यज्ञ
माध्यम होता है। मंत्र का उच्चारण भी अगर सिर्फ दिखाने के लिए , शारिरिक स्तर पर किया जाए तो मंत्र का प्रभाव भी शारिरिक स्तर पर ही होगा। वास्तव में कोई भी मंत्र परमात्मा का प्रसाद है , जो गुरुकृपा में मनुष्य को प्राप्त होता है। यह मनुष्य को गुरुकृपा में प्राप्त होता है - यानी इसे पाया नहीं जा सकता है , यह प्रयत्न से नहीं मिल सकता है। जो प्रयत्न से पाया जाए , वह परमात्मा का प्रसाद नहीं हो सकता है क्योंकि परमात्मा का प्रसाद केवल कृपा में ही मिलता है। ठीक इसी प्रकार से , मंत्र के द्वारा प्राप्त शक्ति के प्रशाद को भी बड़ी विनम्रता से , बड़े समर्पण भाव से ग्रहण करना चाहिए। आपका जितना समर्पण भाव होगा , उतनी ही आपकी ग्रहण करने की शक्ति होगी। किसी मंत्र के उच्चारण से निर्मित ध्वनि कई वर्षों तक वातावरण में विद्यामान होती है। जब कभी उसे ग्रहण करनेवाला व्यक्ति होता है , वह उतरती है। इसीलिए आध्यात्मिक प्रगति में मंत्र का बड़ा महत्त्व है।
यज्ञशाला में तो अग्नि के सान्निध्य में मंत्र और आशिक प्रभावशाली हो जाते हैं। अग्नि को विशेषता है - वह वातावरण को शुद्ध करती है , मनुष्य को निर्विचार करती है और अग्नि से निकलनेवाला प्रकार वातावरण में मंत्र -शक्ति के प्रभाव को फैलाने का कार्य करता है। इसीलिए यज्ञशाला में बोले गए मंत्र अधिक प्रभावशाली हो जाते हैं। यज्ञ मनुष्य के नकारात्मक विचारों को नष्ट करता है और मनुष्य को सकारात्मक भाव प्रदान करता है और सकारात्मक से भरा हुआ मनुष्य अपने जीवन में अधिक सफल होता है। इसी प्रकार से सकारात्मक से भरा मनुष्य अपने आध्यात्मिक जीवन में सफल होता है। सुबह जो यज्ञ करते हैं , वह शाक्तियाँ ग्रहण करने के लिए होता है। सूर्योदय के समय वातावरण की सभी शाक्तियाँ ऊध्र्वगामी होती है। इसीलिए
भाग - १ - १५३
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