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Showing posts from February, 2017

सदगुरु कभी भी केवल आशीर्वाद देकर मुक्त नही होते

सदगुरु कभी भी केवल आशीर्वाद देकर मुक्त नही होते , आशीर्वाद संपूर्णत: फलीभुत करते है । और जबतक उनका आशीर्वाद फलीभुत नही होता , वे सतत उस आत्मा का ध्यान रखते है । ही..स..योग..[ ५ ]

आध्यात्मिक सत्य

परमात्मा के स्वरूप को समझे बिना परमात्मा की अनुभूति संभव नही है । जब मनुष्य के प्रयत्न असफल हो जाते है और " मै " का अहंकार टूट जाता है तब उसे उस परमपिता परमेश्वर की याद आती है । हम पास के परमात्मा को छोड़कर बाहर के परमात्मा की खोज में समय बर्बाद करते है । कोई भीतर पहुँचा हुआ माध्यम ही हमे भीतर की परमात्मा तक ले जा सकता है । आध्यात्मिक सत्य

प्रत्येक आत्मा को अपना संपूर्ण चक्र पार करके भोग भौगना ही होते है

प्रत्येक आत्मा को अपना संपूर्ण चक्र पार करके भोग भौगना ही होते है । कोई सदगुरु मिल जाएँ तो उनकी संगत में मनुष्य के भोग कम होने की संभावना होती है । सदगुरु मिले तो ही भोगों से मुक्ति संभव है । - ही..स..योग...[ ५ ]

मनुष्य की प्रथम अवस्था नव माह माँ के गर्भ में गुजरी होती है और इसीलिए व्रुद्धावस्था में भी माँ ही याद आती है ।

ऐसा लगता है की प्रत्येक का अपनी माँ के साथ नाल का संबंध होता है । इसलिए मनुष्य का जीवन जैसे -जैसे समाप्ति की और होता है , वैसे -वैसे उसका प्रथम सिरा उसके करीब होने लगता है । मनुष्य की प्रथम अवस्था नव माह माँ के गर्भ में गुजरी होती है और इसीलिए व्रुद्धावस्था में भी माँ ही याद आती है । ही..स..योग [ ५ ]

परमात्मा एक वैश्विक चेतनशक्ति है।

परमात्मा एक वैश्विक चेतनशक्ति है। और जिन्हें हम परमात्मा मानते हैं वे उस शक्ति के माद्यम हैं, परमात्मा नहीं। क्योंकि परमात्मा का कोई रूप है ही नहीं, वह निराकार है। और जो दिखता है, वह माध्यम है। परमात्मा से प्रत्येक आत्मा जुड़ी है। अब बता , ये सब जीवन के एक प्रकार के निष्कर्ष ही हैं न! मेरी नानी ने जीवन में अनुभव के आधार पर मेरे बालमन में यह आध्यात्म का बीज बोया। जब समूचे आध्यात्म का निचोड़ ही प्राप्त हो गया हो तो जीवन में फिर रह जाती है सिर्फ अनुभूति , उस परमात्मा की अनुभूति। और फिर जीवन में अनुभूति को ही खोजता रहा। पुस्तकें निर्जीव हैं, वे अनुभूति नहीं करा सकतीं। और इसलिए। मैं जीवन में पुस्तकों की ओर कभी आकर्षित नहीं हुआ। ये सब बातें सारे पुस्तकों और शास्त्रों का निचोड़ है। पुस्तकें मनुष्य को दिशाज्ञान करतीं हैं कि उसे किस ओर जाना चाहिए। लेकिन उनकी मजबूरी है कि वे हमें लेकर नहीं जा सकतीं, जाना हमें ही पड़ता है। और दिशाज्ञान तो मुझे पहले ही हो चुका था, इस

इच्छा भौतिक स्वरूप की होगी तो हमारी प्रगति भौतिक जगत की ओर हो जाएगी

हम गुरु के पास भी कोई ' अपनी इच्छा ' लेकर गए तो हो सकता है , गुरु की सकारत्मक शक्ति से वह पूर्ण भी हो जाए लिकन अगर हमारी अपनी इच्छा भौतिक स्वरूप की होगी तो हमारी प्रगति भौतिक जगत की ओर हो जाएगी | इससे हमारी प्रगति तो होगी लेकिन गलत दिशा में होगी और भौतिक जगत में तो समाधान कहीं है ही नहीं ! आप सद्गुरु के दरबार में क्या माँगते हो, इसी पर आपकी प्रगति निर्भर करती है क्योंकि उस माँगने पर आपकी दिशा तय होती है , गुरु तो उस दिशा में केवल धकेल देते हैं | गुरु का कार्य है धक्का देना | अब, हम जिस ओर अपना मुँह रखेंगे , वह उस ओर धक्का देंगे ! इसलिए, सद्गुरु के सानिध्य में हमारा मुँह किस ओर है , यह बड़ा महत्वपूर्ण होता है क्योंकि हम भविष्य में उस ओर पहुँचने वाले होते हैं | हम ही हमारी दिशा तय करते हैं , धक्का देने का कार्य सद्गुरु का होता है | और कई बार, किस दिशा में आगे बढ़ना है , यह हमें पता नहीं होता और सद्गुरु से गलत दिशा में धक्का माँगकर हम कुएँ में गिर जाते हैं | ऐसी स्थिति से अच्छा होगा कि आप सद्गुरु से प्रार्थना करें - *आपकी इच्छानुसार हो, आपकी इच्छा हो तो हो और न हो

आत्मा 28/2/17

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आत्मा अतिसूक्ष्म शक्ति है

आत्मा अतिसूक्ष्म शक्ति है जो देखी नहीं जा सकती, केवल अनुभव की जा सकती है, श्रद्धा रखकर मानी जा सकती है। - हिमालय का समपॅण योग, भाग 1, पृष्ठ 299

जीवन में सदैव कोई न कोई समस्या रहती ही है

ही..स..योग..[ ५ ] जीवन में सदैव कोई न कोई समस्या रहती ही है । हम उस समस्या का सामना किस प्रकार करते है , यह महत्वपूर्ण है । प्रत्येक समस्या कुछ समय के बाद समाप्त हो जाती है । अपने इष्टदेव पर विश्वास रखो और संपूर्ण समर्पित होकर अपने जीवन की डोर उस परमात्मा पर सौंप दो , जो आत्मा के रूप में भीतर बैठा है ।

गुरु पोर्णिमा २ ० १ १

स्वर्ग सकारात्मक सोच के साथ होता है तथा नर्क नकारात्मक सोच के साथ । गुरुदेव के सामने दीपक जलाकर क्षमा करवाने की , भूलवा देने की प्रार्थना बार बार कीजिए । तो हमारे अंदर स्वर्ग की स्थापना हो सकती है । ११ बार गुरुमंत्र बोलकर सोये तो गहरी नींद में आपका क्लीआरन्स होता है ।  हम पिछले जन्म में मोक्ष के द्वार तक आकर ठहर गये थे ।उस स्थिती तक पहुँचने के लिये हम गुरुदेव तक आये है । अगर इस जन्म में भी नही पहुँच पाये तो ये हमारा बहुत बड़ा दोष होगा । इसलिए रोज सुबह शाम चित्त की धुलाई करते रहो । पूज्या गुरु माँ गुरु पोर्णिमा २ ० १ १

परमात्मा का कोई आकार नहीं है

परमात्मा का कोई आकार नहीं है, इसीलिए वह दिख नहीं सकता। वह शक्ति के रूप में होता है, इसीलिए केवल अनुभव हो सकता है। इसीलए सदगुरू के प्रत्येक व्यवहार से परमात्मा की शक्ति बहती रहती है, पर उनके व्यवहार पर ध्यान न रखकर हमर वह अनुभव करनी होती है। यह होता तो बड़ा कठिन है की जो दिख रहा है, उस से आँखे मूँदना और जो नहीं दिख रहा है, वह अनुभव करना। बस यही तो अभ्यास करना होता है। जिसे यह अभ्यास करना आ गया, समझ लो, उसे फिर सब आ गया।  * HSY 1 pg 323

आध्यात्मिक सत्य

वास्तव में स्वीकार करने के अलावा जीवन में कोई रास्ता नही है ।  जीवन में दुःख मिला वह स्वीकार है । "प्रभु ,तेरी जैसी इच्छा ! तेरी इच्छा के आगे किसी की कभी चलती है ? मुझे वह भी स्वीकार है ।" स्वीकार करो और शांत रहो । जीवन में सुख मिला "प्रभु , तेरी क्रुपा से मिला है ,स्वीकार है "। समर्पण ध्यान सुख और दुःख से ऊपर की स्थिती है । इसमें दोनो स्वीकार है । आध्यात्मिक सत्य 

आध्यात्मिक साधना में रत व्यक्ति के लिए मांसाहार योग्य नहीं हे।

आध्यात्मिक साधना में रत व्यक्ति के लिए मांसाहार योग्य नहीं हे। क्यूँकि आध्यात्मिक साधना कर मनुष्य अपने भीतर की सजीव शक्तियों को जागृत करता हे, अपनी ऊर्जा को जीवित कार्य है, तो उस ऊर्जा को सजीव करते समय वह बाहर से प्राणीयो को, मछलियों को खाकर उनके शरीर के माध्यम से मारी हुई ऊर्जा कैसे ग्रहण कर सकता है? इसीलए मांसाहार योग्य नहीं है। मनुष्य हिंसक नहीं है। यह उसका मूल स्वभाव है। और हिंसा करना मनुष्य के मूल, शुद्ध स्वभाव के विरुद्ध है।  * HSY 1 pg 317-318

वास्तव में , जिवंत गुरू निमित्य है

" वास्तव में , जिवंत गुरू निमित्य है । वे आत्मजाग्रुती कराते नही बल्कि उनके सानिध्य में आत्मजाग्रुती होती है । उनके बिना आत्मजाग्रुती संभव नही है । यह ठीक वैसा ही है , जैसे हमारे बैंक के लॉकर में हमारे बहुमूल्य जेवर रखे गए है और जब तक बॅंक म्यानेजर अपनी चाबी लॉकर में नही लगाता , हम लॉकर खोल कर जेवर नही ले सकते है । जेवर पर अधिकार हमारा है लेकिन फिर भी बैंक म्यानेजर की सहमति के बिना जेवर प्राप्त करना संभव नही है । बस "अध्यात्म में भी ऐसा ही है ।" प.पु.स्वामीजी [ समग्रयोग ] म.चैतन्य..दिसंबर २०१६

आत्मा 27/2/17

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चित्त मोक्ष का द्वार

एक शुद्ध और पवित्र चित्त पाने के लिए आवश्यक ,संपूर्ण समर्पण करना है । अपने भूतकाल के ज़हर का त्याग करना है । दूसरे के दोषशोधक व्रुत्ती का त्याग करना है । " मै " के अहंकार का त्याग करना है । आलस्य का त्याग करना है । आसक्ति का त्याग करना है । चित्त मोक्ष का द्वार  २ ० ० ७

परमात्मा स्थाई है

परमात्मा स्थाई है । ये बुरी परीस्थ्तीया ,ये बुरे व्यक्ति अस्थाई है ,आज है ,कल नही होंगे तो क्यूं अस्थाई बातों पर ध्यान देकर अपना वर्तमान समय ख़राब करे ? आत्मा के सानिध्य में वर्तमान समय का महत्व जाना क्योंकी आत्मा का आनंद भी वर्तमान में रहकर ही प्राप्त हो सकता है । ही..स योग...[ ५ ]

आत्मा अतिसूक्ष्म शक्ति है

आत्मा अतिसूक्ष्म शक्ति है जो देखी नहीं जा सकती, केवल अनुभव की जा सकती है, श्रद्धा रखकर मानी जा सकती है। - हिमालय का समपॅण योग, भाग 1, पृष्ठ 299

आत्मा की जाग्रुती

आत्मा की जाग्रुती भी एक आध्यात्मिक अनुभूति है और वह भी आत्मस्वरूप बनकर ही प्राप्त की जा सकती है । गुरु और शिष्य का संबंध एक आत्मिक संबंध है जो पूर्वजन्म से ही निश्चित होता है । और यह सम्बन्ध आत्मीय स्तर पर होता है क्योकि शरीर को आध्यात्मिक क्षेत्र में महत्व नही दिया है । लेकिन बिना शरीर के मोक्ष संभव ही नही है । ये दोनो बाते होती है । शरीर का स्थान एक सीढ़ी के समान होता है । आत्मा शरीर रूपी सीढ़ी पर चढ़कर परमात्मारूपी अपनी मंजिल तक पहुँचती है । ही..स..योग..[ ५ ]

समस्या

जीवन में सदैव कोई न कोई समस्या रहती ही है । हम उस समस्या का सामना किस प्रकार करते है , यह महत्वपूर्ण है । प्रत्येक समस्या कुछ समय के बाद समाप्त हो जाती है । अपने इष्टदेव पर विश्वास रखो और संपूर्ण समर्पित होकर अपने जीवन की डोर उस परमात्मा पर सौंप दो , जो आत्मा के रूप में भीतर बैठा है । ही..स..योग..[ ५ ]

बचपन की आध्यात्मिक यादें

मेरे बचपन में एक कार्ड का खिलौना था । उस कार्ड को सीधा देखो तो बच्चे का फोटो दिखता था और उलटा करके देखो तो बूढ़े का फोटो दिखता था । मेरे हिसाब से वह कार्ड मनुष्य जीवन का ही प्रतीक है । सीधा देखो तो सुख है उलटा देखो तो दुःख है । लेकिन एक समय एक ही दिखता है । अब क्या देखना है वह हमारे ऊपर ही निर्भर है ।हमारा जीवन जीवन भी बिल्कुल ऐसा ही है । हमारे भी जीवन रूपी का र्ड पर सुख और दुःख दोनो है । आप अपने जीवन में क्या अनुभव करते हो यह आप पर ही निर्भर है ।समय के साथ अपने र्हदय को भी बड़ा करो। ही.स.योग..[ ५ ]

महाशिवरात्रि २०१७ गुरुदेव के प्रवचन के कुछ अंश

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गुरु माँ

स्वामीजी के जीवन का उद्देश विश्व की सभी आतमाओंका आध्यात्मिक विकास तथा उन्हें जीते जी मोक्ष की स्थिती प्रदान करना है । इसलिए वे इस अमूल्य ज्ञान को विश्वभर में निःशुल्क बाँट रहे है । स्वामीजी स्वयं चैतन्य सागर है किन्तु स्वयं को गुरु ऊर्जा का माध्यम मात्र मानते है । उनकी इस सौम्यता -सादगी को शत शत नमन ।🙏 सहधर्मचारिणि   गुरु माँ  ही..स योग [ ५ ]  प्रुश्ठ १०

अनुरागजी का संदेश

।। जय बाबा स्वामी ।। प्रिया साधक भाई बहनो को नमस्कार, हमारे गुरुदेव ४५ दिवस गहन ध्या अनुष्ठान पूर्ण कर आज श्री बाबा स्वामी धाम आए । इन पूरे ४५ दिवसों का उन्होंने अपना अनुभव बताया, हमने यह पाया की हमारे गुरुदेव को जितना एकांत प्राप्त होगा उतना ही अधिक आध्यात्मिक ज्ञान हम सब को प्राप्त हो सकेगा । मुझे कई बार श्री साई बाबा के जीवन का दृष्टांत हुआ । इस दृष्टांत को जब-जब मैं याद करता हूँ तो गुरुदेव और साई बाबा के जीवन में एक मूल भूत अंतर यह दिखता है, की श्री साई बाबा के जीवन काल में भक्त हर शाम अपने साईनाथ के आध्यात्मिक दरबार का आनंद एवं ज्ञान अर्जित कर सकते थे, दूसरी और हमारे गुरुदेव एवं साधक चाहते है की ऐसा ही महोल हम तय्यार कर सके परंतु बहुत सारे साधकों की समूहिकता एवं हमारे गुरुदेव की सव्वेदनशीलता के कारण हम ऐसा कुछ नहीं कर पाते । मैं समर्पण का जब इतिहास देखता हूँ तो यह पाता हूँ कि पहले सेंटरों की विज़िट बाबाधाम पर हुआ करती थी लेकिन आज हज़ारों सेंटर है यह करना अब practical नहीं है । मैं अंतर हृदय से यह अनुभव कर सकता हूँ की गुरुशक्तियों ने ही यह IT DEVELOPMENT का कार्य करवाय

बिना गुरु के आध्यात्मिक प्रगती संभव ही नही है

बिना गुरु के आध्यात्मिक प्रगती संभव ही नही है । यह एक जन्म में भी संभव नही है । यह तो आत्मा की क्रमबद्ध प्रगती से ही संभव है । एक जन्म में पुण्यकर्म घटित होते है । अगले जनम में शुद्ध इच्छा होती है । उसके अगले जनम में सद् गुरु मिलते है । उसके अगले जनम में सद् गुरु से अध्यात्म का बीज प्राप्त होता है ।  और उसके अगले जनम में वातावरण प्राप्त होता है । और उसके अगले जनम में संगत प्राप्त होती है । और उसके अगले जनम में प्रगती होती है । और उसके अगले जनम में एक शून्य की अवस्था प्राप्त होती है । और वही जन्म मनुष्य का आखिरी जन्म होता है क्योकि मोक्ष की अवस्था उसी जन्म में प्राप्त हो जाति है ।.... प..पू..स्वामीजी  ही..स..योग ५ प्रुश्ठ..२८

आपके भीतर परमेश्वर का एक अंश आत्मा के रूप में स्थित है

महाशिवरात्री  २ मार्च - २०११ क्या आपको एहसास हो गया है की आपके भीतर परमेश्वर का एक अंश आत्मा के रूप में स्थित है ? कभी उसका एहसास हुआ है ? आप आपका ही परीक्षण करो ।प्रत्तेक मनुष्य के अंदर खूब सुप्त शक्तिया विद्यमान है । लेकिन वो शक्तीया हम कभी पहचान ही नही पाते । वो शक्तियों को अगर आप जाग्रुत कर सके तो आप आपके जीवन में एक सफल व्यक्ति बन सकते है ।

अनधीक्रुत ज्ञान

आध्यात्मिक क्षेत्र में "' अधिक्रुत "' शब्द का बड़ा महत्व है । सारा आध्यात्मिक ज्ञान ही "' अधिक्रुत शब्द पर आधारित होता है । सारी आध्यात्मिक प्रगती ही दो शब्दों पर आधारित है - - "' अधिक्रुत "' और "' अनुभूति "' । अगर आप समर्पण ध्यान साधना की अनुभूति अधिक ्रुत माध्यम से ही प्राप्त करते है , तो ही आप इस ज्ञान से अपने जीवन में प्रगती कर सकते है । ही..स..योग [ ५ ]

चींटीयों को गुरू बनाया

मैंने मन ही मन चींटीयों को गुरू बनाया जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया - कमजोर, छोटे लोगों का संगठन अधिक मजबूत होता है क्योंकि उनमें *' मैं '* नहीं होता और वे जानते हैं कि संगठित प्रयास उनकी आवश्यकता है। - हिमालय का समपॅण योग भाग 1 पृष्ठ 268,269

चैतन्य महोत्सव-2005

जो प्राप्त होता है, उसे सँजोने की आवश्यकता है। और सँभालना सान्निध्य में ही हो सकता है। और सान्निध्य का अर्थ शरीर का सान्निध्य नहीं है, चित्त का सान्निध्य है। क्योंकि जिसके चित्त में मैं हूँ, वह मेरे चित्त में है। जैसा तेरा गाना, वैसा मेरा बजाना! मैं क्या करूँ? तू मुझे सँभालकर नहीं रखता, मैं तुझे कब तक झेलूँ? सँभालना सीखो, सँजोना सीखो। और मैं आपके चित्त में हूँ या नहीं, उसको जाँचने के लिए कोई मशीन की आवश्यकता नहीं है। कोई थर्मामीटर की आवश्यकता नहीं है। जब मैं आपके चित्त में रह ता हूँ, आपके हाथों के वाईब्रेशन्स उसका प्रमाण देते हैं। हाथों पर उसकी अनुभूति आती है। मैं मेरी उपस्थिति आपके चित्त में दर्ज कराता हूँ, उसका प्रमाण देता हूँ। अनुभूति आपके हाथों में रहती है, आप अपने आपको ही जाँच लो, अपने आपको ही देख लो - अनुभूति हो रही है या नहीं, मेरा चित्त स्वामीजी पर है या नहीं? कभी आपको पता नहीं है, मेरा चित्त प्रत्येक के ऊपर रहता है। आप सोचते हैं - मैं दूसरे के लिए बोल रहा हूँ। मैं आप ही के लिए बोल रहा हूँ। एक-एक के ऊपर चित्त है, एक-एक के ऊपर अटेंशन है। सिर्फ उसका एहसास मुझे है, आपको नहीं। इस

ध्यान कर अपने चित्त को भीतर की ओर मोडना होगा

ध्यान कर अपने चित्त को भीतर की ओर मोडना होगा । और यही प्रक्रिया मनुष्य के जन्म से म्रुत्यु तक चलते ही रहती है । और उसी संतुलन की स्थिती बनाए रखना और उसी संतुलन की स्थिती में म्रुत्यु आना ही "' मोक्ष "' है । मोक्ष याने म्रुत्यु नही । मोक्ष एक ऐसी स्थिती है जिससे संपूर्ण जीवन संतुलित हो जाता है । जबतक शरीर है ,   तभी तक मोक्ष की स्थिती प्राप्त की जा सकती है । ही..स..योग [ ५ ] प्रुश्ठ - ८०

मनुष्य का सबसे बड़ा विकार है 'अहंकार '

मनुष्य का सबसे बड़ा विकार है 'अहंकार '। इसी अहंकार को मनुष्य जाने -अनजाने संभालकर रखता है और "मै "का "अहंकार " एक शरीर का सबसे बड़ा विकार है जो बड़ा ही सूक्ष्म होता है । और वह चला गया ऐसा लगता है । वह रूप बदल लेता है । इसलिए उसके नए रूप को पहचानना बड़ा कठिन हो जाता है । ही..स..योग..[ ५ ] प्रुश्ठ...४२२....

मानना आत्मा का शुध्द भाव है

मानना आत्मा का शुध्द भाव है । मनुष्य योनि में ही ऐसे शुध्द भाव वाली आत्मा प्राप्त होती है । इसीलिए मनुष्य योनि को सर्वश्रेष्ठ कहाँ गया है । और उस मनुष्ययोनि में जन्म लेकर भी अगर मनुष्य पशुवत व्यवहार करे तो क्या किया जा सकता है ? 📖 ही..स..योग [ ५ ] प्रुश्ठ....१३५....

सहस्त्रार पर स्थिरता सामूहिकता में ही प्राप्त की जा सकती है

हमारा बुद्धि का विकास राईट साइट (सूर्य नाडी ) पर निर्भर है , तो आत्मीय विकास लेफ्ट साइट (चंद्र नाडी ) पर निर्भर है । और संतुलन करने के लिए हमे सहस्त्रार पर चित्त केंद्रित करने की आवश्यकता है । सहस्त्रार पर स्थिरता सामूहिकता में ही प्राप्त की जा सकती है ।और सामूहिकता के लिए "गुरुशक्तियोंको समर्पण " आसान मार्ग है । - आध्यात्मिक सत्य 

॥ आध्यात्मिक सत्य ॥

परमात्मा के स्वरूप को समझे बिना परमात्मा की अनुभूति संभव नही है । जब मनुष्य के प्रयत्न असफल हो जाते है और " मै " का अहंकार टूट जाता है तब उसे उस परमपिता परमेश्वर की याद आती है ।   हम पास के परमात्मा को छोड़कर बाहर के परमात्मा की खोज में समय बर्बाद करते है । कोई भीतर पहुँचा हुआ माध्यम ही हमे भीतर की परमात्मा तक ले जा सकता है ।  आध्यात्मिक सत्य

हि.स.यो-४ पुष्ट-६२

सुमा को बड़ा आश्चर्य हुआ कि मैंने ज्ञान कि कोई पुस्तक नहीं पड़ी है उसने पूछा भी, "यह कैसे संभव है! आपको कभी पुस्तकें पढ़ने की इच्छा भी नहीं हुई? आप तो पढे-लखे हैं, पढ़ सकते हैं। सामान्यतःमनुष्य को जिस विषय में रुचि हो,वह उस विषय का इतिहास जानने का प्रयत्न करता है। आपने विषय के बारे में पहले किसने और क्या अनुभव लिखें हैं वह जानने का प्रयास करता है। इस विषय पर किसी का मार्गदर्शन चाहता है। पुस्तकों जैसा आ सान गुरु उसे उपलब्ध होता है तो समाज में मनुष्य प्रायः पुस्तकरूपी गुरु की शरण में जाता है। कई लोग जिन्हें पुस्तकें पढ़नी नहीं आती, वे भी दूसरे से पुस्तकें पढ़वाते और सुनते हैं कि उनके प्रिय विषय के बारे में पुस्तकों में क्या लिखा है। आप तो स्वयम पढ़ सकते हैं फिर भी कभी कोई ग्रंथ पढ़ने कि इच्छा नहीं हुई?" "अरे, सुमा, तेरा कहना बिल्कुल ठीक है सामान्यतः मनुष्य ऐसा ही करता है," मैं ने उसे बीच में टोकते हुए कहा। बाद में मैं ने बड़ी गंभीरता से कहना प्रारंभ किया, "सुमा, मेरे बचपन में इस विषय के प्रति जिन्होंने भी मेरी जिज्ञासा को जगाया, उन्होंने भी जीवन में पुस्तकें पढ़ी नहीं थीं

भाव दशा

"' समर्पण ध्यान "' पद्धति भावदशा पर आधारित एक पद्धति है । इस साधनाकी शुरुवात ही अपने -आपको शरीर नही , एक पवित्र आत्मा मानकर ही प्रारंभ होती है - अपने आपको आत्मा मानना और सदगुरु को परमात्मा मानना । यह भाव सतत अभ्यास से जैसे -जैसे बढ़ने लगता है , वैसे -वैसे मनुष्य को शरीर का एहसास कम होने लग जाता है । तो सारी समस्याएँ समाप्त हो जाती है । 🥀   ही..स..योग.. 🥀 भाग [ ५ ]

समर्पण ध्यान के पाँच नियम

आप जब अपने आपको शरीर नही , आत्मा समझते है और मानते है , तभी आपका संबंध माध्यम के द्वारा परमात्मा से होता है और इस माध्यम पर चित्त रखकर आप बाद में जीवन में मोक्ष की स्थिती पा सकते है । इसे करने के पाँच नियम है :- आप अपने आपको आत्मा माने । आप सदगुरु को माध्यम माने । परमात्मा एक विश्वशक्ति है , यह माने । सबका धर्म मनुष्यधर्म है , यह माने । नियमित सामूहिक ध्यान करे । इन उपरोक्त पाँच नीयमनोंका पालन करके आप इस समर्पण ध्यान की पद्धति को अपना सकते है । 📖 ही..स..योग... 🥀 भाग..[ ५ ]

महाध्यान 28/9/2011

हम केवल कुछ पाने के लिये ही ध्यान करते है।* और वह पाते है। और अधीक पाने के लीये फीर ध्यान करते है।* और साधक की एक गलत दिशा में दौड प्रारंभ हो जाती है, जिसका कोई अंन्त नही है।* *परम पुज्य श्री गुरूदेव* *महाध्यान* *28/9/2011*

'बाँटना' ही सही अथॅ में साधक का जीवन है

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● *'बाँटना' ही सही अथॅ में साधक का जीवन है।* *जो 'बाँट' रहा है, वही सही अथॅ में जुड़ा हुआ है और जो जुड़ा हुआ है, वही सही अथॅ में जीवित है।* *मनुष्य-जीवन का सारा रहस्य इस 'बाँटने' में छुपा है।* ➖ *हिमालय का समपॅण योग* *पवित्र ग्रंथ 1/16*

हिमालय का समपॅण योग

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*जय बाबा स्वामी* *पाना और देना, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।* *पाने की इच्छा रखोगे, तो भी मिलेगा और देने की इच्छा रखोगे, तो भी मिलेगा।* *पर देने की इच्छा नहीं रहेगी, तो दे नहीं पाओगे।* *देने की इच्छा से दो बातें होती हैं - पाया भी जाता है और दिया भी जाता है।* ➖ *हिमालय का समपॅण योग* *भाग 3* *पृष्ठ 231/232*

गुरू

जब *गुरू* ने अपना सवॅस्व तुम्हें सौंप दिया तो तुम भी अपना सवॅस्व *गुरू* को सौंप दो। -हिमालय का समपॅण योग* भाग 1 पृष्ठ 110

आत्मा की अनुभूति

और फिर आपको आत्मा की अनुभूति होना प्रारंभ हो जाता है ।   प्रथम अनुभूति यह होती है की आपको ध्यान करके अच्छा लगता है । दूसरी अनुभूति है - आप अपने - आपको इस संसार से और इस शरीर की समस्याओं से मुक्त पाते है । और इस प्रकार नियमित ध्यान करने से आपका नियंत्रण आपकी आत्मा के हातो में चला जाता है । यानी शरीर आत्मनियंत्रित हो जाता है । एकबार आत्मा प्रकाशित होने पर हमारे क्या दोष है , क्या दाग है वह भी हमे मालूम हो जाता है ।.... 📖 ही..स..योग   भाग..[ ५ ] 🍀

११वाँ गहन ध्यान अनुष्ठान

।। जय बाबा स्वामी ।। मेरे सभी साधक भाई बहनों को मेरा नमस्कार, ११वाँ गहन ध्यान अनुष्ठान संपन्न हुआ । यह अनुष्ठान किस प्रकार गुज़रा कुछ पता ही नहीं चला । लेकिन हर किसीने यह अनुभव अवश्य किया होगा की हम निर्विचरिता के धरातल से ध्यान के शून्य अंतरिक्ष में पहुँच गए । यह उड़ान मात्र गुरुकृपा के बरसने पर ही सम्भव होती है । इस गुरुकृपा ने आश्रम पर गुरुकार्य के रूप में कई आत्माओं को आयोजन एवं प्रबंधन रूपी विशेष कार्य करने का मौक़ा भी दिया । आश्रम पर इस गहन ध्यान अनुष्ठान को इतना बेहतर बनाने के लिए जो गुरुकार्य स्वयं सेवकों ने किया वह बहुत ही सराहनीय है । आश्रम समिति ने बहुत ही अच्छा सहकार दिया जिससे आश्रम प्रबंधन में कोई दिक़्क़त नहीं आयी । आश्रम में अपना सर्वस्व समर्पित कर गुरुकार्य करने वाले सभी सेवधारियों को धन्यवाद देना चाहिए क्योंकि उन्होंने सभी के साथ बहुत ही सामंजस्य से सभी स्वयंसेवकों एवं आश्रम समिति के साथ कंधे से कंधा मिला कर इस कार्य को पूर्ण किया । आश्रम समिति ने IT क्षेत्र में प्रयोजन को और बहतर करने हेतु जो समर्थन एवं सम्मति दिखायी है उसी से साधक भाई बहनो की रुकने की व्य

सफलता

अगर एक असफल मनुष्य को सफलता पाना है, उसे कुछ समय शांत जीवन जीकर असफलता का फोर्स समाप्त करना होगा | यह फोर्स कब समाप्त होगा, यह आपके शांत होने की अवस्था पर निर्भर होगा | और जब आप अंदर से उस गिरने की असफलता की आत्मग्लानि से बाहर आ जाएँ, तब आप सफलता के लिए प्रयास धीरे-धीरे प्रारंभ कर सकते हैं और अपने जीवन में सफल व्यकित बन सकते हैं | हि.स.यो-५

अपने -आप पर नियंत्रण करना कठिन होता है

अभी भी तुजे चित्त विचलित होने का डर है और तेरा चित्त विचलित न हो, इसलिए तू सतर्क है। लेकिन कहीं भीतर मैं का भाव भी है। वही ' मैं ' का भाव है यानी जो 'मेरा चित्त ' कहता है। यानी यह अध्यात्म की वह स्थिति है जिसमें तू साधनारत है, कहीं पहूँचा नहीं है पर पहुँचना चाहता है। यह मुनि की स्थिति नहीं , एक साधक की स्थिति है जिसमें वह अपनी आध्यात्मिक स्थिति को साध रहा है।सामान्यत: ९९ प्रतिशत साधक इस स्थिति में ही रहते हैं। जो पहले वाली स्थिति बताई,वह साधक की कहलाती ही नहीं है। क्योंकि जो देहभाव से ही नहीं उठा, वह साधक कैसे हो सकता है? और आत्मीय प्रगति कैसे कर सकता है? स्त्री के प्रति जो आकर्षण है, उससे अपने -आप पर नियंत्रण करना कठिन होता है। इसलिए " न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी " के जैसे साधक इस स्थिति से बचने केलिए हिमालय में शरण लेते हैं क्यों कि हिमालय में एक स्त्री भी नहीं है। यानी इस प्रकार के साधकों का चित्त अबोध नहीं है, पवित्र नहीं है लेकिन वे अपने चित्त को पवित्र रखने का प्रयास कर रहे हैं। इस प्रयास में भी चित्तशक्ति का एक बड़ा हिस

मधु चैतन्य - जून -२०११

भक्ति , तपश्या ,ज्ञान ये स्थूल चीज़े नही है । ये चैतन्य की अवस्थाए है । ये संपत्ति की तरह अपने बच्चों में बाटी नही जा सकती है ।.............ये केवल शक्तिपात से ही सुपात्र शिष्य को दी जा सकती है , जो उन्हे पूर्ण रूप से ग्रहण कर सके । ईश्वरीय प्रेम यह एक महान तपस्या होती है । संत सूरदास की तरह प्रेम शून्य अवस्था तक पहुँचना चाहिए । इस अवस्था में शरीर का एहसास नही रहता है । मधु चैतन्य जून -२०११

गुरु शक्ति आव्हान में स्त्रियों का क्या रोल

प्रश्न :- गुरु शक्ति आव्हान में स्त्रियों का क्या रोल [ भूमिका ] है ? स्वामीजी :- उसके अंदर महत्वपूर्ण रोल स्त्री का है । जैसे ,मै एक उदाहरण से बताता हूँ । एक माचीस की तीली है । वो कपूर को जलाती है और बाद में कपूर प्रकाशित हो करके उससे सबदूर का वातावरण शुध्द होता है । तो , तीली का रोल महत्वपूर्ण है की कपूर का ? कपूर का ! तो स्त्री का रोल कपूर का है । और पुरुष सिर्फ निमित्त है उसका ।...........

गुरु पूर्णिमा २ ० १ ६

आज एक नया प्रयोग करने जा रहे है । आप अनुभव करो की हिमालय की पास से एक छो.....टी सी नदी बह रही है । उस नदी के उस और आपकी आत्मा बैठी हुई है और नदी के इस और गुरुतत्व की आत्मा बीराजमान है । केवल आप दोनों ही है । और आप दोनों ध्यान कर कर रहे है । आपका ध्यान स्वयम ही लगा हुआ है । आप मन ही मन ही मन बोल रहे हो ," मै एक पवित्र आत्मा हूँ ।मै एक शुध्द आत्मा हूँ ," आप भूल गए आप कहाँ से आए है ? आपका घर कहाँ है ? आप का परिवार कौनसा है ? कौनसा गाँव है ? कौनसा देश है ? सब.......कुछ भूल गए । यानी आत्मा के अलावा मेरा और कोई स्वरूप नही है । न मै पुरुष हूँ , न स्त्री हूँ । आप जो भी है , आप एकदम शुध्द आत्मा के स्वरूप में अपने आप को मानते हुए नदी के उस किनारे पे बैठे हुए है । और परमात्मा साक्षात गुरुशकतियोके माध्यम से आपके ही सामने बैठा हुआ है , बाकी दुनियाँ में कोई नही है । परमात्मा है और आप है....बस । और आप ध्यान कर रहे है.....ध्यान कर र

पू..गुरु माँ गुरु पूर्णिमा १५ जुलै २०११

हम पिछले जनम में मोक्ष के द्वार तक आकर ठहर गये थे । उस स्तिति तक पहुँचने के लिये हम गुरुदेव तक आये है ।अगर इस जन्म में भी नही पहुँच पाये तो ये हमारा बहोत बड़ा दोष होगा । इसलिए रोज सुबह -शाम चित्त की धुलाई करते रहो । ********************************* पू..गुरु माँ गुरु पूर्णिमा १५ जुलै २०११

जब तक विश्वास नही है तो र्हदय की गहराई से प्रार्थना की ही नही जा सकती है

जिस प्रकार मंजिल ही पता न हो तो रास्ता धुन्डना तो और कठिन हो जाता है ।इसी प्रकार से ईश्वर के स्वरूप का ,स्थान का पता ही नही है तो प्रार्थना किसे करे ?किस दिशा में करे ?उस प्रार्थना की दिशा ही स्पष्ट नही होती ।जब तक प्रार्थना को सही दिशा नही है तब तक संपूर्ण विश्वास नही होगा ।और जब तक विश्वास नही है तो र्हदय की गहराई से प्रार्थना की ही नही जा सकती है ।और जब तक र्हदय की गहराई से प्रार्थना न की जाए ,वह प्रार्थना पूर्ण कैसे हो सकती है ।प्रार्थना करने में र्हदय का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है ।र्हदय का भाव ही प्रार्थना की बहुत बड़ी शक्ति होती है ।और यह र्हदय का भाव आस्था के कारण निर्माण होता है । ही..स..यो..१..

मनुष्य का भूत काल चित्त को कमज़ोर करता है

" मनुष्य का भूत काल चित्त को कमज़ोर करता है और मनुष्य की आसक्ति चित्त को स्थिर नही होने देती है । इसलिए इन दोनों से बचने पर ही चित्त शुद्ध , पवित्र होकर सशक्त बनता है और सशक्त चित्त से प्रार्थना पूर्ण होती है ।" [ ही - स - यो - २ ]

पवित्रता से मेरा आशय शरीर की पवित्रता से नहीं, चित्त की पवित्रता से है

क्यों की अबोधिता के बिना पवित्रता आ नहीं सकती है। पवित्रता से मेरा आशय शरीर की पवित्रता से नहीं, चित्त की पवित्रता से है। और चित्त की पवित्रता अबोधिता के बिना संभव नहीं है। अबोधिता से प्रथम देहभाव छूटता है और देह भाव छूटने के पहले देह की सुप्त वासनाएँ छूटती हैं। आध्यात्मिक मार्ग में यह क्रमबध्द तरीके से होता ही रहता है।"में यह सब जल्दी -जल्दी बोल गया और सुमा मेरी ओर देख नहीं रहा था; कान मेरी ओर करके, आ ँखें बंद करके मेरे बातों को समझने का प्रयास कर रहा था। यह सब मानो वह कानों के द्वारा पी जाना चाहता था। मैं हिन्दी भाषा में बोल रहा था और उसे हिन्दी संपूर्ण रूप से समझ में नहीं आती थी इसलिए वह संपूर्ण एकाग्रता के साथ समझने का प्रयास कर रहा था। लेकिन मेरी यह बात वह समझ ही नहीं पाया और अपनी छोटी - छोटी आँखें खोलकर मेरी ओर जिज्ञासा से देखने लग गया। मैं समझ गया कि वह बात उसकी समझ में नहीं आई थी। मैंने उससे कहा, "ठीक है, मैं तुम्हे उदाहरण के साथ समझाता हूँ। मान ले, तुम किसी कार्य से बस से गुवाहटी शहर की ओर जा रहा है और यात्रा के दौरान एक स्थान पर एक सुंद

गुरुपुरनीमा २०१३

जिनके पास भी मै रहा ,उनको संपूर्ण समर्पित रहा और उनमें समाहित हो गया ।" समाहित शब्द का अर्थ थोडा समझो ,समाहित होना याने अपने अस्तित्व को पूर्ण शून्य कर देना । देखो ,आपका पद आपको याद नही आना चाहिए , आपको आपका धर्म याद नही आना चाहिए , आपको आपका नाम नही याद आना चाहिए , आपको आपका लिंग याद नही आना चाहिए आपको आपकी वेशभूषा याद नही आना चाहिए , एक आत्मस्वरूप बन जाओ न ! आत्मा तो केवल आत्मा होता है । ऐसे उस आत्मस्वरूप को अगर आप प्राप्त करेंगे तो वही एक रास्ता है ,वही एक मार्ग है जिस मार्ग से आप माध्यम के साथ समाहित हो सकते है और समाहित होने के बाद माध्यम के भीतर का ज्ञान धीरे - धीरे धीरे -धीरे आपके अंदर ट्रांसफर होना प्रारंभ हो जाएगा । -प.पू.गुरुदेव  गुरुपुरनीमा २०१३

कुछ समय शांत जीवन जीकर असफलता का फोर्स समाप्त करना होगा

अगर एक असफल मनुष्य को सफलता पाना है, उसे कुछ समय शांत जीवन जीकर असफलता का फोर्स समाप्त करना होगा | यह फोर्स कब समाप्त होगा, यह आपके शांत होने की अवस्था पर निर्भर होगा | और जब आप अंदर से उस गिरने की असफलता की आत्मग्लानि से बाहर आ जाएँ, तब आप सफलता के लिए प्रयास धीरे-धीरे प्रारंभ कर सकते हैं और अपने जीवन में सफल व्यकित बन सकते हैं | - हि.स.यो-५

अनुभूति - सचिन एक यात्री रावल

जय बाबा स्वामी  मेरे पप्पा की अनुभूति     मेरे घर में 45 दिन अनुष्ठान में अखंड दीपक चल रहा है तो आज जब स्वामीजी के रूम में अखंड दीपक के पास जब मेरे पप्पा गये तो दीपक बंध हो गया था और वो देखकर मेरे पप्पा जब दिप प्रज्वलित करने गये तो कुछ चमत्कार जैसा ही हुवा और दिप अचानक बड़ी ज्योत में प्रज्वलित हो गया और मेरे पप्पा देखते ही रह गये और अभी हम फॅमिली के साथ बैठे तो ये अनुभूति सबको बताया । मेरे पप्पा नये साधक है और अभी दीक्षा भी नहीं ली है लेकिन ये अनुभूति मेने सुनी तो अंदर से हिल गया । और पप्पा को बताया ये बहोत ही अच्छी अनुभूति है । बाबा की कृपा अपरंपार है । बाबा स्वामी महाराज की जय। सचिन एक यात्री की और से सबको प्रणाम करता हु । सबको जय बाबा स्वामी ।                                                                                                                          सचिन एक यात्री रावल

दस हजार लोगों के साथ ध्यान करना एक दिन और दस हजार दिन ध्यान करना ,कितना अंतर है

दस हजार लोगों के साथ ध्यान करना एक दिन और दस हजार दिन ध्यान करना ,कितना अंतर है ! तो दस हजार दिन का ध्यान , तुमको अगर एक दीनमे आगे की प्रगती मिल रही है ,तो क्यों अपने जीवन के दस हजार दिनों को बर्बाद कर रहे हो ? तो महाध्यान के रूप में एक बहुत बड़ी सामुहीकता की छत्री आपको प्राप्त होने जा रही है ! ॥मधु चैतन्य ॥ मार्च -२०१२

कमल से मनुष्य प्रेरणा ले सकता है

"कमल से मनुष्य प्रेरणा ले सकता है कि मनुष्य का जन्म किसी भी स्थान पर हुआ हो, किसी भी जाति में हुआ हो, किसी भी धर्म में हुआ हो, किसी भी देश में हुआ हो, वह खराब से खराब स्थान पर जन्म लेकर भी कमल जैसा ऊपर उठ सकता है | यह ऊपर उठने की मनुष्य की शुध्ध इच्छा होनी चाहिए और , मैं एक कमल हूँ और कमल की तरह खिलूँगा ही, यह आत्मविश्वास होना चाहिए, तभी वह किचड़ से बाहर आ सकता है | मैं किचड़ नहीं हूँ, मैं एक कमल हूँ, यह आत्मविश्वास प्रथम निर्मित होना चाहिए ..... - हि.स.यो-२   पृष्ठ-२८७

चैतन्य महोत्सव 🌹 नवंबर २०१०.

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"पूर्ण त्रुप्त हुए बिना कभी भी ईश्वर प्राप्ति नही हो सकती । कई बार आत्मा शरीर धारण करने के बाद अपने आपको शरीर समझने लग जाति है ।" - चैतन्य महोत्सव     नवंबर २०१०.....

जब तक आप स्वयम आपको नही जानते ,तब तक उस अनुभूति को भी नही जान सकते ।

जब तक आप स्वयम आपको नही जानते ,तब तक उस अनुभूति को भी नही जान सकते । उस ध्यान को आपने शारीरिक स्तर के ऊपर ग्रहण किया है । आवशकता है आत्मिक स्तर के ऊपर ग्रहण करने की । ध्यान करने के थोडी देर पूर्व एकांत में जाकर बैठो , और अपने आपको जानने का प्रयास करो , अपने आपको पहचानने का प्रयास करो । आप अपने आपसे ही प्रश्न पूछो...... "' मै कौन हूँ ?"' "' मै कहाँ से आया हूँ ?"' "' मुझे कहाँ जाना है ?"' धीरे -धीरे आपके आत्मा का एहसास आपको होना लग जाएगा । तो इसी समाज में रहते हुए ,इसी संसार में रहते हुए ,इसी घर में रहते हुए आप अपने आपको इन सभी से मुक्त पाएँगे । चैतन्य महोत्सव  नवंबर - २०१०

देह के आकर्षण

और तू अपनी करीबवाली सीट (आसन) उस स्त्री को केवल इसलिए देता है कि वह स्त्री सुन्दर है, ऐसी सुंदर स्त्री अगर तेरे पास बैठी तो ऐसी सुंदर स्त्री के सुंदर शरीर का कोमल स्पर्श तुझे प्राप्त होगा, उसके सुंदर शरीर का संग तुझे प्राप्त होगा। और तू तेरी कल्पना में उस स्त्री के करीब भी जाने की सोचेगा और उस स्त्री के अंग अंग को निहरेगा। यानी अपनी वासनाओं की पूर्ति के लिए ही तू अपने पासवाला स्थान बैठने को उस स्त ्री को देगा। स्थान देने का पीछे उद्देश केवल वासना ही होगी।तो इस प्रकार का तेरा व्यवहार वासनामय चित्त के अंतर्गत आता है। यह मनुष्य की सबसे निचली अवस्था है जहाँ मनुष्य उसके शरीर के स्तर से ऊपर ही नहीं उठा है। इस स्तर के मनुष्यों का आध्यातमिक स्थिति से दूर - दूर तक भी कोई नाता नहीं होता है।""अब इस स्थर से ऊपर स्थर है - एक संस्कारित मनवाली स्थिति। इसी स्थिति में उस सुंदर स्त्री को देखकर तेरे मन में परोपकार की भावना जागृत होती है और तू उसे अपनी पास वाली सीट बैठने के लिए देता है। और साथ ही स्वयं उस सीट से उठकर खड़ा इसलिए हो जाता है कि उस सुंदर स्त्री का

मृत्यु एक सत्य हे, इसे भूलना भी नहीं चाहिए

*मनुष्य को मृत्यु से डरना नहीं चाहिए, लेकिन, मृत्यु एक सत्य हे, इसे भूलना भी नहीं चाहिए। मृत्यु एक अवश्य -संभावि घटना है और मृत्यु तो आनी ही है, यह ध्यान में रखना चाहिए। मृत्यु की याद मनुष्य को सदैव अच्छें कार्य करने के लिए प्रेरित करती है और बुरे कार्य करने से रोकती है। मृत्यु मनुष्य को लोक- मोह से बचती है और सबकुछ यही छूट जाएगा , इसका ज्ञान करती रहती है। मृत्यु प्राणी मात्र को दिया गया एक वरदान है। *_ - HSY 1 pg 277

॥ मधु चैतन्य ॥* *मार्च २०१२*

जब भी जीवन के अंदर जिन्होने मेरे ऊपर पत्थर मारे है न , उन पत्थरों को मैने इकट्ठा किया , इकट्ठा करके उसकी सीढ़ी बनाई और यहाँ तक पहुँचा हूँ । तो आप भी अपने जीवन में जो भी लोग पत्थर मारे ,उन पत्थरों को इकट्ठा करो इकट्ठा करके उसकी सीढ़ी बनाओ और सीढ़ी से ऊपर चढो । मधु चैतन्य  मार्च २०१२

प..पू..स्वामीजी ७ जनवरी २०१६

सेंटर पर साधकोंकि संख्या बढ़े इसके लिए प्रयास की नही , प्रयत्न की नही ,स्थिती की आवश्यकता है ! जब तक आचार्योन्की ,सन्चालकोन्की आध्यात्मिक स्थिती अच्छी नही है ,उसके हात से कार्य आगे बढ़ नही सकता । प..पू..स्वामीजी ७ जनवरी २०१६

अनुभूति

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🙏🏻 जय बाबा स्वामी 🙏🏻 आज में जो अनुभूति लिखने जा रहा हु वो मेरी कजिन सिस्टर की हे. मेरी सिस्टर का नाम कलावंतीबेन जोषी हे. उनकी उम्र 32 साल हे और वो राजकोट में रहती हे. ये अनुभूति एक चमत्कार ही हे जो कुछ दिन पहले की हे.. 15 august 2016 के दिन मेरी सिस्टर को बच्चा हुआ और वो जामनगर की jccc हॉस्पिटल में एडमिट थी. बच्चा तो 2 दिन में ठीक हो गया पर मेरी सिस्टर को ICU में रखा गया क्योकि उनकी हालत बहुत ही नाजुक थी इसलिए.. उसी दौरान डॉक्टर ने कहा की उनकी दोनों किडनी में प्रॉब्लम हो गया हे . उसकी वजह से पूरा शरीर सूज गया शरीर पूरा फुल गया और उनको डायालिसिस करना पडा. ये सब अभी ठीक भी नही था और कुछ दिन बाद डॉक्टर ने कहा की इनको श्वास लेना मुश्किल हो रहा हे और कंडीशन बहुत ही सीरियस हे उनको इमरजेंसी वेंटीलेटर पर रखा गया. 8 दिन हो गए फिर भी हालात वैसी की वैसी ही थी ना कुछ खानापीना कुछ भी नही. तभी मेने और मेरे कजिन भाई ने प्रार्थनाधाम में प्रार्थना लिखवाई. डॉक्टर ने कहा की हमसे जो हो सकता था हमने सब किया अब तो सिर्फ भगवान से प्रार्थना करो वही ठीक कर सकते हे. तभी मेने हमारे ही ग्रुप

श्री गुरूशक्ति धाम

यह गुरूशक्तियों का साधकों को दिया गया एक बहुमूल्य उपहार है। प्रभु से प्राथॅना है - व्यक्तिधाम नहीं, सचमुच, सही अथॅ में श्री गुरूशक्ति धाम बने और इस स्थान से किसी आत्मा को परमात्मा की अनुभूति हो और इस प्रतिमा के निमित्त से कोई साधक संपूणॅ समपॅण के साथ परमात्मा के सामने झुके और परमात्मा से एकाकार होकर परमात्मा के सान्निध्य की अनुभूति प्राप्त करे, बस यही शुद्ध इच्छा है।  आध्यात्मिक सत्य 

आपको जो दिख रहा है वह इस जन्म का है जब कि हमारा संबंध *पूर्व जन्मो* के है

आपको जो दिख रहा है वह इस जन्म का है जब कि हमारा संबंध *पूर्व जन्मो* के है। बस मैं जानता हुँ। अभी कुछ साधक जान पाये है, कुछ नही। उन्हें ही केवल याद कराने का प्रयास करता हु। एक जन्म में निच्छित हि इतना कार्य होना संभव नही है। जानने और न जानने के बीच आता है- यह *शरीर* । यह *शरीर* जब छोड दूंगा तो सब जान जायेंगे। लेकिन वह उसके पहले जाने यह प्रयत्न है। पृष्ठ ११०, सदगुरु के हृदय से(६)

पूर्ण समर्पण

"जब किसी का पूर्ण समर्पण ईश्वर अथवा गुरुशक्तियों के प्रति हो तो उसके जीवन में उसे किसी तरह की कमी का अनुभव नही होता - पूर्ण संतोष का भाव जाग्रुत होता है ।" - म.चैतन्य  दिसम्बर २०१३
ॐ.........मूलाधार श्री..........स्वाधिश्ठान शिव........नाभि क्रुपानँद.....र्हदय स्वामी........विशुद्धि नमो...........आज्ञा नमः............सहस्त्रार

प्रेम तत्व

पाणि का गुणधर्म है - बहना , आगका गुणधर्म है - जलना । ठीक वैसे ही मनुष्य का गुणधर्म है - प्रेम करना । प्रेमतत्व बहने लगने के बाद मनुष्य सभी से ही प्रेम करने लग जाता है ।वह सब में ही परमात्मा के दर्शन करने लग जाता है और उसे सर्वत्र शक्ति के दर्शन होने लग जाते है । फिर इस प्रेम तत्व के कारण ही आध्यात्मिक प्रगती होने लगती है और मनुष्य अपने "मै "के बूँद के अस्तित्व से सागर के अस्तित्व में बदल जाता है । आध्यात्मिक सत्य 

पूर्वजन्म के अगर अच्छे कर्म भी संचित हैं तो उन अच्छे कर्मों का फल भोगने हम दूसरे जन्म लेना पड़ता है

पूर्वजन्म के अगर अच्छे  कर्म भी संचित हैं तो उन अच्छे  कर्मों का फल भोगने हम दूसरे  जन्म लेना पड़ता है। और अच्छे  फल कब समाप्त हो जातेहैं, पता  ही नहीं चलता। और उसी जन्म में हम बुरे कर्म कर देते हैं और फिर दूसरा जन्म बुरे कर्मों को भोगने के लिए लेते हैं। और यह कर्म का चक्र सदैव चलता ही रहता है।" "इसलिए केवल साक्षात्कार और ध्यानसाधना काफी नहीं है। निष्काम कर्म और वासनरहित जीवन भी आवश्यक है। यह मनुष्य शरीर मोक्ष को पाने का साधना भी है, यह मनुष्य शरीर मोक्ष के मार्ग की बाधा भी है। क्योंकि एक ओर जहाँ शरीर धारण किए बिना साधना नहीं की जा सकती, वहीं दूसरी ओर मनुष्य शरीर धारण करने पर वासनाएँ भी जागृत होती हैं और कर्म भी होते ही हैं। वे अच्छे कर्म होंगे तो भी हम उस कर्म के चक्र में आएँगे और बुरे कर्म होंगे तो भी उस कर्म के चक्र में आएँगे। यानी यह मानव शरीर जहाँ एक ओर हमारे भीतर वासनाओं को निर्मित करता है, वहीं दूसरी ओर कर्म करवाता है। इन दोनों से बचकर मनुष्यजीवन को केवल ध्यानसाधना में लगना अत्यंत कठिन है। इसमे से निकलने का एक ही मार्ग है,वह है-सद्गुरु को अपना जीवन सं

सदगुरु को पहचानने के लिए प्रथम निसर्ग से जुड़ना होगा और निसर्ग से जुड़ने के लिए प्रथम अबोध बालक बनना होगा

और वह आज के जैसा ही होगा, तभी वह आप के पास पहूँचेगा। इसलिए यह सदैव रखना-आपके जीवन में जो सदगुरु आएँगे वे आप के काल के अनुसार ही आएंगे। उनका रहन - सहन, उनका पेहराव आप जैसा ही, सामान्य होगा। इसलिए भूतकाल के सदगुरु की जो छवि अपने मन में बनाकर रखी है वह चूर - चूर हो जाएगी। क्योंकि भूतकाल के सदगुरु का पेहराव भूतकाल के जैसा था, आज के सदगुरु का पेहराव आज जैसा होगा। यह ठीक वैसा ही है, जैसे वृक्ष की पत्तियाँ अपना रूप और अपना रंग ऋतु के अनुसार बदलती ही रहती हैं। यह सब एक निसर्ग के नियम के अनुसार चलता रहता है। इसलिए हम जिस समय वृक्ष की ओर देखेंगे, उस ऋतु के अनुसार ही हमें वृक्ष के पत्ते दिखेंगे। कभी पत्ते एकदम कोमल कोंपल जैसे लाल रंग के होंगे तो कभी एकदम बड़े - बड़े और हरे रंग के होंगे। और कभी - कभी तो मुरजाए से, पीले रंग के होंगे। यानी समय और परिस्थितिं का प्रभाव उन पत्तों पर पड़ता ही है और वह नैसर्गिक भी है। ठीक इसी प्रकार सदगुरु का बाहरी रंग और रूप भी समय और परिस्थिति के अनुसार बदलता रहता है क्योंकि वह भी निसर्ग के साथ जुड़ा हुआ है।" "सदगुरु क

ईश्वर किसी जाति ,धर्म ,रंग ,देश ,भाषा में बँधा नही है

 ईश्वर किसी जाति ,धर्म ,रंग ,देश ,भाषा में बँधा नही है ,इन सब सीमाओं से परे है । और इन सब सीमाओं से परे आप नही जाते , आप कभी भी ईश्वर प्राप्ति नही कर सकते है । ईश्वर सूर्य है तो आध्यात्मिक ज्ञान उसकी किरणे है , ऐसा समझा जा सकता है । जब तक मनुष्य जाति , लिंग , धर्म , भाषा , देश , रंग की सीमाओं से परे नही हो जाता , आध्यात्मिक ज्ञान पाया ही नही जा सकता । म..चैतन्य सितंबर २०१३

पवित्र आत्मा बन सानिध्य प्राप्त करे तो ही सद् गुरु रूपी माध्यम से कुछ आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे

आप सभी साधक अपने जीवन में केवल सानिध्य प्राप्त ना करे लेकिन एक पवित्र आत्मा बन सानिध्य प्राप्त करे तो ही सद् गुरु रूपी माध्यम से कुछ आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे । अन्यथा तो कई सद् गुरु आए और चले गए ।आप सभी एक पवित्र आत्मा बनकर ही सद् गुरु के सामने आए और पूर्वजन्म के अच्छे कर्मों के कारण आपको जो गुरु सानिध्य मिला है उसका लाभ अपनी आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्ति के लिए कर सके , इसी शुद्ध इच्छा के साथ आपको खूब खूब आशीर्वाद । आपका , बाबा स्वामी ***********  म..चैतन्य सितंबर...२०१३

मनुष्य का गुणधर्म है - प्रेम करना

पाणि का गुणधर्म है - बहना , आगका गुणधर्म है - जलना । ठीक वैसे ही मनुष्य का गुणधर्म है - प्रेम करना । प्रेमतत्व बहने लगने के बाद मनुष्य सभी से ही प्रेम करने लग जाता है ।वह सब में ही परमात्मा के दर्शन करने लग जाता है और उसे सर्वत्र शक्ति के दर्शन होने लग जाते है । फिर इस प्रेम तत्व के कारण ही आध्यात्मिक प्रगती होने लगती है और मनुष्य अपने "मै "के बूँद के अस्तित्व से सागर के अस्तित्व में बदल जाता है ।   आध्यात्मिक सत्य 

सत्य के संदेश

मेरे जीवन में दो ही "श्रद्धा " स्थान है एक इस समर्पण के "वटव्रक्श "का "बीज "श्री शिवबाबा और दुसरा उस बीज को वटव्रक्श बनाने वाला माली मेरी पत्नी जिसकी देख भाल के बिना वह बीज अंकुरित भी होना संभव नही था । बाबा स्वामी १४ - २- १३ गुरुवार

पवित्रता से मेरा आशय शरीर की पवित्रता से नहीं, चित्त की पवित्रता से है।

क्यों की अबोधिता के बिना पवित्रता आ नहीं सकती है। पवित्रता से मेरा आशय शरीर की पवित्रता से नहीं, चित्त की पवित्रता से है। और चित्त की पवित्रता अबोधिता के बिना संभव नहीं है। अबोधिता से प्रथम देहभाव छूटता है और देह भाव छूटने के पहले देह की सुप्त वासनाएँ छूटती हैं। आध्यात्मिक मार्ग में यह क्रमबध्द तरीके से होता ही रहता है।"में यह सब जल्दी -जल्दी बोल गया और सुमा मेरी ओर देख नहीं रहा था; कान मेरी ओर करके, आ ँखें बंद करके मेरे बातों को समझने का प्रयास कर रहा था। यह सब मानो वह कानों के द्वारा पी जाना चाहता था। मैं हिन्दी भाषा में बोल रहा था और उसे हिन्दी संपूर्ण रूप से समझ में नहीं आती थी इसलिए वह संपूर्ण एकाग्रता के साथ समझने का प्रयास कर रहा था। लेकिन मेरी यह बात वह समझ ही नहीं पाया और अपनी छोटी - छोटी आँखें खोलकर मेरी ओर जिज्ञासा से देखने लग गया। मैं समझ गया कि वह बात उसकी समझ में नहीं आई थी। मैंने उससे कहा, "ठीक है, मैं तुम्हे उदाहरण के साथ समझाता हूँ। मान ले, तुम किसी कार्य से बस से गुवाहटी शहर की ओर जा रहा है और यात्रा के दौरान एक स्थान पर एक सुंद

अगर एक असफल मनुष्य को सफलता पाना है,

अगर एक असफल मनुष्य को सफलता पाना है, उसे कुछ समय शांत जीवन जीकर असफलता का फोर्स समाप्त करना होगा | यह फोर्स कब समाप्त होगा, यह आपके शांत होने की अवस्था पर निर्भर होगा | और जब आप अंदर से उस गिरने की असफलता की आत्मग्लानि से बाहर आ जाएँ, तब आप सफलता के लिए प्रयास धीरे-धीरे प्रारंभ कर सकते हैं और अपने जीवन में सफल व्यकित बन सकते हैं | हि.स.यो-५

हम पिछले जनम में मोक्ष के द्वार तक आकर ठहर गये थे

हम पिछले जनम में मोक्ष के द्वार तक आकर ठहर गये थे । उस स्तिति तक पहुँचने के लिये हम गुरुदेव तक आये है ।अगर इस जन्म में भी नही पहुँच पाये तो ये हमारा बहोत बड़ा दोष होगा । इसलिए रोज सुबह -शाम चित्त की धुलाई करते रहो । ********************************* पू..गुरु माँ गुरु पूर्णिमा १५ जुलै २०११

अनुभूति

एक साल से मै ध्यान करते आई हूँ और इससे मुझे मेरे स्कूल में और बाहर भी बहुत लाभ मिला है । पूरे साल भर "सायन्स " विषय में मुझे सबसे अधिक अंक प्राप्त हुए है और यू.के.के म्याथ्स च्यालेँज में मुझे सुवर्ण पत्र भी मिला है । लोगों से मै यह शिफारिश करना चाहती हूँ की वे ४५ दिन तक समर्पण ध्यान करके आजमाए । जय बाबा स्वामी रीद्धी पटेल... लंदन , यू.के. [ उम्र १३ साल ]

चाय बागान की ताज़ी चाय की खुशबू अलग ही लग रही थी

चाय बागान की ताज़ी चाय की खुशबू अलग ही लग रही थी। वे बिना दूध की ही चाय पीने के आदी होते हैं। वैसे ही मुझे भी पिलाई और वह मेरे चेहरे की ओर अपेक्षा से देखने लग गया और बोला, " मुझे मेरे पूर्वजन्म के बारे में बताओ न , मै जानना चाहता हूँ।" "मैं ने मेरी चाय समाप्त की और थोड़ा चित्त को स्थिर किया और आँखें बंद करके उसके पूर्वजन्म पर चित्त रखकर आगे बताना चालू किया , " तू पूर्वजन्म एक मुनि था जिसकी सांसारिक सुखों की वासनाएँ पूर्ण नहीं हुई थीं। लेकिन गुरुसान्निध्य मिलने के कारण अध्यात्म की  एक उँचाई तक पहुँचा। सदैव गुरु के सान्निध्य में रहा, गुरुदेव की जन्मभर सेवा की और सतत गुरु सान्निध्य में ही रहने के कारण याद नहीं रहा कि सांसारिक सुखों की वासना अभी भी बाकी है। यह सब तुम्हारे गुरुदेव जानते थे लेकिन उन्होंने कभी प्रकट नहीं किया। वे यह भी जानते थे कि उस जन्म में पूर्णत्व की स्थिति नहीं होनेवाली थी क्योंकि भीतर की वासनाएँ बाकी थीं। तुम उत्तरप्रदेश मे रहनेवाले थे, तुम्हारा नाम भानुदास जमींदार था। घर की बड़ी जमींदारी थी, काफी पैसा था लेकिन गुरुसान्निध्य

संतुलन की स्थिति में मृत्यु आना ही ' मोक्ष है

' चित ' की स्थिति एक तराजू जैसी होती है | वह स्वयं कुछ नहीं करता पर जो होता है उसका परिणाम वह प्रदान करता है | चित के तराजू में एक ओर जो वजन के मापदण्ड होता हैं वह छोर आत्मा का होता है | आप जितना भीतर चित को रखोगे, वह बाट वजन के बढ़ते जाएँगे | और दूसरी ओर शरीर होता है | आप आपके शरीर की ओर, शरीर की इच्छाओं की ओर, शरीर की आवश्यकताओं की ओर, शरीर के अहंकार की ओर जितना अधिक ध्यान दोगे, उतना ही आपके चितरूपी तराजू का दूसरा पाला बाहर की ओर होना प्रारंभ होगा | और फिर ध्यान कर अपने चित को भीतर की ओर मोड़ना होगा | और यही प्रक्रिया मनुष्य के जन्म से मृत्यु तक चलते ही रहती है | और उसी संतुलन की स्थिति बनाए रखना और उसी संतुलन की स्थिति में मृत्यु आना ही ' *मोक्ष* ' है |                                                                                                                                         हि.स.यो-५ पृ-८०

मंत्र में भाव महत्वपूर्ण होता है

पू. स्वामीजी को गुरुदेव ने कहा था की ,जिस तरह से शुद्ध पानी में कोई रंग डाला जाए तो वह रंग को आगे करता है ; ठीक उसी तरह मंत्र भाव को आगे करता है । मंत्र भावपूर्ण बन जाता है और जिस भाव से मंत्र का उच्चारण किया जाता है वह वही भाव का प्रतिनिधित्व करता है । मंत्र में भाव महत्वपूर्ण होता है । ********************************* म.चैतन् य सितम्बर...२०१०
आप पानी का बूँद नही हो । आप "' अथांग सागर हो । इस बात को सदैव धान में रखो ।                                                                                                       प.पू.स्वामीजी

प.पू.गुरुदेव के प्रवचन के कुछ अंश गुरुपुर्णिमा.....२०१०.......

प.पू.गुरुदेव के प्रवचन के कुछ अंश  गुरुपुर्णिमा.....२०१०....... सामूहिकता में चले जाने के बाद उस बुरे कर्म का प्रभाव आप के ऊपर महसूस नही होता । सामुहीकता में धान करेंगे तब आपकी आत्मा ही आपका गुरु बन जाएगी । कुछ नकारात्मक शक्तीया आपको माध्यम बना सकती है । इसलिए सामुहीकता छोड़ करके बिल्कुल ध्यान मत करो । किसी भी कीमत पे कलेक्टिव्हिटि को मत छोडो । गुरुपुर्णिमा के दिन शिष्य की चैतन्य ग्रहण करने की क्षमता खूब बढ़ जाती है । नियमित ध्यान करो , ताकि प्रत्तेक दिन आपके जीवन में गुरुपुर्णिमा सिद्ध होगा । शरीर के गुलाम मत बनो......।आत्मा का शरीर के ऊपर नियंत्रण रखना ही समर्पण ध्यान का उद्देश है

यह गुरूशक्तियों का साधकों को दिया गया एक बहुमूल्य उपहार है

यह गुरूशक्तियों का साधकों को दिया गया एक बहुमूल्य उपहार है। प्रभु से प्राथॅना है - व्यक्तिधाम नहीं, सचमुच, सही अथॅ में श्री गुरूशक्ति धाम बने और इस स्थान से किसी आत्मा को परमात्मा की अनुभूति हो और इस प्रतिमा के निमित्त से कोई साधक संपूणॅ समपॅण के साथ परमात्मा के सामने झुके और परमात्मा से एकाकार होकर परमात्मा के सान्निध्य की अनुभूति प्राप्त करे, बस यही शुद्ध इच्छा है। आध्यात्मिक सत्य

सबसे महत्वपूर्ण होती है इच्छा

सामान्यत: , सबसे महत्वपूर्ण होती है इच्छा | अगर हमारे भीतर जबरदस्त इच्छा है तो भले ही साधन न हों, ज्ञान न हो , हैसियत भी न हो , *आत्मा* हमें उस इच्छा के अनुसार उस दिशा में ले जाना प्रारम्भ कर देती है  ...... हि.स.यो-४| पृ-३७५

हमारे जीवन की समस्याएँ भी इतनी काली बिंदु -सी होती है

हमारे जीवन की समस्याएँ भी इतनी काली बिंदु -सी होती है । लेकिन हमारा चित्त तो वही जाता है , उस काले बिंदु पर । अरे , बाकी इतना बड़ा सफेद पेपर है , वो क्यों नही दिख रहा है ! गुरुदेव की एनर्जी है , वो श्वेत जो इतना बड़ा -सा है ना , वो गुरुदेव की एनर्जी है । और वो जो काला छोटा -सा डॉट है , वह वो समस्स्याऐ है , वह वो भोग है जो हमे भोगने बाकी है.. .वो भोगने ही है , तो उसकी और चित्त क्यों रखना ? ********************************** प.पु.गुरुमाँ म.चैतन्य अक्टूबर २०१६

इच्छा भौतिक स्वरूप की होगी तो हमारी प्रगति भौतिक जगत की ओर हो जाएगी

हम गुरु के पास भी कोई 'अपनी इच्छा ' लेकर गए तो हो सकता है , गुरु की सकारत्मक शक्ति से वह पूर्ण भी हो जाए लिकन अगर हमारी अपनी इच्छा भौतिक स्वरूप की होगी तो हमारी प्रगति भौतिक जगत की ओर हो जाएगी | इससे हमारी प्रगति तो होगी लेकिन गलत दिशा में होगी और भौतिक जगत में तो समाधान कहीं है ही नहीं ! आप सद्गुरु के दरबार में क्या माँगते हो, इसी पर आपकी प्रगति निर्भर करती है क्योंकि उस माँगने पर आपकी दिशा तय होती है , गुरु तो उस दिशा में केवल धकेल देते हैं | गुरु का कार्य है धक्का देना | अ ब, हम जिस ओर अपना मुँह रखेंगे , वह उस ओर धक्का देंगे ! इसलिए, सद्गुरु के सानिध्य में हमारा मुँह किस ओर है , यह बड़ा महत्वपूर्ण होता है क्योंकि हम भविष्य में उस ओर पहुँचने वाले होते हैं | हम ही हमारी दिशा तय करते हैं , धक्का देने का कार्य सद्गुरु का होता है | और कई बार, किस दिशा में आगे बढ़ना है , यह हमें पता नहीं होता और सद्गुरु से गलत दिशा में धक्का माँगकर हम कुएँ में गिर जाते हैं | ऐसी स्थिति से अच्छा होगा कि आप सद्गुरु से प्रार्थना करें - *आपकी इच्छानुसार हो, आपकी इच्छा हो तो हो और न हो त

परमात्मा

 हे करूणानिधान, मैंने न तो परमात्मा को देखा है और न ही कभी अनुभव किया।  परमात्मा की शक्ति सारे विश्व में फैली हुई है, पर विश्व की शक्ति की अनुभूति मुझे आपके माध्यम से हुई है।  आप उस परमात्मा की शक्ति के माध्यम हैं। मैं जानता हूँ कि आप एक सामान्य मनुष्य हैं,  पर परमात्मा की असामान्य शक्तियों ने आपको माध्यम बनाकर असामान्य बना दिया हैं। परमात्मा की शक्तियों की द्रष्टि से आप भले ही एक माध्यम हो, पर मेरी द्रष्टि से आप ही परमात्मा हैं।  आपसे मिलकर मेरी परमात्मा की खोज समाप्त हो गई। और कोई खोज समाप्त तब होती है, जब कोई परमात्मा मिल जाता है। मुझे मेरा परमात्मा मिल गया। अब मुझे परमात्मा से मिलने की कोई इच्छा नहीं रही क्योंकि मैंने मेरे जीवनकाल में परमात्मा को पा लिया है। हिमालय का समपॅण योग  *पवित्र ग्रंथ*  *1-273/274

सद्गुरु का समाधि तो वह शरीर होता है जो अपार शक्ति का माध्यम रहता है

 ऐसे भण्डार उनके देहत्याग के बाद आते हैं तो वह एक प्रकार से ऊर्जाशक्ति का विस्फोट ही है। तो उस शरीर के पास एक कुशि का माहौल रहता है ,एक प्रसन्नता का वातावरण रहता है। इसलिए उनके शिष्यगण उसके शरीर का समाधिस्थल एक उत्साह से बनाते हैं मानोकोई आनंद - उत्सव चल रहा हो।" " सद्गुरु का समाधि तो वह शरीर होता है जो अपार शक्ति का माध्यम रहता है। लाखों लोग उस शरीर से जुड़े हुऐ होते है और वह शरीर सामूहिक श क्त्ति का रत्रोत बना रहता है। इसी कारण सदगुरु की आत्मा उनके शरीर को छोड़ती है, उनका चैतन्य उस शरीर से बहते ही रहता है। इसलिए कहा जाता है कि सदगुरु अमर रहते हैं, वे कभी नहीं मरते हैं। क्योंकि उस बहते हुए अपार चैतन्य के कारण सद्गुरु का शरीर देहत्याग करने के बाद भी चैतन्यपूर्ण रहता है। बाद में समधिस्थान शरीर के माध्यम से सद्गुरु कि शक्तियाँ सैकड़ों वर्षों तक कार्यांन्वित रहती हैं। सद्गुरु का शरीर उनका माध्यम बन जाता है। और इसी कारण सद्गुरु के शरीर को नष्ट नहीं किया जाता, जलाया नही जाता है; उनके शरीर को समाधिस्थ किया जाता है, उसकी समाधि बनाई जाती है। वह समा

प्रत्येक मन्त्र की अपनी एक ऊर्जा होती है

प्रत्येक मन्त्र की अपनी एक ऊर्जा होती है | प्रश्न है, हम कितनी मान्यता उस मन्त्र को देते हैं | उसके ऊपर ही हमारी ग्रहण करने की शक्ति निर्भर होती है | मानो कि मन्त्रशक्ति तो कपूर के समान है - जब तक आत्मा की मान्यतारूपी आग उस तक नहीं पहुँचती , वह तो अपनी जगह पर है; वह चाहकर भी अपने स्थान पर नहीं जल सकता है और न ही प्रकाशित हो सकता है | *मन्त्र की शक्ति मन्त्र को माननेवाले की ग्रहण करने की क्षमता पर ही है | मन्त्र तो ऊर्जा का एक खजाना होता ही है, बस उसे जाननेवाले और पहचाननेवाले आत्मा की आवश्यकता होती है | * हि.स.यो-४| पृष्ठ-१५४
*चित* को सदैव पवित्र रखना चाहिए , कभी भी हमारा चित किसी के दोषो पर जाये तो अपने आप को याद दिलाओ की *में कचरे का डब्बा* नहीं हु | फिर में किसी का कचरा क्यों इक्ट्ठा कर रहा हूँ | - चित मोक्ष का ध्वार - २००७

गुरु सदैव शिष्य के अहंकार का समर्पण चाहता हे

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गुरु सदैव शिष्य के अहंकार का समर्पण चाहता हे ।और अहंकार का समर्पण सबसे आखिर में होता हे । शिष्य अपना सबकुछ समर्पित कर देगा लेकिन अहंकार अपने पास रखेगा । शिष्य का अहंकार सबसे बाद में समर्पित होता हे । और अहंकार समर्पित होने के बाद शिष्य, शिष्य नहीं रहता, गुरु हो जाता हे क्यूंकि शिष्य का कोई अलग अस्तित्व ही नहीं रहता हे । यह क्षण शिष्य के जीवन में जितना जल्दी आये, उतना अच्छा हे क्योंकि इस क्षण के बाद ही शिष्य की मोक्ष की यात्रा प्रारंभ होती हे । गुरु भी शिष्य के अहंकार के समर्प ित होने का इंतज़ार कर सकता हे, उस शिष्य के लिए प्रार्थना कर सकता हे, पर वह खींचकर नहीं ले सकता, खींचकर ग्रहण नहीं कर सकता क्योंकि अहंकार एक निजी मामला होता हे । यह प्रत्येक को स्वयं होकर ही समर्पित करना होता हे । कोई किसी को समर्पित करा नहीं सकता हे । अपने अहंकार का समर्पण करना, उस शिष्य की आत्मा की अतिशुद्धता के बाद ही संभव हो पाता हे । प.पु. श्री शिवकृपानंद स्वामीजी

भक्ति ,तपस्या ,ज्ञान ये स्थूल चीज़े नही है । ये चैतन्य की अवस्थाऐ है

भक्ति ,तपस्या ,ज्ञान ये स्थूल चीज़े नही है । ये चैतन्य की अवस्थाऐ है । ये संपत्ति की तरह अपने बच्चोंमे बाटी नही जा सकती है ।....ये केवल शक्तिपात से ही सुपात्र शिष्य को दी जा सकती है , जो उन्हे पूर्ण रूप से ग्रहण कर सके । ईश्वरीय प्रेम यह एक महान तपस्या होती है । संत सूरदास की तरह प्रेम शून्य अवस्था तक पहुँचना चाहिए । इस अवस्था में शरीर का एहसास नही रहता है । साधना के लिए जाग्रुत स्थल बहुत महत्व पूर्ण है । गाय के सिंग या पूछ दबाने से हम दूध प्राप्त कर नही सकते । सही स्थल पर ही जाना होगा , गाय के स्तन से ही दूध प्राप्त करना होगा । बचपन में की हुई भक्ति सोने जैसी बहुमूल्य होती है जब मनुष्य एकाग्र हो सकता है क्योकि वह निर्दोष ,नीखालस ,निष्पाप तथा माया की वजह से हुई चिँताओँसे मुक्त रहता है । हम मनूशोन के हात में सिर्फ एक ही चीज़ होती है , हमारा कर्म । इस तत्व को रुशी भी बदल नही सकते हम ही हमारे मन में कायम स्वरुपी बदलाव ला

आत्मा का क्षेत्र ही शाश्वत क्षेत्र है क्यूँकि आत्मा में ही परमात्मा निवास करता है

आत्मा का क्षेत्र ही शाश्वत क्षेत्र है क्यूँकि आत्मा में ही परमात्मा निवास करता है। शरीर नश्वर है, इसलिए शरीर का क्षेत्र भी नाशवान है। बदलाव भी प्रकृति की देन है। कभी कोई शरीर एक समान नहीं होता है। प्रकृति का रहस्य प्रकृति के बदलाव में ही छुपा हुआ है। प्रकृति से जुड़ी हुई प्रत्येक चीज़ में बदलाव होता ही रहता है। मनुष्य का जन्म भी प्रकृति के एक निस्चित क्षेत्र के आधिन हुआ है। इसीलए वह समय समय पर बदलता रहता है। बदलना ही प्रकृति का स्वभाव है। इसीलिए प्रकृति में बदलाव आते हि रहते है। *_ - HSY 1 pg 251

बीछ में कुछ बड़े -बड़े ऊँचे वृक्ष बड़ी शान से खड़े रहते थे

बीछ में कुछ बड़े -बड़े ऊँचे वृक्ष बड़ी शान से खड़े रहते थे। ऐसा लगता था मानो एक माता अपने कई छोटे - छोटे बच्चों को लेकर खड़ी हो। और ऊँचे वृक्ष को सामूहिकता में देखने पर लगता है कि कई मातऍ अपने- अपने बच्चों को लेकर किसी इंतजार कर रही हो। और इन छोटे-छोटे के पिता ते सूर्य। सभी सूर्य देवता की राह देख रहे थे, कब सूर्यदेव प्रगट (प्रकट) होंगे , कब अपनी ऊरजाशक्तिभरी, कोमल -कोमल प्रकाश की किरणे डालकर सभी झाड़ों पर अपनी प्रेम की वर्षा करेंगे। और वह समय भी आ गया। सामने के दोनों पहाड़ों के बीच में सूर्य का उदय हो रहा था। मुझे भी जीवन में सूर्योदय का प्रतीक्षा करना सदैव अच्छा लगता है। सूर्य के दर्शन हो रहे थे। एक नारंगी रंग के गोले जैसा आकार धीरे -धीरे ऊपर आ रहा था। धीर-धिरे उसने एक ऊँचाई भी प्राप्त कर ली और फिर उसकी कोमल-कोमल किरणों सभी बगीचों पर एक समान , एक जैसी पड़ने लग गई। मानो सूर्यदेवता चलकर झाड़ोंरूपी बच्चों को एक -सा प्यार दे रहे हों। सूर्य की विशेषता है- वह सभी के समान ऊर्जा प्रधान करता है। कोई उसकी ऊर्जा ग्रहण करता है, कोइ नहीं। वह उसकी परवाह नहीं करता, वह त