Poonam Kakdiya:
क्योंकि बठ़ती जनसंख्या के कारण निर्जन स्थान ही उपलब्ध नहीं हैं। आप जहाँ भी जाओ , वहाँ भीड़ ही भीड़ है । यानी आभामण्डल पूर्ण विकसित कभी हो नहीं पाता है। जैसे कहते हैं न , कि हम अगर अधिक तंग कपड़े पहनते हैं तो हमारा शरीर विकसित ही नहीं होता है। ठीक इसी प्रकार से , अगर हम पूरे समय ही अपन आभामण्डल को जकड़े रहें और सदैव उसे किसी-न-किसी के आभामण्डल के पास ही रखें तो उसका स्वभाविक आकर कभी प्राप्त ही नहीं होगा। यही कारण है , ऋषि। और मुनि जान-बूझकर तपस्या के लिए निर्जन स्थानों का निर्माण करते हैं और वे अपनी साधना की शक्ति से अपने आसपास ऐसे कम्पाऊँड बना लेते हैं कि कोई भी मनुष्य उनके पास ही न आ सके और वे बीच में पूरे समय ही अपने पूर्ण आभामण्डल के साथ जीवन यापन करते हैं। अगर आप भी आपके जीवन में कुछ क्षण भी ऐसी स्थिति में रहे तो आपको पता चलेगा कि आपको कितनी शांति का अनुभव होता है। क्योंकि उस समय आपको जो भी विचार आएँगे , वह सब विचार आपके अपने होंगे।
भाग - ६ -२६८/२६९
jadeja:
यानी उस समय आप अन्य किसीके आभामण्डल के दबाव में भी नहीं होंगी और न अन्य किसीके विचारों का प्रभाव भी आप पर होगा। आप दूसरों के विचारों से मुक्त रहेंगे। और ब्रह्नानाद का अनुभव आपको इसी स्थिति में हो सकेगा और यह अनुभूति आपकी अपनी स्थिति के कारण है। इसलिए जब आप अकेले रहेंगे तभी यह अनुभव होगा। आपके आसपास कोई भी आ गया तो भि यह ब्रह्नानाद सुनाई आता चला जाएगा। यह इस बात को दर्शाता है कि यह नाद भले ही आपकी स्थिति के कारण प्राप्त हो रहा हो लेकिन यह दूसरे अन्य की स्थिति से भी प्रभावित होता है। वास्तव में तो यह एक सूक्ष्म संवेदन है जो हमारी स्थिति अति संवेदनशील रहने पर ही प्राप्त होता है। तो यह ब्रह्नानाद का अनुभव ऐसा है कि जब यह आपको सुनाई आना प्रारंभ होता है , तो वह नाद आपके आत्मा को एक समाधान देता है। शांती प्रदान करता है। और यह समाधान और शांति आप आत्मा से अनुभव भी करते हो और फिर लगता है कि बस यह आवाज सुनते ही रहो और जितना सुनते हैं , हम उतने ही भीतर , और भीतर जाना प्रारंभ हो जाते हैं। और फिर उसी स्थिति में रहें , यह इच्छा रहती है। और फिर उस आत्मानंद में कितना समय बीत गया इसका पता भी नहीं चलता । ऋषि और मुनि इस स्थिति में जाकर फिर सालों तक स्थिति में रहते हैं। आप पूरे दिन में एक समय कम-के-कम ३० मिनिट तो भी ऐसे एकांत में रहो तो आप आपकी आत्मा के करीब जाना प्रारंभ करोगे।
भाग - ६ - २६९/२७०
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