सामूहिकता में ध्यान
आत्मा की प्रगति के साथ उस प्रगति पर नियंत्रण का होना भी आवश्यक है। यह नियंत्रण की शक्त्ति हमें सामूहिकता में ही मिलती है, इसलिए सामूहिकता भी आवश्यक है। वास्तव में,आत्मा की प्रगति करने के लिए अकेले ध्यानसाधना करना और प्रगति की गति पर नियंत्रण के लिए सामूहिकता में ध्यान,इन दोनों का तालमेल जीवन में बिठाना होगा क्योंकि दोनों आवश्यक है।और एक तटस्त स्थिति भी चाहिए जिस स्थिति में जाकर ,इन दोनों दिशाओं (सिरों)में से मैं किस ओर अधिक जा रहा हूँ,यहभी देखना होगा।क्योंकि यह जानने के लिए मुझे एकाकी और सामूहिकता दोनों में ही न होना होगा, तभी उस तीसरे स्थान से देखा
जा सकता है आध्यात्मिक प्रगति भी संतुलित रूप से होनी चाहिए। जीवन में संतुलन सभी स्तरों पर
आवष्यकहै। और इन दोनों स्थितियों का निरीक्षण करने के लिए प्रकृति की शरण में जाना ,यह सबसे अच्छा उपाय लगता है। जब हम प्रकृति के बीच होते हैं,तब अकेले रहते हुए भी अकेले नहीं होते और सामूहिकता में रहते हुए भी सामूहिकता में नहीं होते; प्रकृतिमय हो जाते हैं। प्रकृति के बीच जाने से हमारा अस्तित्व किसी भी दिशा (सिरे) में नहीं होता है और प्रकृति के साथ ही हमारी समरसता स्थापित हो जाती है। जो भी प्राकृतिक वातावरण आसपास हो,हम वहीं अपने-आपको पाते हैं।...
हि.स.यो-४
पु-४१७
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