जब हम आग्याचक्र तक पहुँचते हैं

" जब हम आग्याचक्र  तक पहुँचते हैं, तो हमें एक दिव्य द्रष्टि प्राप्त हो जाती है और उसी के कारण हमें हमारे भीतर का दिखने लग जाता है। हमने हमारे चित्त में जिसे भी परमात्मा के माध्यम के रूप में स्विकार किया रहता है या यूँ कहें कि हमने परमात्मा के जिस रुप को  माना होता है, वही रूप हमको आग्याचक्र पर पहुँचकर दिखने लग जाता है। अगर कुछ भी रूप नहीं है तो आपको दिव्य ज्योति दिखाई देगी,  या प्रकाशपुंज दिखाई देगा। यानी कुछ-न-कुछ दिखता अवश्य है।
क्यों दिखता है ? क्योंकि आग्याचक्र में  दिखने की प्रक्रिया होती है, आपकी आँखें बंद ही रहती है, लेकिन आपके भीतर के प्रकाश में भीतर  रखा हुआ परमात्मा के रूप के दर्शन होता है। लेकिन यह भी धोखा है, सत्य नहीं है, वही रुप दिखता है, जो हमने माना हुआ है और वास्तव में परमात्मा का एक ही स्वरूप है। हमने तो केवल रूप को मान्यता दी है, रूप माध्यम है लेकिन आग्याचक्र के प्रकाश के स्थान से निकलकर जब आप इस सहस्त्रार चक्र पर आते हैं तो दिखने की सारी प्रक्रिया ही बंध हो जाती है।
और इस चक्र पर आने पर साधक को अनुभूतियाँ होना प्रारंभ हो जाता है। आपको कभी गुलाब की खुशबू आना प्रारंभ हो जाता है तो कभी एकदम ही चंदन की खुशबू आना प्रारंभ हो जाता है। आपके आसपास सभी ओर चंदन ही चंदन की खुशबू आने लग जाती है, या आपको घण्टानाद दूर कहीं हो रहा है ऐसा सुनाई आने लग जाता है या शंखनाद कहीं हो रहा है, ऐसा सुनाई  आना प्रारंभ हो जाता है। इस प्रकार की अनुभूतियाँ होना प्रारंभ हो जाता है।"

हि.स.योग.6-पेज.261.

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