पशुपतिनाथ मंदिर की अनुभूति
जिस मंदिर के चैतन्य की वजह से समर्पण की गंगा अवतरित हुई वहाँ ३० मिनट ध्यान करने की तीव्र ईच्छा थी। लौटने के दिन सुबह अकेले ही मंदिर गई। दर्शन करे और बिल्कुल सामने भैरवनाथ का मंदिर उसी प्रांगण में है, वहाँ बैठने की सुविधा थी वहाँ ध्यान के लिए बैठने का तय किया। पर उस दिन बहुत सारे दर्शनार्थी वहाँ आ रहे थे, तो मन में विचार आया कि यह जगह योग्य है? पर कोई अन्य विकल्प नजर नहीं आया तो सोचा बैठकर देखती हुँ। आँखे बंध करके ९ बजे लगभग ध्यान करने बैठी। बहुत अच्छा चैतन्य महसुस हो रहा था, तब ही वहाँ कोई झाडू लेकर कचरा निकालने आ गया। मैं बिना विचलित हुये बैठी रही, वो साईड से कचरा निकालके शायद चली गई। मेरी आँखे बंध ही थी। फिर बुद्धि ने तर्क करा यहाँ सबका ओरा कैसा होगा, उनके बीच ध्यान हो पाएगा? तुरंत दादागुरु मदद करने प्रकट हो गए। मेरे सामने दोनों हाथ फैलाकर खडे हो गए जैसे संकेत दे रहे थे कि अब कोई तुम्हारे और तुम्हारे ध्यान के बीच नहीं आएगा। और इतना अद्भुत ध्यान लगा रोम रोम से चैतन्य निकल रहा था। दोनों हाथों से चेतन्य का ठंडा प्रवाह अविरत बह रहा था। पूरे समय दादागुरु मुझे प्रोटेक्ट करते हुए खडे ही रहे। बाद में शांतिपाठ किया पर चैतन्य का प्रवाह बंध ही नहीं हो रहा था। जाना भी कहा ँ था? मैं ऐसे ही बैठी रही। ध्यान से बाहर आते नहीं आ रहा था फिर संकेत मिला की पतिदेव राह देखते खडे है। क्योंकि अकेले मंदिर आई थी। फिर अमूल्य चैतन्य का प्रसाद लेकर होटल पर पहुँची।...पतिदेव ने कहा, मैं रोड पर १०-१५ मिनट तुम्हारी राह देखकर फिर वापिस आ गया। ...इसकी पूर्वसूचना भी ध्यान में मिल गई थी।
गुरुकृपा अविरत सब पर बहती रहे, नेपाल के लोगों की आध्यात्मिक प्रगति हो, समर्पण ध्यान का प्रचार प्रसार पूरे नेपाल में हो एसी प्रार्थना करने पर नीचे से उपर तक प्रवाह बहा, जैसे प्रार्थना कबुल हो गई।
डो.धlरा की अनुभूति
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