स्वामीजी का आत्मसाक्षात्कार तक का सफर
स्वामीजी का आत्मसाक्षात्कार तक का सफर - १
और जब भी परमात्मा को याद करता था, परमेश्वर को पाने की इच्छा करता था तो मेरे ध्यान के अंदर तीन चित्र लगातार चित्त में आते थे - एक पशुपतिनाथ का नेपाल का मंदिर आता था, एक खूब लंबे दाढीवाले, ऊँचे-पूरे कोई बाबाजी आते थे और तीसरा एक टेकड़ीनुमा पहाड़ के ऊपर कोई शिवमंदिर आता था। ये तीनों बातें चित्त में भी आती थीं, सपने में भी आती थीं, बार-बार आती थीं। ये क्या प्रकार है, मुझे कुछ भी मालूम नहीं था, कुछ भी नहीं समझता था।
लेकिन एक बार कंपनी के ही काम से कानपुर
जाना हुआ और कानपुर में एक कंचन हॉटेल है, उस हॉटेल के अंदर रुका हुआ था, रेल्वे स्टेशन के ही रोड पे। बैंकों की स्ट्राइक हो गई। यानी बाजार का, मार्केट का कुछ काम होने वाला नहीं था। चार-पाँच दिन ऐसे ही बेकार थे। तो मेरे मन में एकदम अचानक वो पशुपतिनाथ की याद आ गई। अरे बार-बार चलो पशुपतिनाथ जाने की इच्छा हो रही है, चलो ये चार-पाँच दिन में पशुपतिनाथ जाके आते हैं। (Cont..)
जाना हुआ और कानपुर में एक कंचन हॉटेल है, उस हॉटेल के अंदर रुका हुआ था, रेल्वे स्टेशन के ही रोड पे। बैंकों की स्ट्राइक हो गई। यानी बाजार का, मार्केट का कुछ काम होने वाला नहीं था। चार-पाँच दिन ऐसे ही बेकार थे। तो मेरे मन में एकदम अचानक वो पशुपतिनाथ की याद आ गई। अरे बार-बार चलो पशुपतिनाथ जाने की इच्छा हो रही है, चलो ये चार-पाँच दिन में पशुपतिनाथ जाके आते हैं। (Cont..)
समर्पण ग्रंथ - १२३
(समर्पण "शिर्डी" मोक्ष का द्वार है।) पृष्ठ:७०-७१
स्वामीजी का आत्मसाक्षात्कार तक का सफर - २
तो हॉटेल वाले को बोला, "कोई भी कंपनी से फोन आए तो कहना, बाहर गए हैं और मैं बाहर जा रहा हूँ, वापस आऊँगा।" रूम खाली नहीं की थी, रूम वैसे ही रखी थी। दूसरा, घर पे भी कुछ नहीं बताया। सीधे वहाँ से गोरखपुर गया। कानपुर से गोरखपुर गया, गोरखपुर से भैरवा करके एक जगह है वहाँ गया। एक सोनाली करके चेक पोस्ट है उस चेक पोस्ट पे उतरकरके भैरवा गया। वहाँ से बस पकड़ी। सुबह बस पकड़ी छः बजे। वो बोले, "दस बजे काठमांडू पहुँच जाएगी।" बारा (बारह) बज गए, एक बज गए तो भी काठमांडू का कोई अता-पता नहीं था। वो कंडक्टर को मैंने पूछा, "तू तो बोला था कि दस बजे पहुँच जाएगी।" बोले, "दिन के थोड़ी, रात के दस बजे पहुँचेगी।" वहाँ अर्थ रोड था, पृथ्वी रोड बोलते हैं उसको, पूरा इतना धूल उड़ता था कि एक बस चली जाए तो एखाद (करीब एक) किलोमीटर तक जाने के बाद में दूसरी बस जाती थी, खूब धूल उड़ती थी उसके ऊपर। तो काठमांडू में पहुँचे, वहाँ एक हॉटेल के अंदर रुका। दूसरे दिन सबेरे पशुपतिनाथ के दर्शन को गया। (Cont..)
समर्पण ग्रंथ - १२४
(समर्पण "शिर्डी" मोक्ष का द्वार है।) पृष्ठ:७१
स्वामीजी का आत्मसाक्षात्कार तक का सफर - ३
तो जैसे ही पशुपतिनाथ के दर्शन को गया तो वहाँ के पंडित जी मेरा ही इंतजार कर रहे थे, मेरी ही राह देख रहे थे। मैंने उनको कहा कि मेरे को रुद्राभिषेक करने की इच्छा है। तो बोले, "हमें मालूम है। तुम यहाँ आने वाले हो, ये भी मालूम है।" तो उल्टा मैं घबरा गया कि मैंने तो किसी को बताया नहीं था, घर पे नहीं बताया, ऑफिस में नहीं बताया, इनको कैसे पता चल गया? तो मैंने पूछा, "आपको कैसे पता चला? मैंने तो किसी को नहीं बताया। मेरे सिवाय ये प्लान किसी को भी मालूम नहीं था कि मैं नेपाल जा रहा हूँ।" उन्होंने बोला, "एक नेपाली वृद्ध सज्जन यहाँ आकरके तीन दिन से तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं। और उन्होंने आपके आने की सूचना दी थी।" तो रुद्राभिषेक तो किया लेकिन मेरा चित्त, मेरा ध्यान वो रुद्राभिषेक में नहीं था। मेरे को ऐसा लग रहा था - कौन सज्जन हैं? कौन हैं जो मुझे मिलने के लिए आए हैं? मैं तो यहाँ आया नहीं, आज तक कभी नेपाल नहीं आया। तो बाहर जाकर देखा, सचमुच एक वृद्ध
सज्जन नेपाल के वहाँ पे बैठे हुए थे। (Cont..)
सज्जन नेपाल के वहाँ पे बैठे हुए थे। (Cont..)
समर्पण ग्रंथ - १२५
(समर्पण "शिर्डी" मोक्ष का द्वार है।) पृष्ठ:७१-७२
स्वामीजी का आत्मसाक्षात्कार तक का सफर - ४
उन्होंने कहा, "मैं शिबू नाम के एक गाँव से आया हूँ। दूर गाँव है और वहाँ पे एक पहाड़ी है। उस पहाड़ी के ऊपर एक गुफा है। उस गुफा में एक बाबा कभी-कभी प्रकट होते हैं और जब वो प्रकट होते हैं तो हमारे यहाँ उत्सव का वातावरण रहता है। उनको हम 'शिवबाबा' कहते हैं। उनका नाम क्या है हमको भी पता नहीं। लेकिन जब गए बार वो प्रकट हुए थे तो उन्होंने ये तारीख और ये समय दिया था, इस समय तुम आओगे और तुमको लेने के लिए मुझे भेजा है।" मुझे और रहस्यमय लगा। नेपाल कभी आया नहीं, नेपाल किसी को जानता नहीं, नेपाल किसी को पहचानता नहीं! और कौन मुझे बुला रहा है और कौन जान रहा है कुछ पता नहीं था। उसके बाद में उस.. नहीं लेकिन ये सब बातें ऐसी रहती हैं, माने वशीकरण सरीके, एकदम, दिमाग एकदम बंद हो जाता है और अपुन पागल सरीके उसके साथ में चल देते हैं। उसके साथ चल दिया। बस से सफर किया, उसके बाद में पैदल सफर किया। पैदल, पैदल, पैदल, पैदल खूब दूर तक लेके गया। फिर एक छोटा-सा गाँव था। उस गाँव में एक छोटा मंदिर था, शिवमंदिर। (Cont..)
समर्पण ग्रंथ - १२६
(समर्पण "शिर्डी" मोक्ष का द्वार है।) पृष्ठ:७२
स्वामीजी का आत्मसाक्षात्कार तक का सफर - ५
उस मंदिर के ओटले पे मुझे रुकाया। बोले, "कल सबेरे अपुन पहाड़ पे जाएँगे।" तो हिमालय का पहाड़ था। उस
पहाड़ी के ऊपर सुबह के दिन खूब ऊपर मुझे लेके गया और एक पत्थर पे ले जाके बिठा दिया। बोले, "बस, यहीं बैठो, यहीं इंतजार करो। वो यहीं आके आपको मिलेंगे, वो सामने गुफा दिख रही है ना, वो गुफा में वो रहते हैं।" सुबह से शाम तक बैठा ही रहा। शाम को बिल्कुल अँधेरा होने को था तो उस समय देखा, एक वृद्ध सज्जन उस गुफा में से बैठकरके बाहर निकल रहे थे। और जैसे ही गुफा में से बाहर निकले तो काफी लंबे थे, काफी ऊँचे थे! पूरा गौर वर्ण था, खूब सफेद बाल थे, खूब लंबे थे और धीरे-धीरे, धीरे वो मुस्कुराते हुए मेरे पास आने लग गए और जैसे ही पास में आए मैंने यंत्रवत उनको साष्टांग दंडवत किया। मैं पहचान गया कि ये वही साधु है जो मेरे सपने में आता है, मेरे चित्त में बार-बार आता है। और उन्होंने उठाकरके मुझे गले लगाया, "चालीस साल से तेरा मैं यहाँ इंतजार कर रहा हूँ।" मुझे और आश्चर्य लगा। वो मुझे अपनी गुफा के अंदर ले गए। (Cont..)
पहाड़ी के ऊपर सुबह के दिन खूब ऊपर मुझे लेके गया और एक पत्थर पे ले जाके बिठा दिया। बोले, "बस, यहीं बैठो, यहीं इंतजार करो। वो यहीं आके आपको मिलेंगे, वो सामने गुफा दिख रही है ना, वो गुफा में वो रहते हैं।" सुबह से शाम तक बैठा ही रहा। शाम को बिल्कुल अँधेरा होने को था तो उस समय देखा, एक वृद्ध सज्जन उस गुफा में से बैठकरके बाहर निकल रहे थे। और जैसे ही गुफा में से बाहर निकले तो काफी लंबे थे, काफी ऊँचे थे! पूरा गौर वर्ण था, खूब सफेद बाल थे, खूब लंबे थे और धीरे-धीरे, धीरे वो मुस्कुराते हुए मेरे पास आने लग गए और जैसे ही पास में आए मैंने यंत्रवत उनको साष्टांग दंडवत किया। मैं पहचान गया कि ये वही साधु है जो मेरे सपने में आता है, मेरे चित्त में बार-बार आता है। और उन्होंने उठाकरके मुझे गले लगाया, "चालीस साल से तेरा मैं यहाँ इंतजार कर रहा हूँ।" मुझे और आश्चर्य लगा। वो मुझे अपनी गुफा के अंदर ले गए। (Cont..)
समर्पण ग्रंथ - १२७
(समर्पण "शिर्डी" मोक्ष का द्वार है।) पृष्ठ:७२-७३
स्वामीजी का आत्मसाक्षात्कार तक का सफर - ६
गुफा अंदर से बहुत बड़ी थी, बहुत विशाल थी। एक त्रिशूल था, एक यज्ञ कुंड था, एक ओटला था। उस ओटले पे वो बैठते थे, वहीं सोते थे, वहीं रहते थे।
दूसरे दिन सबेरे उन्होंने मेरे सिर के ऊपर पानी डालके हाथ रख दिया। उसके बाद में क्या हुआ मुझे कुछ पता नहीं। तीन दिन के लिए समाधि लग गयी थी। और तीन दिन के बाद जब उठा तो उन्होंने कहा, "तेरे कुछ भोग अभी बाकी हैं, वो भोग भोगने के बाद में तू भी साधु बनेगा।" जबकि साधु से मेरा दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं था। उन्होंने कहा, "मैं भावनगर का रहने वाला हूँ और तेरा कार्यक्षेत्र गुजरात है। तू गुजरात में जाके कार्य करेगा।" बाप जन्म में कभी गुजरात गया नहीं था। गुजरात का नाम भी नहीं सुना था। "और चालीस साल से मेरे गुरुओं ने कुछ ज्ञान, कुछ नॉलेज तुझे सौंपने के लिए दिया हुआ है, वो आज मैं तुझे सौंप रहा हूँ, मैंने मेरा सर्वस्व तुझे दे दिया है। अब मेरे जीवन का उद्देश्य समाप्त हो गया, मैं समाधिस्थ हो रहा हूँ। मैं मेरे प्राण त्याग कर रहा हूँ।" एकदम सब आश्चर्य- जनक एक-एक, एक-एक, एक-एक बातें सामने आ रही थीं।और उन्होंने वास्तव में दूसरे दिन अपने प्राण त्याग दिए। फिर बाद में सब गाँव के लोग आए, उनका दाह-संस्कार हुआ, सब हुआ। ये घटना चालीस साल पहले की है।
समर्पण ग्रंथ - १२८
(समर्पण "शिर्डी" मोक्ष का द्वार है।) पृष्ठ:७३-७४
Comments
Post a Comment