. SAMARPAN MEDITATION is an ancient yet simple meditation technique developed by the Himalayan Sages for the benefit of the common man living in society. This powerful technique was brought into society, in the year 1994, by His Holiness Shivkrupanandji Swami, a divine, Himalayan Master, who continues to teach this powerful technique all over the world. Samarpan Meditation is a unique practice, where, simply through a pure wish one can experience the awakening of ‘Kundalini Energy’, that ‘divine energy’ that exists within each one of us. This aw

*" मै "* का अस्तित्व

*" मै "* का  अस्तित्व  प्रत्तेक  मनुष्य  का  निजी  मामला  है। वह  जब तक  इस *"मै" के  अस्तित्व  को  छोडेगा  नही, तब  तक "आत्मज्ञान" का  अंकुर  फुटेगा  ही  नही।* **************** ही .का .स .योग - १ *॥आत्मदेवो भव ॥*

Importance of Gurupurnima

जिस प्रकार से सूर्य की करने जब तक उस बिज तक नहीं पहुँचती, बिज कभी भी अंकुरित नहीं होता.               गुरूपूर्णिमाँ वह दिन है, जिस दिन गुरूशक्तियाँ साक्षात हमारे सान्निध्य मे रहनेवाली है । और उस सान्निध्य में उस ईश्वरीय तत्त्व को जागृत करने का सुअवसर हमें प्राप्त होनेवाले है........                       कस्तूरीमृग जैसी हमारी स्थिति है -- बाहर खोजता है भीतर नही झाँकता  । अँदर झाँकना मनुष्य का स्वभाव ही नहीं है । लेकिन एक बहुत बड़ी सामूहिकता के साथ भीतर झाँकने का सुअवसर गुरूपूर्णिमा के दिन प्रत्येक आत्मा को मिलता है.....     गुरूपूर्णिमाँ आत्मा का महोत्सव है । एक दिन, एक घडी ऐसी आती है, जिस घडी में उनके भीतर की यात्रा प्रारंभ हो जाती है.....                                            भीतर की यात्रा प्रारंभ होने के बाद मन अंतर्मुखी हो जाता है । अंतर्मुखी होने के बाद बाहर की सारी खोज समाप्त हो जाती है .....                                                     चित्त शान्त और स्थिर होता है , बुध्दि गिर जाती है और एक सुखद अनुभूति -- पूर्ण समाधान की स्थिति प्राप्त हो जाती है । और संपू

*गुरु पूर्णिमा* *हम साधकों का कर्तव्य*

*गुरु पूर्णिमा* *हम साधकों का कर्तव्य* पुज्य स्वामीजी से मिलने जाने के पुर्व हमें खुद की स्थिति का अवलोकन करना चाहिए। शरीर शुद्धि , आहार-विहार, मन-शुद्धि, विचार शांति एवं चित्त-शुद्धि होने के बाद ही हमें जाना चाहिए। पूज्य स्वामीजी से मिलने के कुछ दिनों पहले, कम से कम एक सप्ताह पूर्व ही शाकाहार , संतुलित आहार विहार, निर्विचारिता, नियमित ध्यान कर, प्रवचन सुनकर ओर आत्मपरीक्षण के द्वारा अच्छा आभामंडल बनाते हुए उनके पास जा सकते हैं। क्यों की साधकों को संतुलित करने के लिए पूज्य स्वामीजी को ध्यान की खूब अच्छी स्थिति से साधकों के स्तर तक जाकर कार्य करना पड़ता है। और इतनी मेहनत के बाद भी हम साधक कितने दिनों तक यह संतुलन बनाए रखते हैं???

३० मिनीट अकेले ध्यान करो

३० मिनीट अकेले ध्यान करो. आप अकेले बैठोग तो भी चित्त में ५० लोग होंगे. *कभी बैठे हो मेरे साथ अकेले? ३० मिनीट केवल आप और मै होना चाहिए. *अपने बीच तीसरा कोई भी नहीं चाहिए. आधा घंटा आत्मा बन कर मेरे साथ बैठो. *फिर देखो आपको कहाँ से कहाँ पहुंचाता हुँ. कैसी कैसी अनुभूतियाँ करवाता हुँ. स्वामीजी गुरुपौर्णिमा २०१६

A small excerpt from Gurupurnima -- 2013

.....श्री गुरू उवाच कर्म के हिसाब -- किताब से ही मोक्ष की स्थिति जुड़ी हुई है । आपकी सोच,  आपके विचार , आपका चित्त अगर अच्छाइयों की ओर है तो ये यात्रा अँधेरे से उजाले की ओर ही रही हैं  ।                                    मोक्ष का गन्यान जीवन में पाना ओर मोक्ष की स्थिति जीवन में प्राप्त करना ये दोनों एक ही जन्म में बहुत कठिन है । लेकिन इसी कठिन साधना को आसान एक ही मार्ग से  किया जा सकता है । वो मार्ग है -- समर्पण, समर्पण ओर समर्पण ।                        वास्तव में  , शरीर से आत्मा तक पहुँचने का विधि को,  पहुँचने की प्रक्रिया को ' गुरूपूजन ' कहते ।                    मेरे लिए एक ही गुरूदीक्षिणा है की आप आपके जीवनकाल मे मोक्ष की स्थिति प्राप्त करो, यही मेरा लक्ष्य है                  

आत्मसंगत'से ही मोक्ष की स्थिती पाना संभव है।

यह सब हजारो साधको का अध्ययन करने के बाद कह रह हूँ। कई साधको को देखता हूँ कि "आत्मसाक्षात्कार" को पाकर भी जीवनभर न समझ सके लेकिन *अपनी मृत्यु के पूर्व 'समझ' जाते हैं कि उन्होंने जीवन में क्या था*और 'आत्मसाक्षात्कार' पाकर भी 'जीवन व्यर्थ' ही गवाँया। लेकिन उस मृत्यु के समय 'पछतावा' करने के अलावा हाथ में कुछ नहीं रहता है। और यह केवल इसलीए होता है क्योंकी शरीरभाव को अधिक महत्व दीया। और शरीरभाव कब समाप्त हुआ? जब शरीर ही समाप्त हो गया! तब मुजे ही याद करते हैं, रोते हैं, गिड़गिडाते हैं। तब मैं भी क्या कर सकता हूँ? *अब अगले जनम में यह गलती मत दोहराना, बस यही कहता हूँ।* कल यही बात आपको न करना पडे, इसलीए कहता हूँ - 'आत्मसंगत' करो। केवल और केवल 'आत्मसंगत'से ही मोक्ष की स्थिती पाना संभव है। यह मैं मेरे ६० सालों के अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ। आप किसी के साथ रहो या ना रहो, अपनी आत्मा के साथ 'आधा घण्टा' अवश्य रहो। श्री बाबास्वामी 'सद्गुरू के ह्रदय से' पृष्ठ क्रमांक २९,३०

केवल 'आत्मसंगत'से ही मोक्ष की स्थिती पाना संभव है।

यह सब हजारो साधको का अध्ययन करने के बाद कह रह हूँ। कई साधको को देखता हूँ कि "आत्मसाक्षात्कार" को पाकर भी जीवनभर न समझ सके लेकिन *अपनी मृत्यु के पूर्व 'समझ' जाते हैं कि उन्होंने जीवन में क्या था*और 'आत्मसाक्षात्कार' पाकर भी 'जीवन व्यर्थ' ही गवाँया। लेकिन उस मृत्यु के समय 'पछतावा' करने के अलावा हाथ में कुछ नहीं रहता है। और यह केवल इसलीए होता है क्योंकी शरीरभाव को अधिक महत्व दीया। और शरीरभाव कब समाप्त हुआ? जब शरीर ही समाप्त हो गया! तब मुजे ही याद करते हैं, रोते हैं, गिड़गिडाते हैं। तब मैं भी क्या कर सकता हूँ? *अब अगले जनम में यह गलती मत दोहराना, बस यही कहता हूँ।* कल यही बात आपको न करना पडे, इसलीए कहता हूँ - 'आत्मसंगत' करो। केवल और केवल 'आत्मसंगत'से ही मोक्ष की स्थिती पाना संभव है। यह मैं मेरे ६० सालों के अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ। आप किसी के साथ रहो या ना रहो, अपनी आत्मा के साथ 'आधा घण्टा' अवश्य रहो। श्री बाबास्वामी 'सद्गुरू के ह्रदय से' पृष्ठ क्रमांक २९,३०

વર્તમાનનુ જીવન પૂર્વજન્મના ફળને ભોગવવા જ હોય છે.

62.  જય બાબાસ્વામી,  "   મનુષ્ય પૂર્વજન્મમાં  જે કર્મ કરે છે,  તેને અનુરૂપ ફળ ભોગવે છે. સારા કર્મ કરે તો તેનું સારું ફળ ભોગવે છે અને ખરાબ કર્મ કરે તો તેનું ખરાબ હળ ભોગવે છે. એટલે કે આ વર્તમાનનુ જીવન પૂર્વજન્મના ફળને ભોગવવા જ હોય છે. મનુષ્યને પોતાના ખરાબ કર્મોના ફળ ભોગવવાનો સમય , ખૂબજ મુશ્કેલ હોય છે. આવા સમયે તેને વધારાની ઊર્જા શક્તિની જરૂર હોય છે, જે તેને ખરાબ ફળ ભોગવવામાં મદદ કરી શકે. મનુષ્યમાં ખરાબ કર્મ કરવાની  શક્તિ ખૂબ હોય છે, પરંતુ ખરાબ કર્મનુ ખરાબ ફળ ભોગવવાની શક્તિ બિલકુલ નથી હોતી અને તેથી થોડાથી જ મનુષ્ય તૂટવા લાગે છે અને આવા સમયે જ, મનુષ્યને તૂટવાથી બચવા માટે એક વધારાની ઊર્જાશક્તિની આવશ્યકતા હોય છે. તે વધારાની ઊર્જાશક્તિના બે પ્રભાવ હોય છે.  એક તો મનુષ્ય દ્વારા ફળ ભોગવતી વખતે તે અસ્થાયીરૂપે તેને સહનશીલતા પ્રદાન કરે છે અને બીજી તરફ , તેવું કામ ન કરવાનું શીખવાડે છે અને સારું કાર્ય કરવાની પ્રેરણા આપે છે.   આવી વધારાની ઊર્જાશક્તિ મનુષ્ય ફક્ત ઈશ્વરભક્તિથી અથવા સદગુરુના સાનિધ્યમાં મેળવી શકે છે. " હિ.સ.યોગ. ૩, પેજ. 376.

खुद नियमित ध्यान करके आप एक सूक्ष्म सेवा ही कर रहे हो,

खुद नियमित ध्यान करके आप एक सूक्ष्म सेवा ही कर रहे हो, गुरुकार्य ही कर रहे हो कि आप आपकी स्थिती अच्छि कर रहे हो| आप एक अच्छा वातावरण निर्माण कर रहे हो, एक अच्छि सामूहिकता निर्माण कर रहे हो, तो अपने आपको बॅलन्स करके रखना भी सामुहिकता के लीये एक बहुत बडा योगदान है| परमपूज्य गुरुदेव, चैतन्य महोत्सव,2014 "  आपकी इस ध्यान पद्धति मे सबकुछ आसान है,  पर इसमें बने रहना ही कठिन है। इसका पहला दोष है कि इसमें साधक को आहंकार आता है। अहंकार इसलिए आता है क्योंकि वह ध्यान के माध्यम से सामूहिक शक्ति के साथ जुड जाता है और फिर एक साधक में हजारों लोगों का बल आ जाता है। और फिर जब वह गुरुकार्य करता है तो,  वह बडी आसानी से हो जाता है और कार्य संपन्न हो जाने पर उसे अहंकार आ जाता है कि उसने वह कार्य किया ! एक मनुष्य को हजारों लोगों की शक्ति दी जाए तो ऐसा होना स्वाभाविक है। इसी अहंकार से साधक सामूहिकता से बाहर हो जाता है और ध्यान छूट जाता है। क्योंकि अहंकार उत्पन्न होने पर वह असंतुलित हो जाता है और वह जब असंतुलित हो गया तो वह ध्यान कैसे करेगा ? उसका ध्यान तो छूट ही जाएगा। यह इस ध्यान की पद्धति

मनुष्य अपनी समस्याओं के कारण गुरु की शरण में आता है,

मानवसमाज में आए प्रत्येक गुरु को एक ही अनुभव आया है कि मनुष्य अपनी समस्याओं के कारण गुरु की शरण में आता है, अपने जीवन के संकट के कारण गुरु की शरण में आता है | और गुरु जानता है कि यह संकट निमित है, उसे उसके पास लीने के लिए , वास्तव में शिष्य का आत्मोत्थान का ही समय आ गया है | फिर गुरु के सान्निध्य में, शिष्य का चित समस्या से हटकर कब परमात्मा की ओर चला जाता है, यह शिष्य को पता नहीं चलता है | शिष्य के जीवन में आए संकट ही ' सेतु' बन जाते हैं , भवसागर को पार करने के लिए | इसलिए मनुष्य को जीवन में आए संकटो से घबरना नहीं चाहिए | उन संकटों को प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिए | परमात्मा ने हमें जीवन में इतना कुछ दिया है, इसके लिए हमें परमात्मा को धन्यवाद देना चाहिए | जो दिया है, उसके लिए धन्यवाद और जो नहीं दिया है, वह इतना छोटा है, उसकी क्या शिकायत करें ! कई बार जीवन में आए संकट ही मनुष्य को अहंकाररहित करते हैं | मनुष्य के अहंकार के कारण जीवन में आए संकट को मनुष्य प्रथम प्रयत्न करके दूर करने का प्रयास करता है | फिर प्रार्थना करके संकट को दूर करने का प्रयास करता है | और बाद में जब प्रार्थन