सूर्य को ही अपना गुरू मानकर नमस्कार

सूर्योदय हो रहा था और मैंने सूर्य को ही अपना गुरू मानकर नमस्कार किया और कहा , "जब मेरे गुरू इस धरती पर अलग-अलग रूपों में विद्यमान थे , तब मैं नहीं था , पर सूर्यदेव , तुम तो थे ही। आपने उन गुरुओं के सान्निध्य में समय बिताया है, इसलिए तुम्हारे माध्यम से मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ।
आज भी कई गुरू इस धरती पर , विश्व के कोने-कोने में विद्यमान होंगे। मैं आज उन्हें नहीं देख पा रहा हूँ पर आप प्रकाश के माध्यम से उन तक पहुँचे ही होंगे। इसलिए आपके माध्यम से मैं उन्हें मी प्रणाम करता हूँ। और भविष्य में मैं नहीं रहुँगा , न इस शरीर के रूप में और न आत्मा के रूप में , लेकिन तब भी , सूर्यदेव आप विद्यमान होंगे। इसलिए भविष्य में आनेवाले गुरुओं को भी मैं आपके माध्यम से नमस्कार करता हूँ।"

*हिमालय का समर्पण योग२/२६*

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