केवल सद्गुरू ही इस कर्म बंधन से हमें मुक्त कर सकता है।
मेरा निजी अनुभव यह कहता है कि केवल और केवल 'सद्गुरू' ही इस कर्म बंधन से हमें मुक्त कर सकता है। यह सब मैं अपने ६० साल के अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ। सद्गुरु जब शिष्य को 'आत्मसाक्षात्कार' कराता है तो उसके इस जन्म के कर्म जो पास होते है , वह नष्ट कराता है। तभी आत्मा का साक्षात्कार संभव होता है। बादमे उसे आत्मा की अनुभूति कराता है। और बादमे साधक अपने पूर्व जन्म के अच्छे या बुरे कर्म भोगता है।
१२साल के बाद साधक के जीवन में एक ऐसी अवस्था आ जाती है जब उसके बुरे या अच्छे कर्म समाप्त हो जाते हैं। साधक के आसपास उसका एक आभामंडल का विश्व निर्माण हो जाता है। वह आभामंडल में बुरी ऊर्जा ही नहीं होती है। इसके कारण साधक से बुरा कर्म होता ही नहीं हैं और जीवन में जो भी अच्छा कर्म करता हैं , वह अपने सद्गुरु को समर्पित कर देता हैं।
तब उसके पास न अच्छा कर्म होता हैं और न बुरा कर्म होता हैं। एक 'मैं' मुक्त अवस्था उसे प्राप्त हो जाती है। इसी अवस्था को मोक्ष की स्थिति कहते हैं। फिर कोई कर्म का कारण ही नहीं बन जाता है कि वह साधक नया 'जन्म' ले। उस साधक को इसी जीवन में ही मुक्ति मिल सकती है।
*आत्मेश्वर(आत्मा ही ईश्वर है) ३७*
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