भीतर 'ध्यान' का दिया
भीतर 'ध्यान' का दिया जला हो तो तुम चाहे पहाड़ पर रहो या बाज़ार में,कोई अंतर नहीं पड़ता।तुम्हारे पास 'ध्यान' हो तो कोई गाली तुम्हे छूती नहीं! ना अपमान, ना सम्मान, ना यश, ना अपयश,कुछ भी नहीं छूता।अंगारा नदी में फेंक कर देखो,जब तक नदी को नहीं छुआ, तभी तक अंगारा है, नदी को छूते ही बुझ जाता है।तुम्हारे ध्यान की नदी में, सब गालियाँ, अपमान, छूते ही मिट जाते हैं। तुम दूर अछूते खड़े रह जाते हो। इसी को परम स्वतंत्रता कहते हैं । जब बाहर की कोई वस्तु, व्यक्ति, क्रिया, तुम्हारे भीतर की शान्ति और शून्य को डिगाने में अक्षम हो जाती है। तब जीवन एक आनंद हो जाता है।
~सदगुरु
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