माध्यम माध्यम है, भगवान नहीं

" इसलिए , यह जानते हुए भी कि माध्यम माध्यम है, भगवान नहीं है, माध्यम को भगवान समझकर पकड़ना ही भगवान-प्राप्ति का अनुभव करा सकता है। लेकिन माध्यम को भगवान मानना होगा। नदी के पानी को , जो हाथ में आया है , उसे ही नदी का पानी मानना होगा। नदी के पानी को अपने हाथों मे रखकर भी अगर हम नदी की ओर ही देखेंगे तो नदी के उस पानी को नहीं देख पाएँगे जो हाथ में है और वह हाथ में आया हुआ पानी भी निकल जाएगा और प्यास भी नहीं बुझेगी। नदी का पानी जो बह रहा है, उसे केवल देखने से हमारी प्यास नहीं बुझ सकती है। प्यास बुझने के लिए उसे हाथ में लेना होगा और पीना होगा। हाथों मे लेना और पीना, ये दो ' शरीर की क्रियाएँ ' वही प्यास बुझा सकती हैं। पानी को हाथों में लेना यानी विश्वचेतना के किसी माध्यम को  'पकड़ना ' है और हाथ में लिए  हुए पानी को पीना यानी उस पकड़े हुए माध्यम से जुड़ना है।

उन दो 'शरीर की क्रियाओं ' के साथ-साथ वैसा करने  का निर्णय भी महत्तवपूर्ण होता है। नदी का जो पानी  आप के सामने आया ही नहीं है और जो आपको दूर से केवल दिख रहाहै, आपकी दृष्टि में है लेकिन आपके हाथों से दूर है, ऐसे पानी को पकड़ना  संभव  नहीं है। ऐसे पानीकी  केवल कल्पना ही कर सकते हो क्योंकि वह वर्तमान  में आपके पास नहीं है, भविष्य में आने वाला है। और प्यास तो आपको वर्तमान में लगी है। अभी वर्तमान की प्यास नहीं बुझाई तो तुम स्वयं ही मृत हो  जाओगे। फिर वह बहने वाला, भविष्य में आने वाला पानी जब वर्तमानकाल में बहेगा तब  तुम्हारा शरीर मृत होने के कारण हाथ में पानी लेने की क्रिया नहीं कर पाएगा। इसलिए जो दूर से  दिख रहा है वह पानी तुम्हारे  कोई काम का नहीं है।तुम्हें   तुम्हारे वर्तमान में बह रहे पानी  को हाथ में  लेना होगा। अपने ही घाट पर  आया हुआ पानी पीना
होगा."

हि.स.यो-४, पेज.७८.

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