आपकी भाषा

आपकी भाषा पुस्तक से नहीं होनी चाहिए। क्योंकि पुस्तक की भाषा का संबंध जबकारी से होता है , ज्ञान से नहीं। आप स्वयं एक शुन्य की स्थिति में जाओ और फिर ज्ञान तो चैतन्य के रूप में आसपास ही है। चैतन्य , ज्ञान , परमात्मा , विश्वचेतना यह सब शब्द अगल-अगल हैं , पर सब एक ही है। आप जो लोगों से चाहते हो , वह आप प्रथम लोगों को दो। आप प्रेम चाहते हो तो प्रेम दो  आप आदर चाहते हो तो आदर दो। अब आपका मैं भीतर से आदर कर रहा हूँ ,, इसलिए आप भी मेरा आदर कर रही हैं। मैं तो आपके बच्चे की उम्र का हूँ। आदर करना आत्मा का शुद्ध भाव है। ठीक इसी प्रकार से , परमात्मा को मानना भी आत्मा का शुद्ध भाव है। और मनुष्य की सर्वोच्च स्थिति है ,  जब मनुष्य किसी को भी परमात्मा मान लेता है। वह एक अच्छी स्थिति में पहुँच जाता है। इस स्थिति में मानसिक स्तर पर अच्छी स्थिति प्राप्त होती है। शारीररिक स्तर पर भी अच्छी स्थिति प्राप्त होती है , आत्मिक स्तर पर भी अच्छी स्थिति प्राप्त होती है।

भाग - ६ -१४८

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