आत्मा का आभामण्डल

उस दिन हमारे बातें काफी लम्बी चलीं।बाद में वे अपनी गुफा की ओर चले गए।वे जाने के बाद काफी समय तक सोचता रहा कि आत्मा की प्रगति के लिए अकेले रहना आवश्यक है क्योंकि मनुष्य अकेले रहता है तो कुछ समय के बाद अपनी आत्मा के करीब पहुँच जाता है।और वह निकटता इतनी अधिक हो जाती है कि वह अपने-आपको आत्मा ही समझने लग जाता है।और शरीर का एहसास रहता है लेकिन वह एक अलग ही प्रकार का एहसास होता है। शरीर होता है पर शरीर के प्रति जुड़ाव नहीं रहता और कई बार शरीर की आवश्यकताएँ भी महत्वहीन लगने लग जाती हैं।
जब आत्मा का आभामण्डल विकसित होता है तो प्रथमतः शरीर के चारों ओर एक मंडल के रूप में विकसित होता है। तब तक केंद्र पर शरीर होता है।लेकिन वैसी ही अवस्था में अधिक समय रहने पर वह मंडल ऊपर की ओर उठने लग जाता है और शरीर हलका हो गया हो ऐसा लगता है। फिर धीरे-धीरे शरीर भी छूटने लग जाता है,शरीर तो जमीन पर ही रह जाता है क्योंकि हम अपने-आपके शरीर से ऊपर होने का अनुभव करने लग जाते हैं। हम हमारे शरीर को अलग होकर देख पाते हैं,अपने हृदय का स्पंदन भी ऊपर से देख पाते हैं। हम हृदय का स्पंदन अनुभव भी करते हैं लेकिन शरीर से काफी ऊपर हो जाते हैं।और बाद में नीचे,शरीर का आभामण्डल और विकसित होने लग जाता है। और उस समय , हमारे शरीर के आसपास भी कोई न आए,ऐसा लगता है। शरीर के आसपास कोई छोटी-सी भी वस्तु  रखी हो तो वह वस्तु भी पहाड़ जैसी, बड़ी रुकावट महसूस होती है।वास्तव में,वह वस्तु बड़ी नहीं होती है, हमारी सूक्ष्मता बढ़ जाती है। इसलिए अपने आभामंडल को पवित्र करने के लिए और विकसित करने के लिए अकेले रहना आवश्यक ही है। तभी यह विकास संभव है।...

हि.स.यो-४               
पु-४१६

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