सद्गुरु के हृदय से
मैंने गत संदेश में मेरे हृदय की बात की थी कि मेरी इच्छा है- *आपकी प्रगति मुझसे भी अधिक हो।* क्योंकि आपको सब ज्ञान तैयार मिला है, एक-एक 'प्रश्न' के लिए भटकना नहीं पड़ा है। आपको लाखों लोगों की सामूहिक शक्ति प्राप्त हुई है जो 'साधना' के समय मुझे प्राप्त नहीं थी। आपके पास 'गुरुकार्य' का प्रचार-प्रसार करने के लिए जो 'साधन' आज उपलब्ध है, वह मुझे मेरे साधना के समय प्राप्त नहीं थे। आपको जो गुरुसान्निध्य मिला है, वह मुझे भी प्राप्त नहीं था। आज आपके साथ गुरुकार्य में एक 'आंतरराष्ट्रीय स्तर' का संघटन क्षेत्र है, वह भी मेरे साथ नहीं था। आपको प्रचारकार्य करने के लिए आसपास मनुष्यसमाज उपलब्ध है, मुझे तो मनुष्य दिखता भी नहीं था।
आपके साथ पूर्वसंपन्न किए गए कार्यक्रमों के 'प्रमाणपत्र की पुस्तक' भी उपलब्ध है, मेरे पास एक कागज भी नहीं था। आपके पास 'पुस्तके', 'सीडी', 'विडिओ', 'फोटो', 'एल्बम', 'सेंटर (केंद्र)', 'आश्रम', 'साहित्य', सभी कुछ तो उपलब्ध हैं। मेरे पास मेरे रहने के लिए ही मुझे जगह बनानी पड़ती थी। *आप चाहें तो सबकुछ कर सकते हो। बस अंतर है 'इच्छाशक्ति' का।*
-- *सद्गुरु के हृदय से,पृष्ठ:६२*
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