jadeja:
क्योंकि बठ़ती जनसंख्या के कारण निर्जन स्थान ही उपलब्ध नहीं हैं। आप जहाँ भी जाओ , वहाँ भीड़ ही भीड़ है । यानी आभामण्डल पूर्ण विकसित कभी हो नहीं पाता है। जैसे कहते हैं न , कि हम अगर अधिक तंग कपड़े पहनते हैं तो हमारा शरीर विकसित ही नहीं होता है। ठीक इसी प्रकार से , अगर हम पूरे समय ही अपन आभामण्डल को जकड़े रहें और सदैव उसे किसी-न-किसी के आभामण्डल के पास ही रखें तो उसका स्वभाविक आकर कभी प्राप्त ही नहीं होगा। यही कारण है , ऋषि। और मुनि जान-बूझकर तपस्या के लिए निर्जन स्थानों का निर्माण करते हैं और वे अपनी साधना की शक्ति से अपने आसपास ऐसे कम्पाऊँड बना लेते हैं कि कोई भी मनुष्य उनके पास ही न आ सके और वे बीच में पूरे समय ही अपने पूर्ण आभामण्डल के साथ जीवन यापन करते हैं। अगर आप भी आपके जीवन में कुछ क्षण भी ऐसी स्थिति में रहे तो आपको पता चलेगा कि आपको कितनी शांति का अनुभव होता है। क्योंकि उस समय आपको जो भी विचार आएँगे , वह सब विचार आपके अपने होंगे।
भाग - ६ -२६८/२६९
Blissful:
गुरु का शरीर भी सामान्य ही रहता है,उसमे अलग होता है "देवत्व" , जो दिख नहीं सकता, केवल महसुस किया जा सकता है।
- अनुष्ठान 2012 (मेरे शरीर का रहस्य)
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