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Showing posts from March, 2019

आभामंडल

13) आत्मा अगर सशक्त हुई तो वह शरीर को अपराध करने से रोक सकती हैं | और  समर्पण ध्यान आपकी आत्मा को ही सशक्त करता है | और इसीलिए आपके हाथ से अपराध नहीं हो पाता है | आत्मा का सशक्त होना अत्यंत आवश्यक है | बुद्धि के विकास के साथ-साथ आत्मीयता कम हो रही है | यह बात अच्छी प्रतीत नहीं होती | यह समाज में असंतुलन पैदा करेगी | 14) आज के सायन्स के युग में बुद्धि का तेजी के साथ विकास हो रहा है | आज के सायन्स में के युग में रोज नए-नए आविष्कार हो रहे हैं | पहले शरीर की शक्ति का युग था, तो आज बुद्धि की शक्ति का युग है | ना वह युग रहा, न यह युग रहेगा | सायन्स ने नए-नए आविष्कार किए हैं | यह बुद्धि से किए गए, आत्मीयता का अभाव है | अगर ये आविष्कार गलत हाथों में पड़ गए तो मानव-जाति के लिए घातक सिद्ध हो सकते हैं | बनानेवाले सोच भी नहीं सकते, उनके द्वारा बनाया गया उपकरण विनाशकारी भी सिद्ध हो सकता है | आज का इंटरनेट इसका ताजा उदाहरण है | आज इतने अच्छे साधन का गलत हाथों में पड़ जाने के कारण गलत इस्तेमाल हो रहा है | गलत हाथों में न पड़े, इसकी कोई व्यवस्था नहीं है | यह व्यवस्था भी साथ-साथ करनी आवश्यक है | 15)

ध्यान लगे , नहीं लगे

ध्यान लगे , नहीं लगे , ध्यान की स्थिति अच्छी हो , बुरी हो , कोई ध्यान देने की ज़रूरत नहीं है उधर। आप ध्यान रेग्युलर कर रहे हो , ध्यान में सम्मिलित हो रहे हो , सेंटर पर जा रहे हो , बस्स ! इसी में सबकुछ है। ध्यान से कभी जीवन में अधोगती नहीं होगी , कभी डाऊनफॉल नहीं होगा। हाँ! एक सीढ़ी से दूसरे सीढ़ी में जाने में टाईम लगेगा। प्रत्येक का अलग-अलग है। किसी को कम समय लगेगा , किसी को ज्यादा समय लगेगा। लेकिन ज्यादा समय इसलिए लग रहा है के तू ऊपर जाके नीचे न गिरे, इसलिए। समय प्रत्येक का अलग-अलग है। एक दफे प्राण छोड़ दो , लेकिन ध्यान मत छोड़ो। क्योंकि ध्यान छूट गया ना , तो फिर प्राण छूटने सरीखा ही है। क्योंकि फिर उस रास्ते पर चल रहे हो , उस मार्ग पर चल रहे हो जिस मार्ग का कोई अंत नहीं है , कोई एंड नहीं है।         मधुचैतन्य जुलाई  २००६/२७

दो बाते सदैव याद रखने का संदेश

दो बाते सदैव याद रखने का संदेश                     १) किसी भी सिरे को पकडकर मत रखो। स्वीकार करना सीख लो। स्वीकार करने से भी आप को समाधान मिलेगा। और मन शांत रखो। २) अपनी आध्यात्मिक स्थिति अच्छी कर लो। भीतर की शांति को प्राप्त कर लोगे। जो चाहोगे वह मिलेगा।             ✍..बाबास्वामी                   मधुचैतन्य                       

Doctor's Wellness conference Day 2. Question Answer Session.

Doctor's Wellness conference Day 2. Question Answer Session. *Q.* My Aura report says my Swathisthan & Sahstrar chakra are blocked. What shall I do? *Swamiji:* Do meditation regularly. There's no one whose all chakras are clear. Also, it may happen once your chakras are clear, it can get blocked again. Regular practice of meditation can help you clear all of them. *Q.* My spouse does not believe in Meditation, how to make them meditate or aware about meditation? *Swamiji:* They'll join meditation once their time arrives, don't waste your energy in pulling them towards this, it'll imbalance you. You do your meditation. If both husband and wife do meditation, that'd the best situation for the house. *Q.* While doing meditation, I'm hearing Brahmnaad, shall I focus on it or shall I focus at Sahastrar? *Swamiji:* Focus at Sahastrar only, you'll hear Naad automatically. Don't focus on it, only focus at Sahastrar. *Q.* I believe in living gurus

समर्पण ध्यान का मिशन

६१.  यह एक शरीर का महामहत्वपूर्ण संस्कार है। इसलिए एक ही माँ-बाप को दो अलग-अलग प्रकार के लडके होते हैं। एक बहुत अच्छा होता है, एक बहुत खराब। दो लडकों में जमीन-आसमान का अंतर देखा गया है। दोनों के स्वभाव अलग-अलग होते हैं क्योंकि आत्माओं का स्तर अलग-आलग होता है। ६२.  हम सदैव अच्छे फलों की अभिलाषा रखते हैं, पर यह वास्तव में  अच्छे वृक्षों के बिना कभी संभव ही नहीं है। इसलिए अच्छे वृक्ष लगाईए, तो अच्छे फल स्वयं ही आएँगे। युवा साधकों के रूप में हमें हमारे जीवनकाल में अच्छे वृक्ष लगाना है तो इन अच्छे वृक्षों को भविष्य में अच्छे फल आएँगे ही। रही बात फल खाने की, तो हम फल खा न सके, हम माध्यम तो बन सकते हैं दूसरों को अच्छा फल खिलाने के। समाधान फल खाने में नहीं, फल खिलाने में है। और हम हमारे जीवनकाल में जो फल खा रहे हैं, वे भी तो किसी ने लगाए होंगे ही, जो वह अपने जीवनकाल में नहीं खा सका। ६३.  अगर बह्मांड मे बदलाव चाहते हो तो उस बदलाव को पहले एक पिंड में लाना होगा। एक पिंड भी निर्माण हो गया तो उससे हजारों लोगों तक बदलाव आएगा। पर बदलाव की शुरुआत स्वयं से करना सबसे आसान है क्योंकि स्वयं हम अपने अधिक

नामकरण

सद्गुरु बच्चे की आत्मा देखकर बच्चे का नामकरण करते हैं |  सद्गुरु उस बच्चे की आत्मा को पहचानते हैं - वह आत्मा किस स्तर की है , उस आत्मा के पिछले जन्म में कौन से कर्म थे | उन सब कर्मों का लेखा जोखा देखकर इस जन्म में उस आत्मा का क्या उद्देश्य है और उस आत्मा की कौन सी दिशा है , वह दिशा सद्गुरु जानते हैं | -- अपने जीवन में अपने उद्देश्य को प्राप्त करे ,इसके लिए सद्गुरु उसे नाम से सम्बोधित कर अपने आशीर्वाद उसके साथ जोड़ देते हैं | प्रत्येक नाम के साथ एक आभामंडल होता है | और उस आभामंडल को जानकर उसे उपयुक्त शरीर के साथ नाम के रूप में जोड़ना एक बहुत महत्त्वपूर्ण घटना है | प्रत्येक आत्मा के जीवन के उद्देश्य अलग अलग होते हैं और प्रत्येक नाम का आभामंडल अलग अलग होता है | दोनों को जानकर , दोनों को पहचानकर ,दोनों को उपयुक्त रूप में जोड़ना और उन्हें एकत्र कर ,जोड़कर फिर अपनी सामूहिक शक्ति उस बंधन में प्रवाहित करना ,ऐसी त्रिवेणी संगम सद्गुरु द्वारा रखे गए नामकरण में होता है | हि.स.यो. १/२७७

अगर आप किसी जीवंत गुरु को मानते है तो एटोमेटिकली क्या होगा ?

अगर  आप  किसी  जीवंत  गुरु  को  मानते  है  तो  एटोमेटिकली  क्या  होगा ? आपको  आत्मसाक्षात्कार  प्राप्त  होगा । आत्मसाक्षात्कार  प्राप्त  होगा तो अंतर्मुखी  यात्रा  होगी ,औऱ  अन्तर्मुखी   यात्रा होगी  तो  परमेश्वर  बाहर  ढुण्ढोगे  नहीं , अंदर  परमेश्वर  की  अनुभूति  होगी l आप  का अपना  बाबा स्वामी   रक्षक शिबिर [भुज ] 29जुलाई 2018

धर्म और आध्यात्म में अंत

     निसर्ग  के  सानिध्य  में  "विचार " नहीं  आते  है । निसर्ग  विचार  नहीं  करता  है । विचार  मनुष्य  के  मस्तिक  के  कारण  ही  निर्माण  होते  है । विचार  भूतकाल  के  होते  है  और  भविष्यकाल  के  होते  है । वर्तमानकाल  में  कोई  विचार  ही  नहीं  होता  है । परमपूज्य गुरुदेव आत्मेश्वर पन्ना २७

ध्यान करना यानी क्या प्रकृति से जुड़ना

मैने  कितने लोगो को ध्यान सिखाया इसका कोई हिसाब ही नहीं । सैकड़ो गाँव मे गया हू , लेकिन किसी भी  गांव  मे  बाद मे वो लोग ध्यान  करते है  या  नहीं,  यह  देखने  बाद मे कभी नहीं  गया । जिस प्रकार से एक किसान जमीन पर  बीज डालते जाता है  पर  पिछे मुड़कर देखता भी नहीं है कि  उसने  बोये  हुए  बिज  उगे है या नहीं । ऐसी ही मेरी स्थिती थी । मुझे  लगता था मुझे गुरूदेव ने कायॅ बीज बोने का ही दिया है ,  मैने केवल उतना ही कायॅ करना चाहिए । जीन बिजो पर गुरुदेव की कृपा होगी और वे  चाहेंगे की वे बीज उगे तो वे उगेगे  और जो वे नहीं चाहेंगे, वे नहीं उगेंगे ।  मै तो केवल माध्यम हू , मै  केवल निमित्त हूँ बीज बोने का । जो जमीन बीज पाने के योग्य हो गयी होगी,  उसी  जमीन पर  बीज गिरेगा और  जहां उगना होगा वहाॅ बीज उगेगा। बीज को अंकुरित करने वाली शक्ती अपना  कायॅ करेगी । यह  व्यावहारिक नही है, लेकिन मैने केवल यही किया है और यह मै  प्रामाणिकता के  साथ  कबूल भी करता हूं । मैने उन्हे ध्यान  सिखाया  यानी  क्या?  मैने उन्हे  प्रकृति से  जुड़ना सिखाया । ध्यान  करना यानी  क्या प्रकृति से जुड़ना ही है । Hksy  part  6 p

पूज्य स्वामीजी के साथ हुई प्रश्नोत्तरी

Q - *स्वामीजी, में ध्यान के समय बहुत हिलता हूं । कृपया करके मुझे मार्गदर्शन करें*। जवाब :-  *जब शक्तियों का प्रवाह बह रहा हो और उसमें बीच मे रुकावट आ जाये, तो वहां तीव्रता बढ़ जाती है । उसे उपर जाने का रास्ता नही मिलता है।  समजो अगर आपका ह्रदय चक्र दूषित हो, तब ध्यान के दौरान शक्ति का प्रवाह नीचे से ऊपर की और उठ रहा हो वह ह्रदय चक्र पर आकर अटक जाता है और उसकी तीव्रता के कारण आपका सारा बदन हिलने लग जाता है।  आपको अगर कोई तनाव हो और उस तनाव के साथ अगर आप ध्यान करने बैठ जाओगे , तब आपकी स्थिति ऐसी हो जायेगी, इसीलिये ध्यान करने के पहले आप अपने आपको हलका करो, बाद में प्रसन्न चित्त से ध्यान में शामिल होंगे, तब यह शिकायत नही रहेगी*। Q -  *स्वामीजी, कल मुझे ध्यान के समय सिर में दर्द नही था । पर, ध्यान करने के बाद सिर में दर्द सुरु हो गया । ऐसा क्यों हुआ*? *जवाब* - *ध्यान के बाद या ध्यान के समय कभी भी सिरदर्द हो सकता है, पर यह थोड़े समय के लिये है । कुछ समय के बाद वह नही रहेगा। जैसे कोई नाली में अगर कचरा भरा पड़ा हो, तो जब तक हम उसे साफ नही करेंगे तब तक वह दिखाई देगा । पर एक बार निकल जाने

विचार

जो मनुष्य सकारात्मक विचार कर सकता है, वही मनुष्य नकारात्मक विचार भी कर सकता है। दोनों ही विचार मनुष्य की शक्ति को खर्च करते हैं। इन दोनों से मुक्ति निर्विचारिता की स्थिति है और यह स्थिति ध्यान में ही संभव है और ध्यान आत्मज्ञान से ही संभव है। यानि विश्व कल्याण का मार्ग आत्मज्ञान से ही संभव है। ~बाबा स्वामी

आहार

जब हम हल्का , सुपाच्य भोजन करते हैं , तो लिवर पर अधिक दबाव नहीं आता है। क्योंकि ध्यान का संबंध चित्त से है , चित्त का संबंध लिवर से है और लिवर का संबंध आपके आहार से है। यानि आहार का ध्यान से सीधा संबंध है। जंगल में ऋषी-मुनी, इसलिए कंद-मूल फल खाकर गुजारा करते हैं , और वे मांसाहार भी नहीं करते हैं। हल्का आहार लेने पर मैंने अनुभव किया - पहले मेरी काफी चेतनाशक्ति गलत आहार को पचाने में ही खर्च हो जाती थी। उस चेतना शक्ति की बचत हो गई और वही चेतना-शक्ति ध्यान में अच्छी स्थिति बनाने में परिवर्तित हो गई। और यही लाभ सभी साधक भी लें , इसी शुद्ध इच्छा से यह अनुभव आपको बता रहा हूँ। आप भी तली हुई चिजों और मीठी वस्तुओं से परहेज करे। बीच में एखाद दिन आपने खा भी ली , तो उसका कुछ भी असर नहीं पडता , रोज के आहार में नहीं होना चाहिए। इसी तरह चाय चलेगी , कॉफी नहीं। भूक का ७५प्रतिशत ही भोजन करना चाहिए। इस प्रकार आपका चित्त भी खाने से अलग होगा और चित्त सशक्त बनेगा तो ध्यान अच्छा लगेगा। अपनी आध्यात्मिक उन्नति में आहार का बडा महत्वपूर्ण स्थान है। *मधुचैतन्य अक्टूबर २००५*

आभामंडल

       एक मनुष्य का शरीर होता है जिस शरीर को छूकर देखा जा सकता है । इस शरीर को स्थूल शरीर कहते है । और इस शरीर के जो विचार है , उन विचारों का प्रभाव उस शरीर के आसपास पड़ता रहता है और इस प्रभाव को ही आभामंडल कहते है । यह अलग -अलग विचारों के अनुसार अलग -अलग प्रकार के रंग का हो सकता है और इस आभामंडल के रंगों को देखकर ही मनुष्य के विचारों को जाना जा सकता है की मनुष्य मूलतः कैसा है ?क्योंकि मनुष्य भीतर से जैसा होगा , वैसे ही उसके विचार होंगे , और जैसे विचार होंगे , वैसे ही इस आभामंडल के रंग होंगे । मनुष्य की सांस लेने की कारण यह स्पंदित होते रहता है । कभी जब सांस ली , तो छोटा हो गया और सांस छोड़ी , तो बड़ा हो गया । उसका आकार ऐसे कम या जादा होते रहता है यह प्रत्येक मनुष्य का होता ही है । और अंधेरे में मनुष्य की छाया मनुष्य का साथ छोड़ दे , पर यह अंधेरे में भी मनुष्य के साथ बना हुआ रहता है । इस आभामंडल के रंगों को देखकर किसी भी मनुष्य को जाना जा सकता है । . . . परमपूज्य स्वामीजी ही.का.स.योग.२/२५४/५५

गुरुकृपा

गुरुकृपा में खूब आनंद प्राप्त किया , खूब अच्छी-अच्छी आनुभूतियाँ हुई। अब मुझे यह सब आपको बाँटकर ही आनंद मिल पाता है। अब यह आत्मज्ञान मुझे रखकर आनंद नहीं आता , बाँटकर ही आता है। इसलिए आपको कल्पना नहीं है कि मैं आपके बिच कितना खुश और प्रसन्न हूँ। आप अच्छे-से मेरी बातें सुन रहे हैं , नियमित आ रहे हैं इससे मुझे बहुत प्रसन्नता होती है। और आत्मज्ञान सही आत्माओं तक पहुँच रहा है और वह पहुँचाने का माध्यम बनने का अवसर मुझे मिल रहा है , यह बात मेरे आत्मा को एक समाधान देती है। अब आप इस चक्र का नियम समझ लो  -  आपको जो लगता है कि आपके जीवन में यह कमी है तो आप वही बात लोगों को बाँटना प्रारंभ करो। भाग - ६ -२१६

वन में पाना चाहते हो , वही आप दूसरों को देना प्रारंभ करें

आपकी आर्थिक स्थिति खराब है और आप चाहते हो कि आपकी आर्थिक स्थिति अच्छी हो , तो आप लोगों को आर्थिक सहायता करना प्रारंभ करें। लेकिन ध्यान रहे , इसका प्रदर्शन न हो। अन्यथा और आपकी परिस्थिति खरब हो जाएगी। यानी आप जो भी जीवन में पाना चाहते हो , वही आप दूसरों को देना प्रारंभ करें और यह करने की क्रिया आत्मा से ही होनी चाहिए , शरीर से नहीं।  अन्यथा वह शरीर का अहंकार ही बठ़ाएगी। नाभि चक्र खुल जाने के बाद आपको आपके नाभि के ऊपर एक प्रकार के स्पंदन का अनुभब होगा। यह नाभि चक्र विकसित होने की पहचान है। मनुष्य को समाधान प्राप्त किए बिना आध्यात्मिक प्रगति नहीं  हो सकती है। इसलिए कहते हैं कि नाभि चक्र पर भवसागर होता है और वह बिना गुरु के पार नहीं किया जा सकता है। गुरु यानी सामुहिकता का दूसरा नाम है । गुरु कभी भी अकेला नहीं होता है , सदैव अच्छे , पवित्र आत्माओं की सामुहिकता उसके साथ होती ही है। भाग - ६ -२१६/२१७

आत्मसूख

     आत्मसूख  तो  आत्मा  की  वह  पूर्ण  समाधान  की  "अनुभूति "है  जो  मनुष्य  को  "मोक्ष  की  स्थिति "मिलने  के  बाद  ही  होती  है  और  यह  अनुभूति  मनुष्य  की  "आत्मा "स्वयं  प्रगट  होकर  कराती  है । आपका  आपके  आत्मा  के  प्रति  पूर्ण  समर्पण  हो  जाता  है  और  शरीर  की  आत्मा  के  साथ  इतनी  समरसता  हो  जाती  है  की  "आत्मा " स्वयं  आपके  सामने  "प्रगट " होकर  आपको  मार्गदर्शन  करती  है । परमपूज्य गुरुदेव   आत्मेष्वर  

स्वामीजी का आभामंडल

स्वामीजी का आभामंडल (ऑरा) बहुत बडा है। *जब हम साधक उनके आभामंडल में होते है और उनके स्थूल शरीर को प्रणाम करते हैं तो अनजाने में हजारों साधकों का दोषरुपी विष आभामंडल के माध्यम से स्वामीजी के स्थूल शरीर में स्थानांतरित (ट्रान्सफर) होता है।* यह स्थिति उनके स्थूल शरीर को नुकसान पहुँचा रही है। *हम साधकों का कर्तव्य: कभी भी पूज्य स्वामीजी के स्थूल शरीर को नमस्कार नहीं करना चाहिए, बल्की पूज्य गुरुदेव के मंच से जाने के बाद सूक्ष्म शक्तियों को ही नमस्कार करना चाहिए। स्थूल शरीर को नमस्कार किए बिना भी हमें वही मिल रहा है क्योंकि शक्तियाँ तो सदैव विद्यमान हैं ही।*           डॉ.हेतल आचार्य *मधुचैतन्य अप्रैल २००९*

श्री गुरुशक्तिधाम से जुड़ने का महत्व

ये स्थान आत्माओं को मोक्ष का मार्ग बताएँगे।आत्माओं के मोक्ष के मार्ग में जो भी बंधन है,वह दूर करेंगे।लेकिन यह सब बड़े सूक्ष्म रूप से घटित होगा।स्वयं उस दर्शन करनेवाले व्यक्ति को भी मालूम नहीं पड़ेगा कि वह धीरे-धीरे मुक्त हो रहा है। - ही.स.योग - 3

सामुहिकता मे अपनी प्रगति करने का एकदम सरल उपाय

 आपका ह्रदय सबके लिये खुला होना चाहीये,आपके मनमेँ सबके प्रति अच्छा भाव होना चाहीयेँ । सामनेवाला आपके लिये क्या सोच रहा है उससे आपको कोई लेना देना नही है । वो उसका भाव है , वो उसका क्षेत्र है , वो उसका स्तर है , वो नीचे के स्तर पे है , तुमको उसके लिये नीचे के स्तर पे जाने की कुछ आवश्यकता नही है । तुम तुम्हारा स्तर बनाकरके रखो । आत्मा का स्तर बनाकरके रखो । आत्मिक स्तर के उपर तुम्हारे मन मे सबके प्रति अच्छा भाव होना चाहीये, सबके प्रति एक अच्छा भाव तुम्हारी खुदकी आध्यात्मिक प्रगति करेगा । वो आपके प्रति कैसा भाव रख रहा है उधर ध्यान मत दो । तुम तुम्हारी जगह सही रहो, वो उसकी जगह गलत है । एक दिन उसकी आँख खुलेगी, उसको पता लगेगा, तुम तो सही थे ही__गलत वो था । लेकिन वो गलत है ईसलिये तुम गलत मत हो जाओ । वो नीचे की सीड़ी पे है ईसलिये तुम नीचे की सीड़ी पे मत जाओ । ईँतजार करो , राह देखो , एक दिन उसे भी वो स्तर प्राप्त हो जायेगा ।" -H.H.Shivkrupanand Swamiji, Guru-Purnima-'2008.

आपकी आध्यात्मिक स्थिति कैसी है यह जानना है

आपको  अगर  आपकी  आध्यात्मिक स्थिति  कैसी है  यह  जानना  है  तो  आप  देखो आपके  संबंध दूसरो से कैसे  है । आपके  संबंध  सबसे  एक जैसे  होने  चाहिए । ना किसीसे कम ना  किसीसे  जादा । बोलते है ना  ,  ना  किसीसे प्रेम,  ना  किसीसे बैर। दोनो से  समान  संबंध  होने  चाहिए ।अच्छे भी  नही  और  बुरे  भी  नही। तो  ऐसा  करने मे  अगर  आप  सफल होते हो, तो  आप देखोगे धीरे धीरे आपका  चित् शुध्द  होगा, चित पवित्र  होगा, और  चित् को  शुध्द  रखने  मे   जितने आप  सफल  होंगे,  आपका  चित उतना ही पवित्र  होता  जायेगा । और  जितना  पवित्र  होता  जायेगा,  उतना  सशक्त  होता  जायेगा । Madhuchaitanya  April,  May, June 2009

साधक :-- मोक्ष प्राप्ति कें लिए चार कृपा जरूरी है , आत्म -कृपा , गुरु -कृपा , इष्ट -कृपा औऱ ईश्वर कृपा । चारों कृपा लेने कें लिए हमें क्या करना चाहिए ?

साधक :-- मोक्ष  प्राप्ति  कें  लिए  चार  कृपा  जरूरी  है , आत्म -कृपा , गुरु -कृपा , इष्ट -कृपा  औऱ  ईश्वर  कृपा । चारों  कृपा  लेने  कें  लिए  हमें  क्या  करना  चाहिए ? स्वामीजी :-- ध्यान  करना  होगा । ध्यान  करने  से  हीं  सभी  कृपा  हमको  प्राप्त  हो  जाती  है । चैतन्य महोत्सव       २०१४

अपने अस्तित्व को शून्य कर लोगे

    अपने -आपको जानो ,अपने -आपको पहचानो औऱ अपने -आपको जान करके जब आप अपने अस्तित्व को शून्य कर लोगे , आप भूल जाओगे आप कौनसे देश कें हो , कौनसे धर्म कें हो , कौनसी भाषा कें हो , कौनसी जाती कें हो , आप स्त्री हो या पुरुष हो ...ये सब बातें भूल जाओ , इन सब बातों का कोई अर्थ नहीं है । आप सिर्फ इतना ध्यान दो की आप हीं परमात्मा हो , परमात्मा आप हीं कें भीतर बैठा हुआ है । परमात्मा से आपका कोई अलग अस्तित्व नहीं है , केवल आपके हीं मैं कें अहंकार कें कारण आपको वो अस्तित्व अलग नजर आ रहा है , अलग लग रहा है ।  गुरुपुर्णिमा  २०१७    

मुक्त अवस्था

मुक्त  अवस्था  का  सतत  अभ्यास  करना  ही  ध्यान  है  और  ध्यान  से  वह  मोक्ष  की  स्थिति  भी  प्राप्त  हो  जाती  है  जिसे  पाने  के  बाद  मनुष्य  का  दुसरा  जन्म  ही  नही  होता  क्योंकि  नया  जन्म  लेने  के  लिए  कोई  कारण  ही  नही  रहता  है । और  इस  मोक्ष  की  स्थिति  को  पाना  केवल  और  केवल  मनुष्यजन्म  में  ही  संभव  है ।... ही .का .स .योग .. भाग - ५ - १७३

सामूहिकता में नियमित ध्यान

अपने घर में *एक लाख दिन ध्यान करना और एक लाख लोगों के साथ एक दिन ध्यान करना बराबर होता है।* सामूहिक ध्यान में जहाँ एक और चित्त की शुद्धि होती है वहीँ दूसरी और आत्मा की भी प्रगति होती है क्योंकि आत्मा को भी प्रगतिशील आत्माओं की सामूहिकता मिलती है।" *"साधकों को प्रतिदिन सामूहिक ध्यानकेंद्र में ध्यान करना चाहिये* क्योंकि उस वैचारिक प्रदुषण वाले मनुष्य समाज में *आत्माओं को सशक्त करने का एकमात्र उपाय सामूहिकता ही जान पड़ता है।* इसलिए समर्पण ध्यान का कार्य केंद्रों के माध्यम से होना चाहिए।" "सुरक्षा की शक्ति सदैव परमात्मा की होती है और परमात्मा तो सदा आत्माओं की सामूहिकता में ही रहता है। और अगर हम आत्माओं की सामूहिकता से जुड़ते हैं तो परमात्मा का सुरक्षा कवच हमें अनायास ही मिल जाता है। लेकिन आत्माओं की सामूहिकता में हमें आत्मा बनकर ही जाना होगा।" *हिमालय का समर्पण योग - भाग 4 पृष्ठ संख्या २८१-८४*

आत्मसूख

सद्गुरु को मिलना , उससे आत्मसाक्षात्कार पाना , बाद में अंतर्मुखी होना , अपने -आपको ही गुरु बनाना और अपने ही भीतर परमात्मा को पाना , यह क्रमबद्ध प्रगति की दिशाएँ हैं , लेकिन यह एक ही जन्म में हो यह संभव नहीं हैं । इसलिए , कई साधक आत्मसाक्षात्कार पाकर भी भटकते रहते हैं । मूझे उसका कोई आश्चर्य नहीँ होता हैं । क्योंकि एक ही जन्म में सब कुछ हों जाए ऐसा नहीँ होता हैं । ....* *✍...पूज्य स्वामीजी* *[ आत्मेश्वर ]*

ध्यान करने के लिए मंत्र की क्या आवश्यकता है ?

 11 : ध्यान करने के लिए मंत्र की क्या आवश्यकता है ? स्वामीजी : मंत्र के माध्यम से हम उस सामूहिकता से जुड़ते हैं | उस मंत्र के माध्यम से बहुत सारे लोग ध्यान करते हैं कि नहीं ? हमने जैसे ही वो मंत्र बोला, तो उन सारे लोगों की सामूहिकता, कलेक्टिविटी हमें मिल जाती है | शुरुआत में हमारा चित्त एकाध समय विचलित होता है, पर आदत लगने से हमारा चित्त सिर के तालू भाग में स्थिर होने लगता है | अकेले ध्यान करने की अपेक्षा सामूहिकता में ध्यान करना ज्यादा लाभदाई है | ध्यान में शुरुआत के समय मंत्रोच्चार की आवश्यकता है | फिर जैसे-जैसे हमारी ध्यान में प्रगति होती जाएगी,  वैसे-वैसे हमारी चित्त एकाग्र करने की क्षमता बढ़ेगी और फिर मंत्र की भी आवश्यकता नहीं रहेगी | और दूसरा,  सुबह 3:30 से 5:30 बजे का समय अच्छा होता है | ध्यान के लिए यह अच्छा समय है | दिन में कम से कम आधा घंटा ध्यान करना जरूरी है | मधुचैतन्य : अप्रेल,मई,जून - 2008

ध्यान करने की आदत

अपने आप को ही ध्यान करने की आदत डाल लो। और भविष्य की चिंताएं मत करो, अपने वर्तमान समय को सुधारो। सदैव वर्तमान काल की "नींव" पर ही भविष्य की बिल्डिंग खड़ी होती है। अपना वर्तमान संतुलित रखो। वर्तमान सुधार लो तो भविष्य अच्छा होने ही वाला है। और भूतकाल की "काली यादों" की गठरी भी उतार फेंको। उसके वजन से ही कहीं भविष्य ना खराब हो जाए, यह याद रखो। बुरे व्यक्तियों को याद मत करो। सदैव अपनी आज्ञा (आज्ञाचक्र) में किसीको भी रखोगे तो एक दिन वह आपके आज्ञा चक्र को कमज़ोर कर देगा। और फिर  आपके "आज्ञा चक्र के स्टेज" पर किसी ना किसी व्यक्ति का "नाटक" चलते ही रहेगा।  यानी कोई ना कोई मनुष्य सदैव आपके आज्ञा में रहेगा। यह स्थिति बड़ी खराब है। आप इस स्थिति से बचो। यह बड़ी ही खतरनाक स्थिति है। प्रथम आपको समझना होगा कि आपकी यह स्थिति हो गई है और बाद में इस में से निकलने के लिए प्रार्थना करना होगी। अन्यथा यह स्थिति आपके सारे जीवन को ही खराब कर देगी। आप आपके जीवन का थोड़ा समय अपने आप के लिए निकाले, आप स्वयं, अपने आप के गुरु बनिए, आपको जीवन में "पल-पल" पर मार्ग

जिस व्यक्ति भीतर घाव

सामान्यत : जिस व्यक्ति भीतर घाव  होते हैं ,वही दूसरों को भी घाव देता है | यानी वह दूसरे को घाव देकर कहीं ,अपने ही घाव को कुरेदता रहता है | यानि अपने प्रति भी वह हिंसक ही है | और जिसके पास घाव है ही नहीं ,वह किसी को घाव कैसे दे सकता है ? क्योंकि कुछ भी दूसरों को देने के लिए प्रथम वह स्वयं तुम्हारे पास तो होना चाहिए |- इसलिए गालियाँ खाया हुआ व्यक्ति ही गालियाँ देते रहता है | गालियाँ एक प्रकार की दुर्भावना है | जो दुर्भावना नहीं रखता,वह गाली नहीं रख सकता है | और दुर्भावना एक अच्छे ,शुद्ध चित्त  का  प्रतीक नहीं है | जब चित्त दूषित हो तभी मुख से गाली निकल सकती है और उस निकली गाली से कोई आहत हो सकता है | हि.स.यो.१/ ३२५

नींद और ध्यान में क्या अंतर है ?

 साधक : नींद और ध्यान में क्या अंतर है ?     स्वामी जी : जब शरीर थका हुआ हो, उसको पूरा आराम नहीं मिला हो, तब ध्यान में नींद आती है | यानी कि शरीर की क्षमता से ज्यादा उससे काम करा जाए, तो ध्यान के दरम्यान जरूर नींद आएगी | जैसे कई लोग ड्राईवर से डबल ड्यूटी (दुहरा काम) कराते हैं और उसे पूरा आराम नहीं देते हैं, तब वह गाड़ी चलाते-चलाते थक जाता है और कभी अपघात (दुर्घटना) भी कर बैठता है |         हमारे पास एक शरीर है और एक आत्मा है | आत्मा कहता है -  ध्यान कर, पर शरीर सो जाता है क्योंकि शरीर को पूरा आराम नहीं मिला होता है | इसलिए आत्मा का शरीर पर नियंत्रण नहीं रहता है | उसे ऐसे भी समझाया जा सकता है की जैसे आत्मा छोटा कुत्ता है और शरीर बड़ा कुत्ता है | अगर एक कुत्ता अपनी गली में अकेला हो और बाहर दूसरा, ताकतवर कुत्ता आए तो वह भौंककर विरोध करता है, पर उसे भगा नहीं सकता | पर अगर उसके साथ ज्यादा कुत्तों की सामूहिकता हो तो वह अपने से भी ताकतवर कुत्ते पर हमला कर सकता है | इस तरह शरीर का नियंत्रण आत्मा पर पूरा रहता है | शिविर के पहले दिन आप साधक को शिविर में ले आते हो, तब वह आपके कहने से आता है

कच्छ महाध्यान के पुज्य गुरूदेव के प्रवचन के कुछ अंश

"   मेरी   ईच्छा   है  इस  बार   की गुरुपूणिॅमा   के  दिन   कच्छ    गुरु शक्ति धाम  का  भूमि   पूजन   हो  । ध्यान   को   शोख   बनाओ  और  तीन   बात    याद  रखो  : 1 .  निरपेक्ष   भाव   से   ध्यान   करे   । 2 .  सामूहिक   ध्यान   करे   । 3  .  नियमित   ध्यान   करे   । -  मेरे   आगे  - पीछे   मत  घुमो  मै  कोइ  अधिकारी   नही   हुँ   की   आपकी   प्रमोशन   कर  दु  , में   जो   देता   हुँ   वो   आत्मा   से आत्मा   तक   देता   हुँ   । मेने   भी   ध्यान   को   शौख   बनाया   था  l कोइ  अपेक्षा   के  साथ   इस   मागॅ   में   नही   आया   था  ।  सिर्फ   अच्छा   लगता   था   ,  मन  को   प्रसन्नता   महसूस   होती   थी   इसलिए   करता  था , और   अेसा   ही      आनंद   सबको   प्राप्त   हो   यही   भाव  था और   सबको   यही   आनंद   बांटते   रहता   हुँ   । तो   आप  भी    कोई    अपेक्षा   मत   रखो   तो   आपकी  भी   जल्दी  से   प्रगति   होना  शुरू   हो   जायेगी  आप  सिर्फ   45  दिन    करके   देखो   । आपके   अंदर   एक   चेन्ज   आ   जायेगा   ,सिर्फ   आप   आपका   अवलोकन   करो   ,कोई   अपेक्षा    मत 

भीतर का 'मैं' जब तक जीवित है

आपके भीतर का 'मैं' जब तक जीवित है, तब तक ध्यान कभी भी नही लग सकता। 'मेरा' ध्यान लग रहा है। 'मेरा' ध्यान नही लग रहा है.... 'मुझे' ध्यान की अवस्था  प्राप्त हुई है ... मुझे ध्यान की अच्छी अवस्था प्राप्त नही हुई है...अरे,  यह 'मैं' कौन है ? इस 'मैं' को छोड़ दो ।  विलीन कर दो। अच्छा हो रहा है, स्वामीजी की कृपा। अच्छा नही हो रहा है , स्वामीजी की कृपा। अपनी ईच्छा को ही मत बाँधो। "स्वामीजी मुझे अच्छा ध्यान लगाओ।" क्यूँ लगाऊ ? जब तेरी स्थिती अच्छी हो जाएगी, माँगने की भी आवश्यकता नही होगी !  ध्यान कब लग गया, पता ही नही चलेगा। उसके लिये सुपात्र बनो। भीतर भूतकाल का जहर भरकर रखा हुआ है। रोज ध्यान करते हो, ग्रहण करते हो, जहर मे डालते हो ! वह भँवरा बेकार मे मेरा अमृत खराब कर रहा है। तो सबसे पहले जहर को निकाल कर फेको। ताकी मैं आपको उज्ज्वल भविष्य दे सकुँ। मधुचैतन्य जुलाई - 2005

जिंदगी इतनी लंबी नही

    जिंदगी इतनी लंबी नही की कीसीसे नाराज रहा जाए क्यों न माफ कर सभी को     जीवन जिया जाए जिंदगी पहलू दर पहलू         खूबसूरत है     बशर्ते खूबसूरती से       उसे देखा जाए।      ॥ वंदनिय गुरुमाँ॥            " माँ "         पुष्प - १ - १११

प्रेम और ध्यान

                 जिदंगी मे दो शब्द बहुत खास है:- प्रेम और ध्यान। क्योंकि ये अस्तित्व के मंदिर के दो  विराट दरवाजे हैं। एक का नाम प्रेम, एक का नाम ध्यान। चाहो तो प्रेम से प्रवेश कर जाओ, चाहो तो ध्यान से प्रवेश कर जाओ। शर्त एक ही हैः अहंकार दोनों में छोड़ना होता है ।. आपका  बाबा स्वामी 

कई जन्मों के पश्चात मनुष्य को समझ

 कई जन्मों के पश्चात मनुष्य को समझ आती है कि धन में, भौतिक सुखों में , शाश्वत सुख नहीं है | फिर कहीं वो शाश्वत सुख की खोज में जन्म लेती है और फिर किसी सद्गुरु की कृपा में आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करती है | उसे "मैं एक आत्मा हूँ " यह बोध होता है , जैसे जैसे वह जागृत होती है ,वह सारे भौतिक जगत से विमुख होने लगती है और फिर उसे केवल आत्मज्ञान प्राप्त करने में ही आनंद मिलता है और फिर वह ध्यानसाधना करके अपने जीवनकाल में ही मोक्ष की एक स्तिथि प्राप्त करती है |  हि.स.यो.१/३३६ 

श्री सदगुरु के सानिध्य

     श्री  सदगुरु  के  सानिध्य  में  जाते  है , जैसे  उनका  दर्शन  करते  है , हमारी  भी  भीतर  की  यात्रा  प्रारंभ  हो  जाती  है । अब  प्रश्न  ये  आता  है --अगर  हम  आत्मा  है  तो  भीतर  कौन  जाता  है ? भीतर  शरीर  का  अहंकार  जाता  है ।  अहंकार  का  भाव  धीरे - धीरे  धीरे -धीरे   अंदर  जाता  है  और  जितना  अंदर  जाएगा  उतना  ही  ध्यान  अच्छा  लगेगा । ✍ . . . .  .   आपका बाबा स्वामी

समर्पण ध्यान की साधना का उपयोग

समर्पण  ध्यान  की  साधना  का  उपयोग  आपको  जीवन  मे  किसके  लिए  करना  है ,वह  आपके  ही  ऊपर  निर्भर  है ।आज  इतना  अवश्य  बताता  हूँ  की  आप  जब  समस्याग्रस्त  रहते  हो ,वह  समय  आध्यात्मिक  प्रगति  का  नही  होता  है ।आपकि  आध्यात्मिक  प्रगति  तभी  हो  सकती  है  जब  आप  सभी  समस्याओं  से  मुक्त  रहते  हो  क्योंकि  लंगड़ा  मनुष्य  कभी  दौड़  नही  सकता ।इसलिए  जब  स्वस्थ  हो ,तभी  आध्यात्म  की  दौड़  प्रारंभ  करो ।  बाबा स्वामी

ब्रह्मानंद गुरुदेव

ब्रह्मानंद गुरुदेव कुछ कंद-मूल तोड़कर लाते थे । वे जो देते थे,वह खाता था । पहले आठ-दस दिन तो उन्होंने मुझे वहाँ की प्रकृति के साथ जुड़ना सिखाया। वे कहते ,थे "यह झरने का पानी बह रहा है, उसे देखो, गौर से देखो और देखते ही रहो । वह एक निश्चित व्यवस्था के अधीन बह रहा है " वह पहले कैसे गिरता है, बाद में कैसे गिरता है और बाद में किस क्रम में गिरता है, उसका एकाग्रता से अध्ययन करो । उसमें प्रकृति एक संदेश दे रही है,उसे समज़ो । हि. का. स.यो. 1 पेज 31

प्रकृति का नियम

प्रकृति  का  नियम  है  :-- आप   वह  जीवन  ही जीते  है  जो  जीवन  जीने  की  आप  इच्छा  रखते  है । तो  प्रकृति  में  फैली  विश्वचेतना  वह  जीवन  का  निर्माण  करने  में  लग  जाती  है ।........... वैश्विक  चेतना  का  नियम  है  :---  वह  कार्यरत  सदैव  रहती  है , बस  उसकी  दिशा  और  दशा  निश्चित  नही  होती  है । उसे  हमारा  चित्त  दिशा  प्रदान  करता  है । और  चित्त  जो  दिशा  प्रदान  करता  है , वह  उस  दिशा  में  बहना  प्रारंभ  कर  देती  है । ही..स..योग.[ ५-- १९४/ ९५ ]

જીવંત મૂર્તિ

    "  તે  જીવંત  મૂર્તિઓ  સ્વયં  બોલી ઉઠશે , તેઓ  મનુષ્ય ના પ્રત્યેક  પ્રશ્નના  ઉતર  આપશે . પ્રત્યેક  સમસ્યાનું  સમાધાન  આપશે.  અશાંત  મન ને  શાંતિ  આપશે ,  બયભીત  મનને  વિશ્વાસ  આપશે ,  નિરાધાર ને  ' આધાર '  આપશે  ,  બીમાર ને  '' સ્વાસ્થય '' આપશે. આ  મૂર્તિઓ  તો  "  કલ્પવૃક્ષ  "  સમાન  હશે  ! તેના  સાંનિધ્ય માં  આપ  ઈચ્છો  તો  મેળવશો  ,  આવી  સ્થિતી  હશે. તે  જમાના ના  ઠુકરાવેલા  મનુષ્યોને   પણ  અપનાવશે .  તેમના  દ્વાર  ઉપર  "  ખોટા  સિક્કા "  પણ  ચાલવા  લાગશે  ,  બસ  ,  દર્શન  કરનાર  કેટલા  વિશ્વાસથી  આવે  છે , કેટલા  વિશ્વાસપૂર્વક  પોતાની  વાત  કહે  છે  , તેના  ઉપર  બધૂં  નિર્ભર  હશે. તે  તો  માધ્યમ  છે  ,  પરમાત્મા  જ  તેની  અંદર  બેસીને  બધું  સાંભળતા  હોય  છે , તેનો  અનુભવ  પણ  લોકોને  થશે.  જે  મનુષ્ય  કદાચ  પોતાના  અહંકાર ના  કારણે  તેમને  સમર્પિત  ન  થઈ  શક્યા  હોય  ,  તેઓ  પણ  તે  મૂર્તિરૂપી માધ્યમ ની  સામે  નમશે ,  તેટલા  જ તેઓ  ખાલી  થશે  અને  જેટલા  ખાલી  થશે  ,  તેટલા  જ  તેઓ  ચૈતન્ય થી  ભરાઈ  જશે . " તે  મૂર્

पूरे 24 घंटे में से सिर्फ 30 मिनिट, मैं जैसा बैठता हूँ वैसा बैठो

पूरे 24 घंटे में से सिर्फ 30 मिनिट, मैं जैसा बैठता हूँ वैसा बैठो । कोई देर नहीं हुई हैं। जब जागो तभी सबेरा। कुछ नहीं कल से चालू करो ना। कल से एक आधा घंटा बैठना चालू करो। बाकी सब मैं देख लूगा।अरे सिर्फ बैठो तो सही बाबा। तुम लोग ना इतने बदमाश हो , मैं तुमको 3:30 से 5:30 के बीच मे कई बार आकर उठाता हूँ। लेकिन तुम उठ करके फिर सो जाते हो। आप देखो बराबर कई बार आपकी नींद खुल जाती है, 3:30 और 5:30 इसके बीच के टाइम में खुलती है। थोड़ी सी भी अगर तुम्हारे मे इच्छा है, थोड़ी सी भी।एक कदम आप मेरी ओर चलो तो मैं 10 कदम आपकी ओर चलता हूँ। और आप को बराबर एक सही समय पे ,सही स्थान पर उठाता हूँ लेकिन उठाने के बाद भी आप फिर से सो जाते हो तो सोए हुए को कौन उठा सकता है। कभी भी देखो कभी भी ऐसी नींद खुले ना ,तो तुरंत उठ कर के बैठो और ध्यान करो, मेडिटेशन करो। स्वामीजी ने मुझे उठाया है नियमित ध्यान करो नियमित मेडिटेशन करो और उस मुक्त स्थिति को अपने इसी जीवन काल में प्राप्त करो।           ✍..बाबा स्वामी

ध्यान का प्रदर्शन

मुझे लगता है , 'ध्यान' का प्रदर्शन साधकों ने समाज में नहीं करना चाहिए और "मैं साधक हूँ" यह अहंकार भी बिल्कुल नहीं करना चाहिए । यह दोनों बातें आसपास के लोगों का नकारात्मक चित्त आपके ऊपर लाती । आप आपके परिवार में भी ध्यान करो तो चुपचाप करो ।आपके ध्यान से दूसरे को तकलीफ नहीं होनी चाहिए । ध्यान को छुपाने का भी नहीं हैं , लेकिन सामने वाला पूछे नहीं तब तक बताने का भी नहीं है । आप सभी को खूब-खूब आशीर्वाद !                             आपका ,                        बाबा स्वामी  मधुचैतन्य नवम्बर-दिसम्बर पेज 3⃣

प्रत्येक "स्त्री" शक्ति का स्वरुप

प्रत्येक "स्त्री" शक्ति का स्वरुप है, आप प्रत्येक "स्त्री" में उस शक्ति के दर्शन करो, "अरे बाबा पत्नी भी क्षणभर की प्रेयसी व् अनंतकाल की माता ही होती है l" स्त्री से पवित्र सम्बंध बनाओ और माँ से पवित्र कोई सम्बंध इस दुनिया में नहीं है l आप 45 दिन करके तो देखो प्रत्येक स्त्री में "माँ कुंडलिनी" नज़र आयेगी, जब यह दर्शन में कर सकता हूँ तो आप क्यों नहीं ? स्त्री का शरीर शक्ति का सुचालक है, वह शक्ति केवल ग्रहण ही नहीं करता संझौता है, निर्माण करता है और प्रसारित करता है l स्त्री शक्ति पर रखी गई तुम्हारी अच्छी या बुरी दृष्टि तुम्हे बना या बिगाड़ सकती है l स्त्री शक्ति स्वरूपा थी, है, और रहेगी l "बांटना स्त्री का मूल स्वभाव है", वह खाने से ज्यादा परोसने में ही आनंद प्राप्त करती है, यह प्रत्येक स्त्री में नैसर्गिक रूप से होता है l सद्गुरु श्री शिवकृपानंद स्वामीजी  गहन ध्यान अनुष्ठान 2008

प्रार्थना

जब भी कुछ भी , कोई भी बात , कोई भी व्यक्ति के कारण आपको लगे की आप असंतुलित हो रहे है तो कुछ भी नही करना है , आपको उसमें से चित्त निकालने के लिए केवल एक प्रार्थना करनी है । एक बहुत अच्छी -सी सकारात्मक प्रार्थना  - "हे गुरुदेव , इस व्यक्ति को सदबुद्धि दो , उसको अच्छा व्यवहार दो , व्यवहार अच्छा करना सिखाओ और मेरा चित्त जो उसमेँ गया है , मेरे चित्त में जो विचार बार -बार उसीके आ रहे है , वे विचार आप ही दूर कर सकते है । आप दूर कर दीजिए । " बस इतनी प्रार्थना करो । वंदनीय पूज्या गुरुमाँ गुरुपुर्नीमा - २०१३

मनुष्य का चित्त

मनुष्य  का  चित्त  मनुष्य  को  भटका  सकता  है । इसलिए  इस  आसक्ति  के  कारण  चीत्तरुपी  घोड़े  को  केवल  "संतोष " रूपी  लगाम  ही  रोक  सकती  है । ही.का.स.योग. खंड - 1 / पृष्ठ - 37

परमात्मा की कृपा

उस परमात्मा की कृपा का कौन कैसा उपयोग करता है, यह उस पर निर्भर होता।जीवन में परमात्मा सभी मनुष्यों को आध्यात्मिक प्रगति के समान अवसर देता है, परन्तु मनुष्य की लेने की स्थितियाँ अलग-अलग होती हैं।पत्येक मनुष्य को जीवन में समान अवसर प्राप्त होतें हैं जँगल प्रकृति के द्वारा निर्मित होने के कारण पर्यावरण में एक सन्तुलन बनाकर रखते हैं।मनुष्य स्वार्थी हैं, वह सदैव उन वनों का निर्माण करेगा जिससे उसको लाभ मिलेगा।इसी प्रकार के वन मनुष्य लगाता है।इसलिए वन प्रकृति के संतुलन का कार्य नहीं करते हैं । हि. का. स. यो.(1) पेज 38

पानी केवल शरीर को शुद्ध नहीं करता, बल्कि आत्मा को भी शुद्ध करता है

गुरुदेव की गुफा के आगे दाहिनी ओर एक जलप्रपात था। ऐसी ही एक सुबह थी। गुरुदेव ने कहा,"मैंने इसलिये तुम्हें उस जलप्रपात के पानी पर एकाग्रता करने के लिए कहा था क्योंकि पानी केवल शरीर को शुद्ध नहीं करता, बल्कि आत्मा को भी शुद्ध करता है, चित्त को भी शुद्ध करता है। और आध्यात्मिक प्रगति के लिए चित्तशुद्धि अत्यंत आवश्यक है। चित्तशुद्धि आध्यात्मिक प्रगतिरूपी भवन की आधार शिला हैं। बिना चित्तशुद्धि के आध्यात्मिक प्रगति संभव ही नहीं है। चित्तशुद्धि किए बिना आध्यात्मिक प्रगति की शुरुआत ही नहीं की जा सकती है। चित्तशुद्धि किए बिना हम हमारे काम के भी नहीं है और दूसरों के काम के भी नहीं हैं।" हि. का. स. यो.(1) पेज 42

आभामंडल

ये पशु-पक्षी भी उस आभामंडल का आनंद लेते है।अच्छे आभामंडल का प्रभाव सभी प्रकार के पशु-पक्षियों को आकर्षित करता है। यही कारण है कि जिस स्थान पर सुरक्षितता अनुभव होती है, पक्षी उसी स्थान पर अपने घोंसले बनाते हैं। अच्छे आभामंडल के प्रभाव में प्राणी को  सुरक्षितता अनुभव होती है और प्राणी को  उस स्थान पर अच्छा लगता है,इसलिए ध्यान किसी भी स्थान पर बैठकर नहीं करना चाहिए। इसलिए सदैव सद्गुरु-सानिध्य मै ध्यान-साधना सर्वश्रेष्ठ होती हैं हि. का. स. यो.(1)पेज 41011

तुम्हारे माध्यम से इस आत्मज्ञान को लाखों लोग प्राप्त करेंगे

तुम्हारे  माध्यम से इस आत्मज्ञान को लाखों लोग प्राप्त करेंगे , जो व्यक्ति तुम्हारे सामने आ गया , वह इसके योग्य ही है , अन्यथा वह सामने आएगा ही नहीं | और सामने आया भी तो वह टिकेगा नहीं | तुम तो सागर हो | तुम तक पापी व पुण्यवान दोनों पहुँच सकते हैं और तुम सागर की तरह दोनों को ह्रदय से अपनाओगे | पर टिकेगा वही जो आत्मज्ञान का बीज पाने योग्य होगा | आत्मज्ञान का बीज प्राप्त करना और उस बीज को अंकुरित करना ,इन दोनों के बीच काफी समय लगता है | कई बार तीन चार जन्म भी लग जाते है | ~स्वविचार युक्त हि.स.यो.१/२१०

२०१७ की सुबह दांडी आश्रम मे नये साल के महाध्यान के परम पुज्य स्वामीजी के प्रवचन के कुछ अंश

नियमित ध्यान से अपना आभामंडल का कमरा बनाओ। संयम का दुसरा नाम ही समर्पण है। संयम कर सकते है वही समर्पण कर सकते है। संयम ही आत्मा की पूजा है। संयम  शरीर, मन, बुध्दि और चित्त पर क्रमशः होता है। नियमित आधा घंटा अकेले मे और आधा घंटा सामुहिकता मे ध्यान करो। प्रयत्नों के बाद भी समर्पण क्यों नहीं हो रहा है? समर्पण करने के लिए मेरा अनुकरण करो। गहन ध्यान के ४५ दिन अनुकरण का नाटक करो, (१) किसीके प्रति दुर्भावना मत रखो। (२) कुछ भी पाने की इच्छा मत रखो। (३) अपेक्षा के साथ ध्यान मत करो। (४) ध्यान लगने की भी अपेक्षा मत करो l (५) नियमित ध्यान करो, खाना नही खाया चलेगा, नहाया नही तो चलेगा, कम सोया तो भी चलेगा लेकिन ध्यान में नियमित रहो। (६) जो कुछ आपके पास है उसे बाटो। (७) विश्व के प्रत्येक मनुष्य से प्रेम करने का नाटक ही करो, धीरे धीरे सही में प्रेम हो जायेगा । ~परम पूज्य सदगुरु श्री शिवकृपानंद स्वामीजी

भीतर 'ध्यान' का दिया

भीतर 'ध्यान' का दिया जला हो तो तुम चाहे पहाड़ पर रहो या बाज़ार में,कोई अंतर नहीं पड़ता।तुम्हारे पास 'ध्यान' हो तो कोई गाली तुम्हे छूती नहीं! ना अपमान, ना सम्मान, ना यश, ना अपयश,कुछ भी नहीं छूता।अंगारा नदी में फेंक कर देखो,जब तक नदी को नहीं छुआ, तभी तक अंगारा है, नदी को छूते ही बुझ जाता है।तुम्हारे ध्यान की नदी में, सब गालियाँ, अपमान, छूते ही मिट जाते हैं। तुम दूर अछूते खड़े रह जाते हो। इसी को परम स्वतंत्रता कहते हैं । जब बाहर की कोई वस्तु, व्यक्ति, क्रिया, तुम्हारे भीतर की शान्ति और शून्य को डिगाने में अक्षम हो जाती है। तब जीवन एक आनंद हो जाता है। ~सदगुरु

मैं एक शुद्ध आत्मा हूँ मैं एक शुद्ध आत्मा हूँ

जाति से भेदभाव  , धर्म  के भेदभाव  , देश के भेदभाव  , रंग के भेदभाव  , लिंग  के भेदभाव  , कुछ नही | ये सब भेदभाव  एटोमँटिकली समाप्त हो जाएगा जब आप मानेंगे कि आप एक पवित्र  आत्मा  हैं, वैसे ही आप महसूस करो - "मैं एक  शुद्ध आत्मा हूँ "|   शुद्ध आत्मा  हूँ यानी  ?  "मैं एक  शुद्ध आत्मा हूँ" यानी मैं एक  शुद्ध आत्मा के अलावा कुछ नहीं हूँ | ना मेरा कोई पद है , ना कोई मेरी शिक्षा है,  ना कोई मेरा रिश्तें हैं , ना कोई मेरा समाज है , ना मेरी कोई जाति है , ना देश है , कुछ नहीं है |आप इस स्तर पर तक पहुंँचा,  कि आप पुरूष है या स्त्री  है इसका भी अहसास आपको नही होना चाहिए  | ये शुद्धता का टोप लेवल.....  कि स्त्रीयाँ ध्यान  करें तो उसके याद नहीं रहना चाहिए  कि वो स्त्री है या पुरूष है , पुरूष ध्यान  करें तो उसके याद नहीं रहना चाहिए  कि वो पुरूष है कि स्त्री  है | "में शुध्ध आत्मा हूँ "| आत्मा ना स्त्री  होता है ना पुरूष होता है | ऐसा तीन बार ....... आप बोलकर के एक  आधा घण्टा ध्यान  करो | हाँ , दूसरा नियम है - नियमित  ध्यान  करनेका | इसके अंदर एक  दिन  का भी ब्रेक नही

प्रयोग

मैंने तुमको कितना भी बोला, "माँगो मत, माँगो मत।" मेरे को आज सुबह ध्यान में लगा, मैंने कितना भी बोला तो भी तुम सुनने वाले नहीं, तुम सुधरने वाले नहीं। तो आज सुबह ध्यान करते बैठा था, तो मेरे को एकदम नया आइडिया आया। तुम्हारी डिमांड के ऊपर आया, एकदम। तुमसे जैसे जुड़ा हुआ रहता हूँ ना, तुम्हारे सब छक्के-पंजे सब मेरे को समज में आते रहते हैं। अब तुमको रास्ता बताता हूँ कि तुम माँग भी नहीं रहे हो लेकिन मिल रहा है। इसका एक रास्ता बताता हूँ तुमको ध्यान में। मेडीटेशन्स करो, ध्यान करो .. हँ! समज लो तुमको कोई बीमारी है, हँ! तुम ये मत बोलो भगवान को कि मेरी बीमारी ठीक कर दो .. फिर माँगना हो गया ना! आप मन ही मन प्राथॅना करो - "मैं पहले से अधिक स्वस्थ हो रहा हूँ। मैं पहले से अधिक स्वस्थ हो रहा हूँ। मैं पहले से अधिक स्वस्थ हो रहा हूँ।" ध्यान के बाद ऐसी प्राथॅना करो। दुसरा, वो बीमारी को नाम याद करने की जरूरत नहीं है। कौनसी बीमारी है वो ना मैंने पूछा आपको ना आप बताने की जरूरत है। मै स्वस्थ हो रहा हूँ - ये पूणॅ भाव के साथ, पूणॅ एकाग्रता के साथ ध्यान में अगर एक मेसेज देते हो न, तो ये मेसेज

चित्त मोक्ष का द्वार है

11) वास्तव में मोक्ष ध्यान की उच्च स्थिति है, उच्च कक्षा है | और यह स्थिति पाने के लिए आपके पास जीवंत शरीर की आवश्यकता होती है | 12) याने बिना शरीर के मोक्ष की स्थिति प्राप्त नहीं की जा सकती है | उस स्थिति को पाने के लिए शरीर का होना आवश्यक है | 13) मोक्ष ध्यान की उच्च अवस्था है | यह जीते-जी ही प्राप्त करनी होती है | मुक्त होती है, वह है आत्मा | वह कभी मरती नहीं है | और जो मरता है, वह है शरीर | यानि शरीर के मरने के पूर्व आत्मा से मुक्त हो जाना ही मोक्ष है और मुक्त, शरीर होते हुए होना चाहिए | 14)  सरल शब्दों में कहें तो जीते-जी मर जाना ही मोक्ष है | 15) याने आप जीवित है और सब बातों से विमुक्त हो गए हो कहीं भी अटके नहीं हो, ऐसी स्थिति जैसी एक पवित्र, शुद्ध आत्मा की हो | 16) मनुष्य की सबसे बड़ी लालसा - और जीवित रहने की है | बिल्कुल कब्र में ही पैर लटक रहे हो, मनुष्य और जीना चाहता है | 17) और यह और जीवित रहने की अतृप्त इच्छा ही उसके दूसरा जन्म लेने का कारण बनती है | 18) शरीर तो साथ नहीं दे रहा है, लेकिन फिर जीवित रहने की लालसा अभी बाकी है, तो उस लालसा को पूर्ण करने के लिए आ

हम अगर चित के ध्वारा , नामजाप

हम अगर चित के ध्वारा , नामजाप के ध्वारा , मंत्र के ध्वारा  , किसी भी तरीके से सद्गुरु जुड़ जाते हैं तो जुड़ने के साथ-साथ हम उनकी स्थिति से भी जुड़ जाते हैं | महत्व सद्गुरु के शरीर का नहीं है, उनकी आध्यात्मिक स्थिति का होता है | हम उनकी आध्यात्मिक स्थिति से जुड़ जाते हैं और फिर वे शरीरभाव से परे होते हैं तो हम भी उनके सानिध्य में अपने-आपको शरीरभाव से परे महसूस करने लग जाते हैं | जब शरीर का भाव ही कम हो गया तो शरीर किस परिस्थिति में से गुजर रहा है , इसका क्या महत्व है ? क्योंकि फिर हम केवल शरीर से परिस्थिति में से निकलते रहते हैं लेकिन हमारा चित उन खराब परिस्थितियों में नहीं होता है तो हमें उन परिस्थितियों का एहसास नहीं होता है |    हि.स.यो-५|  पृ-२९७

प्रतिदिन परमेश्वर का आभार व्यक्त करना

प्रतिदिन परमेश्वर का आभार व्यक्त करना । जिसने आपको सूर्योदय देखनेका सौभाग्य प्राप्त किया , परमात्माने जो भी कुछ जीवन में दिया है , उसके प्रति आभार व्यक्त करना । आज का दिन मेरी लिए "शुभ् " होगा "मंगल " होगा , चैतन्यपूर्ण उत्साह वाला होगा । आज मुझे कुछ नई अनुभुतिया होने वाली होगी । आज मुझे कुछ अच्छे अनुभव होने  वाले  होंगे ऐसा "पवित्र और शुद्ध "  भाव रखकर दिन का प्रारंभ करना है ।अनुभूतियाँ सदैव "वर्तमान " में रहनेवालों को ही होती है । इसलिए आज़ मैं पूरे दिन वर्तमान समय में रहूँ ताकि चैतन्य सदैव अनुभव होता रहे । आज़ ही मैं जन्मा हूँ , य़ह मानना तो एक ओर "भूतकाल " समाप्त हो जाता है , दूसरी ओर ज्ञान ग्रहण करने के लिए हमारी "गुणग्राहकता " रीसीव्हीण्ग बढ़ जाती है । जब लगाई मैंने गूरूदरबार में अर्जी है । अब जो भी हो मंजूर गुरु की मर्जी है ॥ ऐसा कहकर परिस्थिति को स्वीकार कर लो । ✍-पूज्य गुरुमाऊली        १५/१/२०१९                

मोक्ष क्या है ?

प्रश्न 52 : - मोक्ष क्या है ? स्वामीजी : - मोक्ष ध्यान की उच्च अवस्था है | यह जीते-जी ही प्राप्त करनी होती है | मुक्त होती है, वह है आत्मा | वह कभी मरती नहीं है | और जो मरता है, वह है शरीर | यानी शरीर के मरने के पूर्व आत्मा से मुक्त हो जाना ही मोक्ष है और मुक्त, शरीर होते हुए होना चाहिए | ...सरल शब्दों में कहे तो जीते-जी मर जाना ही मोक्ष है | अगर जीवनकाल में ही वह स्थिती प्राप्त हो जाए कि और जीने की भी लालसा जीवन में न रही हो, तो कोई कारण ही नहीं रह जाता कि मनुष्य दूसरा जन्म ले | यह संपूर्ण तृप्त स्थिती ही मोक्ष की स्थिती है | चैतन्य धारा

Q AND A

પ્રશ્ન 28: ગુરુમંત્ર આત્મસાત્ કરવો એટલે શું? સ્વામીજી : ગુરુમંત્ર ફક્ત કેટલાક શબ્દોનો સમૂહ નથી, ગુરુમંત્ર તે પવિત્ર ગુરુઓના ત્યાગનો, તપસ્યાનો, સાધનાનો એક સજીવ સ્ત્રોત છે. તેની અંદર પ્રત્યેક શબ્દમાં એક ચૈતન્ય શક્તિ ભરેલી છે. તે જ કારણે તે મંત્રને આત્મસાત્ કરવો એટલે તે મંત્રના માધ્યમ દ્વારા પોતાના અસ્તિત્વને વિશ્વચેતનામાં મર્જ(વિલીન) કરવું છે. આ મંત્રની ઉર્જા ઉધ્વગામી છે. ઉધ્વગામી એટલે એક લેવલથી બીજા લેવલ સુધી, બીજા લેવલથી ત્રીજા લેવલ સુધી આવા સાત પગથિયાં પાર કરીને આ મંત્ર આપને એક શૂન્યની અવસ્થા પ્રદાન કરે છે. જે ધ્યાનથી પણ ઉપરની એક સ્થિતિ છે. નિર્વિચારતાથી પણ ઉપરની એક સ્થિતિ છે. આ ફક્ત શબ્દોનો સમૂહ નથી. તેની ઉર્જાની સાથે, તેની શક્તિની સાથે જોડાવું જ તેને આત્મસાત્ કરવું છે. મેં મારા જીવનમાં 'શ્રી શિવકૃપાનંદ સ્વામી' આ નામ કદી પણ નથી સાંભળ્યું. આપે સાંભળ્યું હોય તો ખબર નથી. શિવાનંદ હશે, કૃપાનંદ હશે, પરંતુ સંપૂર્ણ એક નામ... આ નામની અંદર સંપૂર્ણ ઉર્જા ભરેલી છે અને એક સ્થાનથી બીજા સ્થાન સુધી ફક્ત તે ઉર્જાના માધ્યમ દ્વારા આપણે પહોંચી શકીએ છીએ. આવા ઉર્જા ભરેલા મંત્રનું માધ્યમ બનાવીન