कर्म का चक्र
पूर्वजन्म के अगर अच्छे
कर्म भी संचित हैं तो उन अच्छे
कर्मों का फल भोगने हम दूसरे
जन्म लेना पड़ता है। और अच्छे
फल कब समाप्त हो जातेहैं, पता
ही नहीं चलता। और उसी जन्म
में हम बुरे कर्म कर देते हैं और
फिर दूसरा जन्म बुरे कर्मों को भोगने
के लिए लेते हैं। और यह कर्म का चक्र
सदैव चलता ही रहता है।" "इसलिए
केवल साक्षात्कार और ध्यानसाधना
काफी नहीं है। निष्काम कर्म और
वासनरहित जीवन भी आवश्यक है।
यह मनुष्य शरीर मोक्ष को पाने का
साधना भी है, यह मनुष्य शरीर मोक्ष
के मार्ग की बाधा भी है। क्योंकि
एक ओर जहाँ शरीर धारण किए बिना
साधना नहीं की जा सकती, वहीं दूसरी
ओर मनुष्य शरीर धारण करने पर
वासनाएँ भी जागृत होती हैं और
कर्म भी होते ही हैं। वे अच्छे कर्म होंगे
तो भी हम उस कर्म के चक्र में
आएँगे और बुरे कर्म होंगे तो भी उस
कर्म के चक्र में आएँगे। यानी यह मानव
शरीर जहाँ एक ओर हमारे भीतर
वासनाओं को निर्मित करता है, वहीं
दूसरी ओर कर्म करवाता है। इन
दोनों से बचकर मनुष्यजीवन को केवल ध्यानसाधना में लगना अत्यंत कठिन है।
इसमे से निकलने का एक ही मार्ग है,
वह है-सद्गुरु को अपना जीवन संपूर्णतः समर्पित कर देना। इसका (गुरु का)
एहसास करने मात्रा से भी एक दिन
कोई सामान्य मनुष्य के रूप में
आप जैसा साधारण सा व्यक्त्ति आपका
जीवन में आएगा।
हि .स. यो-४
पुष्ट- ५६
कर्म भी संचित हैं तो उन अच्छे
कर्मों का फल भोगने हम दूसरे
जन्म लेना पड़ता है। और अच्छे
फल कब समाप्त हो जातेहैं, पता
ही नहीं चलता। और उसी जन्म
में हम बुरे कर्म कर देते हैं और
फिर दूसरा जन्म बुरे कर्मों को भोगने
के लिए लेते हैं। और यह कर्म का चक्र
सदैव चलता ही रहता है।" "इसलिए
केवल साक्षात्कार और ध्यानसाधना
काफी नहीं है। निष्काम कर्म और
वासनरहित जीवन भी आवश्यक है।
यह मनुष्य शरीर मोक्ष को पाने का
साधना भी है, यह मनुष्य शरीर मोक्ष
के मार्ग की बाधा भी है। क्योंकि
एक ओर जहाँ शरीर धारण किए बिना
साधना नहीं की जा सकती, वहीं दूसरी
ओर मनुष्य शरीर धारण करने पर
वासनाएँ भी जागृत होती हैं और
कर्म भी होते ही हैं। वे अच्छे कर्म होंगे
तो भी हम उस कर्म के चक्र में
आएँगे और बुरे कर्म होंगे तो भी उस
कर्म के चक्र में आएँगे। यानी यह मानव
शरीर जहाँ एक ओर हमारे भीतर
वासनाओं को निर्मित करता है, वहीं
दूसरी ओर कर्म करवाता है। इन
दोनों से बचकर मनुष्यजीवन को केवल ध्यानसाधना में लगना अत्यंत कठिन है।
इसमे से निकलने का एक ही मार्ग है,
वह है-सद्गुरु को अपना जीवन संपूर्णतः समर्पित कर देना। इसका (गुरु का)
एहसास करने मात्रा से भी एक दिन
कोई सामान्य मनुष्य के रूप में
आप जैसा साधारण सा व्यक्त्ति आपका
जीवन में आएगा।
हि .स. यो-४
पुष्ट- ५६
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