चैतन्य महोत्सव-2005

जो प्राप्त होता है, उसे सँजोने की आवश्यकता है। और सँभालना सान्निध्य में ही हो सकता है। और सान्निध्य का अर्थ शरीर का सान्निध्य नहीं है, चित्त का सान्निध्य है। क्योंकि जिसके चित्त में मैं हूँ, वह मेरे चित्त में है। जैसा तेरा गाना, वैसा मेरा बजाना! मैं क्या करूँ? तू मुझे सँभालकर नहीं रखता, मैं तुझे कब तक झेलूँ? सँभालना सीखो, सँजोना सीखो। और मैं आपके चित्त में हूँ या नहीं, उसको जाँचने के लिए कोई मशीन की आवश्यकता नहीं है। कोई थर्मामीटर की आवश्यकता नहीं है। जब मैं आपके चित्त में रहता हूँ, आपके हाथों के वाईब्रेशन्स उसका प्रमाण देते हैं। हाथों पर उसकी अनुभूति आती है। मैं मेरी उपस्थिति आपके चित्त में दर्ज कराता हूँ, उसका प्रमाण देता हूँ। अनुभूति आपके हाथों में रहती है, आप अपने आपको ही जाँच लो, अपने आपको ही देख लो - अनुभूति हो रही है या नहीं, मेरा चित्त स्वामीजी पर है या नहीं? कभी आपको पता नहीं है, मेरा चित्त प्रत्येक के ऊपर रहता है। आप सोचते हैं - मैं दूसरे के लिए बोल रहा हूँ। मैं आप ही के लिए बोल रहा हूँ। एक-एक के ऊपर चित्त है, एक-एक के ऊपर अटेंशन है। सिर्फ उसका एहसास मुझे है, आपको नहीं। इसलिए कई बार आपकी छोटी-छोटी बातें भी मुझे पता लग जाती हैं। मैं तो आपके हाथों की गुड़िया हूँ। आप जैसे नचाओ, वैसा नाचूँ। और मैं किसी के भी हाथ का नहीं हूँ, सिर्फ तुम्हारे!
~ सदगुरु श्री शिवकृपानंद स्वामीजी
www.samarpanmeditation.org
स्त्रोत ~ "चैतन्य महोत्सव-2005 प्रवचन"
जय बाबा स्वामी!

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