परमात्मा को पाने की और उसी परमात्मा की अनुभूति बाँटने की शुध्द इच्छा

तब लगा-- वे सब लोग मेरे जीवन में इसीलिएआए कि मेरे मन में परमात्मा को पाने की और उसी परमात्मा की अनुभूति बाँटने की शुध्द इच्छा थी। क्योंकि मेरी आत्मा का लक्ष्य परमात्मा को केवल पाना नहीं था,वह यह भी था कि परमात्मा उन लोगों को भी प्राप्त हो जो परमात्मा को खोज रहे थे।यही शुध्द इच्छा जीवन में थी। और न तो  कोई योजना थीऔर न ही जीवन में मैं कुछ बनना चाहता था। सदैव एक बात मेरे मन में चलती रही थी-- परमात्मा के वर्तमानकाल के स्वरूप को खोजना और परमात्मा को खोज लेने के बाद परमात्मा की जानकारी उन सभी लोगों को देना जो उसे पाना चाहते थे। बस,उस एक बात पर सारा जीवन ही दाँव पर लगा दिया था। तब तक कई  साल तो परमात्मा को पाने में ही लग गए थे। तब तक परमात्मा को प्राप्त करने का हुआ था लेकिन प्राप्त हुए परमात्मा की जानकारी समूचे मनुष्य समाज को बाँटने का कार्य बाकी था।उसी शुध्द, एकमात्र इच्छा के कारण सारे आगे के मार्ग खुलते चले गए,वैसी ही परिस्थितियाँ बन गईं,वैसा ही परिवार मिला। यानी परिवार भी जो मिला,वह इस कार्य में सहायक था,बाधक नहीं। उन सभी को मेरे गुरुकार्य में महान योगदान था। मेरी उस शुध्द इच्छा को जानकर ही गुरु शक्त्तियों ने मुझे अपना माध्यम बनाया है और उन्होंने विश्वास रखा है कि मेरे माध्यम से कार्य अवश्य होगा। तो अभी तक मैंने मेरे प्रयत्न से तो कुछ नहीं किया है और न आगे मेरे प्रयत्न से कुछ होने वाला है। मैं तो केवल उस शुध्द इच्छा को पकड़कर चल रहा हूँ और उसके कारण ही यहाँ पहुँचा हूँ।और आगे भी उसी शुध्द इच्छा को मैं पकड़े रहूँगा। उस एक इच्छा के लिए ही मानो मेरा जन्म हुआ है। ऐसा जान पड़ता है,मुझमें भावना पाने की नहीं ,देने की है।...

हि.स.यो-४                
पु-४२०

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