मनुष्य धर्म

१.  मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे समाज प्रिय है। वह जब जंगल में रहता था, तब भी समूह बना कर रहता था।
२.  मनुष्य प्रकृति के सानिध्य में रहते-रहते प्रकृति से सीखने लग गया और धीरे-धीरे प्रकृति के चक्र  को भी समझने लग गया। वह  जान गया कि मनुष्य का जन्म और मृत्यु प्रकृति के चक्र के तहत ही होता हैं।
३.  मनुष्य का ना अपने जन्म पर अधिकार है और न अपनी मृत्यु पर अधिकार है। फिर रह जाता है बीच में मनुष्य का जीवन। इस जीवन को किस प्रकार जिया जाए ?
४.  प्रश्न उठा, मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है ?  मनुष्य किस उद्देश्य से बार-बार जन्म लेता है ? और इस जन्म और मृत्यु के चक्र के बाहर निकलने का क्या मार्ग है ?
५.  केवल मृत्यु को प्राप्त करना कभी भी जीवन का उद्देश्य नहीं हो सकता है। फिर मनुष्य के जन्म का उद्देश्य क्या है ?
६.  इसी मानवी जीवन के रहस्य को जानने की कई बुद्ध पुरुषों ने प्रयास किया है। और जो जाना वह एक है कि मनुष्य शरीर वह वाहन है जिसके द्वारा परमात्मा तक पहुँचा जा सकता है।
७.  मानव शरीर एक माध्यम है जिसके द्वारा मोक्ष-प्राप्ति हो सकती है। जीवंत शरीर अत्यंत आवश्यक है।
८.  याने हम हमारे इस शरीर के साधन का जीवन में किस प्रकार उपयोग करते हैं, उस पर ही सब कुछ निर्भय होता है।
९.  प्रत्येक व्यक्ति आवश्यक नहीं कि जान पाए कि इस शरीर का किस प्रकार से उपयोग किया जाए।
१०.  यही जानने के लिए हम संतो के वचनो का,  शिक्षा का सहारा लेते हैं कि जीवन कैसे व्यतीत किया जाए।
२१.  इसलिए हम कह सकते हैं, सभी मनुष्य का एक ही धर्म है। -  'मनुष्यधर्म'।
२२.  पानी का गुणधर्म है - बहना,  आग का गुणधर्म है - जलना। ठीक वैसे ही मनुष्य का गुणधर्म है - प्रेम करना।
२३.  'आत्मधर्म'  जागृत होने पर मनुष्य के भीतर का 'प्रेम' त्तव भी बहने लग जाता है।
२४.  प्रेमतत्व बहने लगने के बाद मनुष्य सभी से ही प्रेम करने लग जाता है। वह सब में ही परमात्मा  के दर्शन करने लग जाता है। और उसे सर्वत्र शक्ति के दर्शन होने लग जाते हैं।
२५.  फिर इस प्रेमतत्व के कारण ही आध्यात्मिक प्रगति होने लगती है। और मनुष्य अपने  'मैं'  के  बूँद के अस्तित्व से सागर के अस्तित्व में बदल जाता है।
२६.  हम बाहरी धर्म के चोले कितने ही बदर लें, कुछ नहीं होता, जब तक भीतरी  'आत्मधर्म' ,  'मनुष्यधर्म' जागृत नहीं होता है।
२७.  'बाहरी धर्म' के चोले तो प्रत्येक  'जन्म के साथ' बदलते रहते हैं। 'बाहरी धर्म' को इसीलिए मुकाम तक पहुँचे हुए संत कभी महत्व नहीं देते हैं।
२८.  संतो के लिए इसीलिए सभी 'बाहरी धर्म' समान होते है। सब चोले एक जैसे हैं।
२९.  'बाहरी धर्म' का चोला सिर्फ सीढी है, मंजिल नहीं है। 'मंजिल'  तो आत्मधर्म  जागृत हुए बिना संभव नहीं है।
३०.  सारे विश्व के मनुष्य का  'आत्मधर्म', 'मनुष्यधर्म' एक ही है।  आत्मधर्म से ही आत्म-उन्नति संभव है।

आध्यात्मिक सत्य, पृष्ठ, २८

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