अपने -आप पर नियंत्रण करना कठिन होता है

अभी भी तुजे चित्त विचलित होने का डर है और तेरा चित्त विचलित न हो, इसलिए तू सतर्क है। लेकिन कहीं भीतर मैं का भाव भी है। वही ' मैं ' का भाव है यानी जो 'मेरा चित्त ' कहता है। यानी यह अध्यात्म की वह स्थिति है जिसमें तू साधनारत है, कहीं पहूँचा नहीं है पर पहुँचना चाहता है। यह मुनि की स्थिति नहीं , एक साधक की स्थिति है जिसमें वह अपनी आध्यात्मिक स्थिति को साध रहा है।सामान्यत: ९९ प्रतिशत साधक इस स्थिति में ही रहते हैं। जो पहले वाली स्थिति बताई,वह साधक की कहलाती ही नहीं है। क्योंकि जो देहभाव से ही नहीं उठा, वह साधक कैसे हो सकता है? और आत्मीय प्रगति कैसे कर सकता है? स्त्री के प्रति जो आकर्षण है, उससे अपने -आप पर नियंत्रण करना कठिन होता है। इसलिए " न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी " के जैसे साधक इस स्थिति से बचने केलिए हिमालय में शरण लेते हैं क्यों कि हिमालय में एक स्त्री भी
नहीं है। यानी इस प्रकार के साधकों का चित्त अबोध नहीं है, पवित्र नहीं है लेकिन वे अपने चित्त को पवित्र रखने का प्रयास कर रहे हैं। इस प्रयास में भी चित्तशक्ति का एक बड़ा हिस्सा खर्च हो जाता है। कयोंकि ये साधक स्त्रियों से नफरत करते हुए दिखते हैं, स्त्री जाति को आध्यातमिक स्थिति के पतन का कारण बताते हैं।


-हिसयो-४
पुष्ट-५९

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