आत्मचिंतन
मैं साधकों की "माँ " बना पर साधकों का "गुरू " कभी न बन सका जबकि मुझे "आत्मज्ञान " माँ " से नहीं ,"गुरू "से मिला था । मनुष्य मरते दम तक अपनी "माँ " औऱ "गुरू " दोनों को 'कभी नहीं भूल ' सकता क्यों की एक 'माँ ' शरीर को जन्म देती है औऱ एक 'माँ ' आत्मा को जन्म देतीं है । मेरे 'हृदय ' में आने का ही मार्ग है , जाने का नहीं । आज पता चल रहा है , मेरे सभी गुरू ऐसा क्यों कहते थे , "तेरा हन्डा बहुत बड़ा है ।" जो भी इस हृदयरूपी हन्डे में आ जाता है , बस वह वही का होकर रह जाता है । लाखों आत्माओं का , एक आत्माओं का सागर विद्यमान है । ...
परमपूज्य गुरुदेव
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