मैं संसार में रहा हूँ लेकिन मेरा रहना नहीं रहने जैसा ही रहा है।
दूसरी एक समस्या होती होगी--कोई भी ध्यानसाधना करो, आसपास की बाधाएँ उस ध्यानसाधना में कुछ-न-कुछ विघ्न डालती ही हैं। और आप अकेले हैं तो आप अपनी सुरक्षा कर सकते हैं लेकिन आप का परिवार है तो आपके शरीर की जिम्मेदारियाँ बढ़ जाती हैं। आपके शरीर के दायरे में परिवार के सभी सदस्य आते हैं और फिर शरीर के एक काफी बड़े,बढ़े हुए दायरे को ही सुरक्षित करना होता है।यानी सुरक्षा की ओर ध्यान देंगे तो प्रगति की ओर ध्यान नहीं रहेगा और प्रगति की ओर ध्यान देंगे तो सुरक्षा की ओर ध्यान नहीं रहेगा। और इस कसरत में प्रगति या तो होगी ही नहीं या फिर कम होगी।
शायद यही सोचकर आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले लोगों ने सदा अकेले ही रहने का निर्णय लिया होगा।
मैं सोच रहा था--मेरे जीवन में मुझे भी परिवारसहित मेरे पिताजी ने अपने घर से अलग कर दिया ताकि मैं परिवार की जबाबदारी(जिम्मेदारी) सँभालने
के कारण ध्यानमार्ग से दूर हो जाऊँ। लेकिन मेरे गुरुदेव की इच्छा कुछ अलग ही रही। उन्होंने मुझे ऐसे पत्नी दी है जो मेरे ध्यानमार्ग में सहायक सिध्द हुई है। उसने परिवार के लिए नोकरी करके परिवार की आर्थिक जबाबदारी से मुझे मुक्त्त कर दिया है। वैसे तो उसने मुझे प्रत्येक जिम्मेदारी से मुक्त्त रखा है।हमारे बच्चों की शिक्षा की जिम्मेदारी भी उसने सँभाल ली है। परिवार के स्वास्थ्य से संबंधी कोई जिम्मेदारी भी मैंने कभी नहीं सँभाली है। मैं संसार में रहा हूँ लेकिन मेरा रहना नहीं रहने जैसा ही रहा है।...
हि.स.यो-४
पु-४१९
Comments
Post a Comment