सद्गुरु का समाधि तो वह शरीर होता है जो अपार शक्ति का माध्यम रहता है
ऐसे भण्डार उनके देहत्याग के बाद आते हैं तो वह एक प्रकार से ऊर्जाशक्ति
का विस्फोट ही है। तो उस शरीर के पास एक कुशि का माहौल रहता है ,एक
प्रसन्नता का वातावरण रहता है। इसलिए उनके शिष्यगण उसके शरीर का
समाधिस्थल एक उत्साह से बनाते हैं मानोकोई आनंद - उत्सव चल रहा हो।"
" सद्गुरु का समाधि तो वह शरीर होता है जो अपार शक्ति का माध्यम रहता है। लाखों लोग उस शरीर से जुड़े हुऐ होते है और वह शरीर सामूहिक शक्त्ति का रत्रोत बना रहता है। इसी कारण सदगुरु की आत्मा उनके शरीर को छोड़ती है, उनका चैतन्य उस शरीर से बहते ही रहता है। इसलिए कहा जाता है कि सदगुरु अमर रहते हैं, वे कभी नहीं मरते हैं। क्योंकि
उस बहते हुए अपार चैतन्य के कारण सद्गुरु का शरीर देहत्याग करने के बाद भी चैतन्यपूर्ण रहता है। बाद में समधिस्थान शरीर के माध्यम
से सद्गुरु कि शक्तियाँ सैकड़ों वर्षों तक कार्यांन्वित रहती हैं। सद्गुरु का शरीर उनका माध्यम बन जाता है। और इसी कारण सद्गुरु के शरीर को नष्ट नहीं किया जाता, जलाया नही जाता है; उनके शरीर को समाधिस्थ किया जाता है, उसकी समाधि बनाई जाती है। वह समाधि सद्गुरु के देहत्याग करने के बाद कई सालों पर्यंत तब तक क्रियान्वित रहती है जब तक सदगुरु का संकल्प रहता है। सदगुरु अपनी संकल्पशक्ति से उस (समाधिस्थ) शरीर के माध्यम से कार्यरत रहते ही हैं।
हि.स.यो-४
पुष्ट-४९
" सद्गुरु का समाधि तो वह शरीर होता है जो अपार शक्ति का माध्यम रहता है। लाखों लोग उस शरीर से जुड़े हुऐ होते है और वह शरीर सामूहिक शक्त्ति का रत्रोत बना रहता है। इसी कारण सदगुरु की आत्मा उनके शरीर को छोड़ती है, उनका चैतन्य उस शरीर से बहते ही रहता है। इसलिए कहा जाता है कि सदगुरु अमर रहते हैं, वे कभी नहीं मरते हैं। क्योंकि
उस बहते हुए अपार चैतन्य के कारण सद्गुरु का शरीर देहत्याग करने के बाद भी चैतन्यपूर्ण रहता है। बाद में समधिस्थान शरीर के माध्यम
से सद्गुरु कि शक्तियाँ सैकड़ों वर्षों तक कार्यांन्वित रहती हैं। सद्गुरु का शरीर उनका माध्यम बन जाता है। और इसी कारण सद्गुरु के शरीर को नष्ट नहीं किया जाता, जलाया नही जाता है; उनके शरीर को समाधिस्थ किया जाता है, उसकी समाधि बनाई जाती है। वह समाधि सद्गुरु के देहत्याग करने के बाद कई सालों पर्यंत तब तक क्रियान्वित रहती है जब तक सदगुरु का संकल्प रहता है। सदगुरु अपनी संकल्पशक्ति से उस (समाधिस्थ) शरीर के माध्यम से कार्यरत रहते ही हैं।
हि.स.यो-४
पुष्ट-४९
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