समर्पण + ध्यान = समर्पण ध्यान
समर्पण + ध्यान = समर्पण ध्यान ।
समर्पण याने समरस होना । माध्यम के साथ इतना समरस हो जाओ की वो माध्यम की आत्मा के अंदर जो भी कुछ है वो अपने अंदर प्रवाहित होना चालू हो जाएगा । जब अपने आप को छोटा करते हो और उसी अवस्था मे हम जो भी करते है वो स्थाई रूप मे होता है । और उसे कोई भी पवित्र आत्मा ग्रहण करती है । इसी अवस्था मे दिया नही जाता और लिया नही जाता ये प्रक्रिया घटित हो जाती है । समर्पण याने अपना अस्तित्व शून्य करके माध्यममय हो जाना । परमात्मामय हो जाना । परमेश्वर का रूप नही होता । उसका स्वरूप होता है । उस स्वरूप को मानना एक उच्च अवस्था होती है । रूप आया तो दोष आते ही है ।.
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बाबा स्वामी
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