बचपन
मेरी गुफा में कबूतरों के जोड़े ने मेरे सामने ही एक घोंसला बनाया था।दोनों मिलकर बड़े प्रेम से उसमे रहते थे और वे काफी दिनों से मेरे साथ ही थे। वहाँ पर बाद में उन्होंने अण्डे भी दिए। मेरा और जंगली कबूतरों का क्या योग है,पता नहीं ,पर मेरी ध्यानसाधना के दौरान वे मुझे प्रायः सब जगह मिले थे। मैं सोच रहा था--ये इतने ऊपर, हिमालय के इतने ऊँचे पहाड परकैसे आए होंगे? और यहाँ पर इतने सारे तपस्वियों के साथ कबसे रह रहें होंगे? ये कितने भाग्यशाली हैं कि इन्हें इन तपस्वियों के सान्निध्य में रहने का सौभाग्य मिला!वे मुनिभले ही अपने घर-संसार छोड़कर आए थे,वे कबूतर तो सारा घर लेकर ही आए थे। मानो कह रहे थे कि घरवालों को साथ रखकर भी ध्यानसाधना की जा सकती है।
मैंने कभी किसी तपस्वी को परिवार के साथ रहते हुए नहीं देखा था। क्या आध्यात्मिक प्रगति में परिवार आड़े आता होगा?और कैसे आता होगा?एक अकेला मनुष्य शायद अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण कर पाए, अपनी वासनाओं पर नियंत्रण कर पाए,अपनी पीड़ाओं पर नियंत्रण कर पाए,अपनी आवश्यकताओं पर नियंत्रण कर पाए लेकिन जहाँ परिवार के बाकी सदस्य भी ऐसा कर पाएँ। और रही बात बच्चों की तो बच्चे तो बच्चे हैं,छोटे-छोटे बच्चों से यह अपेक्षा रखना ही गलत जान पड़ता है। बच्चों का अपना बचपन होता है। बचपन के उनके खेल होते हैं। उनकी शिक्षा तो सामान्य रूप से होना ही चाहिए। कहते हैं, जिनका बचपन सुखा और समाधान में बीतता है,उनका पूरा ही जीवन सुखी-समाधान होता है।मिट्टी के घड़े की तरह मनुष्य भी बचपन में जैसा तैयार होता है,बाद में वैसा ही वह जीवनभर रहता है।
हि.स.यो-४ पु-४१८
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