चित्त मोक्ष का द्वार है।
*चित्त मोक्ष का द्वार है।*
जिस प्रकार से शरीर की दो आँखे होती है , ठीक इसी प्रकार से आत्मा की आँख चित्त होता है।
जिस प्रकार अपने आँखों से जो हम देखते है , उस का प्रभाव हमारे विचारों पर पड़ता है , ठीक उसी प्रकार *जहाँ चित्त रखते है , वहाँ की ऊर्जा का प्रभाव हमारी आत्मापर पड़ता है।*
*हमारा चित्त दिनभर में पता नही कितने लोगों में जाता है और हमारी आध्यात्मिक स्थिति अच्छी है तो उनकी गंदी ऊर्जा हम अनजाने में ही ग्रहण कर लेते है।*
जिस प्रकार अपने आँखों से जो हम देखते है , उस का प्रभाव हमारे विचारों पर पड़ता है , ठीक उसी प्रकार *जहाँ चित्त रखते है , वहाँ की ऊर्जा का प्रभाव हमारी आत्मापर पड़ता है।*
*हमारा चित्त दिनभर में पता नही कितने लोगों में जाता है और हमारी आध्यात्मिक स्थिति अच्छी है तो उनकी गंदी ऊर्जा हम अनजाने में ही ग्रहण कर लेते है।*
चित्त को काफी संभालने की आवश्यकता होती है। *आँखों से देखने भी बुरी जगह चित्त जाता है और नष्ट होता है। बुरी बाते सुनने से भी उन बुरी जगह हमारा चित्त जाता है और नष्ट होता है और जब हम बुरी-बुरी बाते करते है , तो भी उन बुरी बातों पर हमारा चित्त जाता है और नष्ट होता है।*
इसलिए चित्त को संभालने के लिए आवश्यक है , बुरा मत देखो ,बुरा मत सुनों और बुरा मत कहो क्योंकि *ये तीन द्वार है जहाँ से चित्त शक्ति नष्ट होती है।*
इसलिए चित्त को संभालने के लिए आवश्यक है , बुरा मत देखो ,बुरा मत सुनों और बुरा मत कहो क्योंकि *ये तीन द्वार है जहाँ से चित्त शक्ति नष्ट होती है।*
*अपने चित्त को सदैव पवित्र रखना चाहिए। ध्यान करने से चित्त शुद्ध होता है। सशक्त भी होता है। पर सशक्त चित्त संभालना भी बहुत कठिन होता है क्योंकि वह गंदगी बहोत शीघ्र ग्रहण करता है।*
*चित्त 'परमात्मा' की प्राप्ति का सशक्त माध्यम है। इसलिए चित्त को सशक्त करो। सशक्त चित्त वाले व्यक्ति का जीवन एक सफल और संपूर्ण जीवन होता है।*
*चित्त को सशक्त करने के लिए ध्यान की आवश्यकता होती है। और ध्यान के साथ 'समर्पण' की भी आवश्यकता होती है ताकि सद्गुरू का आपके चित्त पर नियंत्रण रहे। नियंत्रण अत्यंत आवश्यक है।*
कई बार साधक अपने चित्त को सशक्त कर लेते है और *सद्गुरू के प्रति समर्पण का* *भाव नहीं रह पाता और 'मैं'* *का अहंकार चित्त को* अनियंत्रित कर देता है और *चित्त भटक जाता है।*
*चित्त का शुद्धिकरण और चित्त पर नियंत्रण, ये दोनों प्रक्रियाएँ साथ-साथ चलने की आवश्यकता होती है।*
*इन दोनों की प्रक्रियाओं से ही सशक्त चित्त का निर्माण संभव है।*
कई बार साधक अपने चित्त को सशक्त कर लेते है और *सद्गुरू के प्रति समर्पण का* *भाव नहीं रह पाता और 'मैं'* *का अहंकार चित्त को* अनियंत्रित कर देता है और *चित्त भटक जाता है।*
*चित्त का शुद्धिकरण और चित्त पर नियंत्रण, ये दोनों प्रक्रियाएँ साथ-साथ चलने की आवश्यकता होती है।*
*इन दोनों की प्रक्रियाओं से ही सशक्त चित्त का निर्माण संभव है।*
*असंतुलन के कारण , कई* *बार साधक ध्यान की उच्च कक्षा में पहुँचकर भी वहाँ स्थिर नहीं हो पाते है।*
*याने ध्यान के साथ समर्पण आवश्यक है।*
*याने ध्यान के साथ समर्पण आवश्यक है।*
*एक पवित्र और शुद्ध पाने के लिए आवश्यक है 'संपूर्ण समर्पण'।*
*पवित्र चित्त में परमात्मा का वास होता है।*
पवित्र चित्त से की गई प्रार्थना परमात्मा तक पहुँचती ही है।
चित्त को पवित्र करने के लिए जागरूकता की आवश्यकता होती है , जो जागरूकता आती है जागरूक आत्माओं के सान्निध्य में रहने से।
*पवित्र चित्त में परमात्मा का वास होता है।*
पवित्र चित्त से की गई प्रार्थना परमात्मा तक पहुँचती ही है।
चित्त को पवित्र करने के लिए जागरूकता की आवश्यकता होती है , जो जागरूकता आती है जागरूक आत्माओं के सान्निध्य में रहने से।
-- आध्यात्मिक सत्य
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