माध्यम अकेला ही क्यों न हो,उसका खजाना भरने वाला तो साक्षात परमात्मा होता है

पता नहीं क्यों,उस दिन लगा--कभी मुझे कुछभी पाने की इच्छा ही नहीं हुई।और जीवन में जिसके बारे में सोचाभी नहीं था कि वह हो पर वैसा हो गया। जैसे,मैंने अपनी शादी के लिए कभी कोई प्रयत्न नहीं किए थे,मैं शादी करूँगा, यह विचार भी कभी मन में  नहींआया था और शादी हो भी गई,बच्चे भी हुई। जीवन में उनका होनाभी इस कार्य का ही एकभाग होगा,अन्यथा यह सब कैसे हो गया?
किसी को मिलने कीभी इच्छा नहीं है तोभीअच्छे-अच्छे तपस्वी,अच्छे-अच्छे मुनि जीवन में आ ही रहे हैं।यह सबकेवल उसी शुध्द इच्छा के कारण हो रहा है। यह एक बीज है जिसे लेकर मैं जन्मा हूँऔर जीवन में बाकी जो कुछ मिला है,वे इस बीज से बने हुए वृक्ष के फल हैं। यानी मनुष्य अगर ' देने ' की भावना रखे तो उसके पास 'आना ' प्रारंभ हो जाता है।यह इसलिएभी होता होगा कि कोई देने की इच्छा कर रहा है यानी उसे मिलेगा तो वह देगा ही,यह देखकर वातावरण में जो प्रदान करनेवाली सकारात्मकशक्त्तियाँ ,गुरुशक्त्तियाँ हैं, वे उसे माध्यम बना लेती हैं और देने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है।गुरुशक्त्तियाँ पहले शायद थोड़ा देकर देखती होंगी। और बाद में जैसे-जैसे उसके द्वारा देना प्रारंभ हो जाता है,उस माध्यम का खजाना सदा भरा हुआ ही रखती हैं। वह अपने जीवनभर देता रहता है तो भी उसका खजाना खाली नहीं होता।वह बाँटने वाला माध्यम अकेला ही क्यों न हो,उसका खजाना भरने वाला तो साक्षात परमात्मा होता है,विश्वचेतना होती है। तो वह तो हजार हाथों से उसमेंभरते ही रहती है।...

हि.स.यो-४                  
पु-४२९

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