सदगुरु
• सदगुरु का स्वभाव होमियोपैथी की गोलियों जेसा होता है। पहले गोलियाँ बीमारी को बढ़ाती हैं और बाद में ही बीमारी को नष्ट करती हैं।
•• ऐसे ही सदगुरु पहले अहंकार को बढ़ने देगा और बाद में जिस प्रकार से एक बलून (गुब्बारा) में अधिक हवा भरने पर वह फुट जाता है, वैसे ही अधिक अहंकार होने पर अहंकार का बलून सदगुरु फोड़ देता है। और अहंकार का बलून फुट जाने के बाद ही सदगुरु का आत्मज्ञान कराने का कार्य प्रारंभ होता है।
•• धीरे-धीरे शिष्य का अहंकार नष्ट होने लग जाता है और धीरे-धीरे सदगुरु की सदभावना का अमृत उसमें आने लग जाता है।
•• सदभवनायुक्त रहना सद्गुरु का स्थायी स्वभाव है। वह उसके आत्मा का स्वभाव है। उसका शरीर बुरा करना भी चाहे, सदगुरु से बुरा हो ही नहीं सकता है।
•• सदगुरु इसी पवित्र भाव के कारण ही आध्यात्मिक प्रगति करता है। और यही भाव शिष्य में आना प्रारंभ होता है तो शिष्य की भी आद्यात्मिक प्रगति होने लग जाती है।
हि. का स. यो.
भा. ३-३५७
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