आनुभूतियाँ होने लग जाने के बाद आपकी आत्मा की शुद्धि होने लग जाती है।

इस स्थिति में आपको ही आनुभूतियाँ होने लग जाने के बाद आपकी आत्मा की शुद्धि होने लग जाती है। और यह आत्मशुद्धि आपकी आत्मा को सशक्त बनाती है , और धीरे -धीरे आत्मीय हो जाता है , कि जीवन की चोटी - छोटी बातें पर , जीवन की चोटी - छोटी  धटनाओं पर भी आत्मा अपनी राय देना प्रारंभ कर देती है। और वह एक मार्गदर्शन की भूमिका में हो जाती है। यह समझ लो कि वह एक प्रकार से आपकी गुरु ही हो जाती है। वास्तव में तो आत्मा आपके गुरु से इतनी समरस हो जाती है कि गुरु की सभी बातें बिना समझए ही वह समझ जाती है। या ये भी कह सकते हैं कि गुरु की आत्मा आपकी आत्मा के माध्यम से ही मार्गदर्शन करती है। सभी आत्माओ का क्षेत्र एक ही है , केवल दो शरीर ही बाधा हैं। एक तो गुरु का शरीर और दूसरा साधक का शरीर , इन दो शरीरों की बाधा भी दूर हो जाती है , क्योंकि दोनों ही आत्माओं का भीतर ही भीतर से एक प्रकार आत्मीय संबंध स्थापित हो जाता है। जब हम सतत साधना करते हैं तो हमारी आत्मा एक ओर हमारे ऊपर नियंत्रण करती है तो वहीं दुसरी ओर वह गुरु की आत्मा के साथ जुड़ी होती है और इस प्रकार से हमारे शरीर तक वह बातें पहुँचाती है , जो गुरशक्तियाँ कराना चाहती हैं। यह सब पंपूर्ण समर्पण भाव और सतत की गई साधना से ही संभव हो पाता है। यानी यहाँ पर पहुँचकर आपकी आत्मा से आपका संबंध इतना निकट का होता है कि वही दिशा निर्देश देने लग जाती है ।
भाग - ६ - २६२/२६३

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