सदगुरु को पहचानने के लिए प्रथम निसर्ग से जुड़ना होगा और निसर्ग से जुड़ने के लिए प्रथम अबोध बालक बनना होगा
और वह आज के जैसा ही होगा, तभी वह आप के पास पहूँचेगा। इसलिए यह सदैव
रखना-आपके जीवन में जो सदगुरु आएँगे वे आप के काल के अनुसार ही आएंगे।
उनका रहन - सहन, उनका पेहराव आप जैसा ही, सामान्य होगा। इसलिए भूतकाल के
सदगुरु की जो छवि अपने मन में बनाकर रखी है वह चूर - चूर हो जाएगी।
क्योंकि भूतकाल के सदगुरु का पेहराव भूतकाल के जैसा था, आज के सदगुरु का
पेहराव आज जैसा होगा। यह ठीक वैसा ही है, जैसे वृक्ष की पत्तियाँ
अपना रूप और अपना रंग ऋतु के अनुसार बदलती ही रहती हैं। यह सब एक निसर्ग
के नियम के अनुसार चलता रहता है। इसलिए हम जिस समय वृक्ष की ओर देखेंगे,
उस ऋतु के अनुसार ही हमें वृक्ष के पत्ते दिखेंगे। कभी पत्ते एकदम कोमल
कोंपल जैसे लाल रंग के होंगे तो कभी एकदम बड़े - बड़े और हरे रंग के होंगे।
और कभी - कभी तो मुरजाए से, पीले रंग के होंगे। यानी समय और परिस्थितिं का प्रभाव उन पत्तों
पर पड़ता ही है और वह नैसर्गिक भी है। ठीक इसी प्रकार सदगुरु का बाहरी रंग और रूप भी समय और परिस्थिति के अनुसार बदलता रहता है क्योंकि वह भी निसर्ग के साथ जुड़ा हुआ है।"
"सदगुरु को पहचानने के लिए प्रथम निसर्ग से जुड़ना होगा और निसर्ग से जुड़ने के लिए प्रथम अबोध बालक बनना होगा।
हि. स .यो- ४
पुष्ट-५६
पर पड़ता ही है और वह नैसर्गिक भी है। ठीक इसी प्रकार सदगुरु का बाहरी रंग और रूप भी समय और परिस्थिति के अनुसार बदलता रहता है क्योंकि वह भी निसर्ग के साथ जुड़ा हुआ है।"
"सदगुरु को पहचानने के लिए प्रथम निसर्ग से जुड़ना होगा और निसर्ग से जुड़ने के लिए प्रथम अबोध बालक बनना होगा।
हि. स .यो- ४
पुष्ट-५६
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