अपने-आपको शरीर न समझते हुए अपने-आपको आत्मा समझो

इसीलिए फिर प्रवचन करने वाला बार-बार पानी पीता है क्योंकि जिस ऊँचाई पर वह बोल रहा है , वह उसकी स्वयं की नहीं है। उस ऊँचाई पर रहने के लिए उसको बार-बार प्रयत्न करना पड़ रहा है। हम बच्चों को खिलाते हैं। तो वह लँगड़ाता है, हम लँगड़ाते हैं। लेकिन थोड़े समय हम यह लँगड़ाने का नाटक कर सकते हैं, थोड़ी देर बाद हम थक जाएँगे और मूल स्वरूप में ही आ जाएँगे। यानी हम जैसे हैं वैसे ही स्वाभविक रहते हुए , सामान्य रहते हुए अगर बोलते हैं तो शरीर से बोलते ही नहीं हैं। तो शरीर थकता ही नहीं है।
अपने-आपको शरीर न समझते हुए अपने-आपको आत्मा समझो और बोलो। फिर न शरीर थकेगा और न पानी पीना होगा , न शरीर की तकलीफ होगी । हमारी वाणी में सरलता और सहजता होनी चाहिए। वह जितनी होगी उतना ही सामनेवाले की आत्मा आपसे संबंध स्थापित करेगी। और सामने बैठा एक शरीर नहीं , एक आत्मा है यह सोचकर ही बोलो तो वह उस स्तर पर सुनेगा भी और आप जो बात जिस अर्थ में कहना चाहते हो वो उसी अर्थ में समझेगा भी।

भाग - ६ -१४७/१४८

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