विंश्वचक्र अनुष्ठान के तिसरे दिन का अनुभव

आज तिसरे दिन ऐसा अनुभव हुआ
मानो शरीर के बंन्धन से जैसे ही वह
मुक्त होती है। वैसे ही वह परमात्मा
मय हो जाती है।ठीक वैसे ही जैसे
ही मेरे शरीर को निजेन स्थान व एकांन्त मीलता है। वैसे शरीर का
“औरा” आभामंडल विकसीत हो
जाता है।और फीर वह मीलो तक
फैल जाता है।
यह घटना अनायास ही एक क्षण मे
ही हो जाती है।लेकीन इतने फैले हुये
“औरा” को एक शरीर मे एकत्र करने
मे काफी समय लग जाता है।
और यह विशाल फैले हुये “औरा”
का प्रभाव मेरे आसपास के पुण्यवान
साधको को भी अनुभव होता है। उन्हे
भी अनायास ध्यान लग जाता है।मैने
पुण्यवान शब्द का उपयोग यह जान
के किया क्योकी बीना पुवेजन्म के
पुण्यकमे के बिना ऐसे पवीत्र “औरा”
मे आना भी संभव नही होता है।ठीक
ऐसे ही हिमालय की साधना स्थली
मे जाने के लीये भी एक आध्यात्मीक
स्थीती चाहीये।क्योकी एक बार वह
साधना स्थली मे प्रवेश मील जाय तो
आध्यात्मीक प्रगती तो अनायास ही
हो जाती है।ऐसा ही कुछ वातावरण
यहॉ बन गया था।
आप सभी को खुबंखुब आशिवाद

     आपका अपना
     बाबा स्वामी

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