गुरु सदैव शिष्य के अहंकार का समर्पण चाहता हे

गुरु सदैव शिष्य के अहंकार का समर्पण चाहता हे ।और अहंकार का समर्पण सबसे आखिर में होता हे । शिष्य अपना सबकुछ समर्पित कर देगा लेकिन अहंकार अपने पास रखेगा । शिष्य का अहंकार सबसे बाद में समर्पित होता हे । और अहंकार समर्पित होने के बाद शिष्य, शिष्य नहीं रहता, गुरु हो जाता हे क्यूंकि शिष्य का कोई अलग अस्तित्व ही नहीं रहता हे । यह क्षण शिष्य के जीवन में जितना जल्दी आये, उतना अच्छा हे क्योंकि इस क्षण के बाद ही शिष्य की मोक्ष की यात्रा प्रारंभ होती हे । गुरु भी शिष्य के अहंकार के समर्पित होने का इंतज़ार कर सकता हे, उस शिष्य के लिए प्रार्थना कर सकता हे, पर वह खींचकर नहीं ले सकता, खींचकर ग्रहण नहीं कर सकता क्योंकि अहंकार एक निजी मामला होता हे । यह प्रत्येक को स्वयं होकर ही समर्पित करना होता हे । कोई किसी को समर्पित करा नहीं सकता हे । अपने अहंकार का समर्पण करना, उस शिष्य की आत्मा की अतिशुद्धता के बाद ही संभव हो पाता हे ।

प.पु. श्री शिवकृपानंद स्वामीजी

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