दीक्षा का संस्कार

सदगुरु  जब  अपने  शिष्य  को  दीक्षा  देता  है  तो  वो  दीक्षा  एक  कर्मकांड  नही  होता  है । वास्तव  में , वह  एक  संस्कार  है । सदगुरु  अपने  गुणों  को  अपने  शिष्यों  में  सँक्रमित  करता  है । लेकिन  यह  दीक्षा  का  कर्मकांड  तभी  सफल  हो  सकता  है , जब  गुरु  शिष्य  को  एक  शरीरधारी  नही , आत्मा  समझे ।
वही  दूसरी  ओर  इस  दीक्षा  विधि  में  शिष्य  की  भूमिका  और  बड़ी  है । जहाँ  एक  ओर  उसे  अपने  आपको  आत्मा  मानकर  शरीर  के  सभी  बंधनों  से  मुक्त  होना  पड़ता  है , वही  दूसरी  ओर  गुरु  को  ही  परमात्मा  मानते  हुए  अपना  संपूर्ण  समर्पण  करना  होता  है , तभी  यह  दीक्षा  का  संस्कार  संपूर्ण  हो  सकता  है ।

ही .का .स .योग
भाग ५ पृष्ठ ४२५

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