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Showing posts from July, 2017

सदगुरु के माध्यम से परमात्मा को पाना शुरू करो

अपने सदगुरु के माध्यम से परमात्मा को पाना शुरू करो । सदगुरु के माध्यम से पाना आसान है क्यूँकि सदगुरु ने पा लिया है। और उनके साथ एक बड़ी समूहिकता है तो और भी आसान हो जाता है। परमात्मा एक अविनाशी शक्ति है जिसे उसके वर्तमान के माध्यम से पाना आसान है। और वह परिस्थिति के अनुसार रूप बदलती रहती है, इसलिए उसके रूप पर हमारा ध्यान नहि होना चाहिए। परमात्मा सदैव माध्यम के भीतर से प्रकट होता है। HSY 1 pg 479

Shashwati

दिनांक - 31st जुलाई '17   ध्यान दें- जब मैं इस अनुभव को पढ़ता हूं कि मुझे बुखार मिला है ... कल्पना करें कि यदि मैं अपना अनुभव पढ़ रहा हूं, तो मुझे लगा कि कंपन ही असली ध्यान कैसे होता है! एक तरह का एक अनुभव! शाम 5:30 शाम को हम सामान्य शाम की चाय के लिए इकट्ठे हुए, हमारे चाय का स्वामी स्वामीजी ने कहा, "आओ, बगीचे में चलें" जैसे हम आम तौर पर करते हैं ... मुझे नहीं पता था कि एक अलग अनुभव मुझे अनुभव करने का इंतजार कर रहा था। सामान्य वार्ता में स्वामीजी ने कहा, "मेरे पास एक प्रयोग है .... क्या आप और अंबरीज़ इस में शामिल होंगे?", यह स्पष्ट था कि उनके प्रयोग का हिस्सा होने के लिए कौन नहीं कहता? स्वामीजी ने मुझे बनाया और अंबरीष एक दूसरे से दूर लॉन पर बैठे, और कहा, "धीरे-धीरे उर की आँखें बंद करो और मेरे निर्देशों का पालन करें!" और सामान्य आत्मा मंत्र से ध्यान शुरू हुआ "मैं एक पवित्र आत्मा हूं, मैं एक शुद्ध आत्मा हूं" स्वामीजी का पाठ होता है, लेकिन किसी न किसी न तो मुझे और न ही अफरीश एक राज्य में जोर से बोलने के लिए चुपचाप के अंदर दोहराया गया था। लेक

अम्बरीष

हर दिन एक नया दिन होता ज़रूर है लेकिन उससे स्मरणीय और अर्थपूर्ण एक आत्मा को छूने वाली घटना ही बनाती है। ऐसी ही एक घटना मेरे साथ आज हुई। आज मैं, शाश्वती जी और हमारे स्वामीजी के साथ चाय पीने के बाद नियम अनुसार बागीचे में जा कर बैठे। आज जो होने वाला था उसकी कल्पना नही थी बस जो होगा उसके बारे में स्वामीजी ने कुछ बाते पिछले दिनों की थी। मैं एक पत्थर पर बैठा था और स्वामीजी ने मुझे उनके समीप बुलाया और हम दोनों को कहा नीचे घास में बैठ जाने के लिए, मेरे मन मे कोई विचार उठे उससे पुर्व स्वामीजी ने बोले “ आज हम एके नया प्रयोग करेंगे” मैंने तुंरत पूछा कैसा प्रयोग, मंन में आया उसी प्रयोग के विषय होगा जिसके संदर्भ में स्वामीजी ने हमे पूर्व सूचित किया था। उनके बोलते ही हम दोनों एक शांत और आरामदायक स्थिति में ध्यान हेतु बैठे। मेरी आँखें स्वयं ही बंद हो गई थी, लगा जैसे किसी समुद्र के अंदर दुब से रहे हो और शरीर मुक्त हो रहा था। स्वामीजी ने मुझे कहा आंखे खोल , धीरे धीरे आंखे खोली और उनकी तरफ देखा उन्होंने कहा “ मैं जो जो कहूँ उसका शब्दों का पालन बीना किसी भेद के करना। मैं ध्यान नही करूँगा आज, बस तुमसे

Shashwati

Date -31st july'17 Note - when i read this experience for checking i got shivers ...imagine if only reading my own experience i felt vibration imagine how the real meditation would have been! An experience one of a kind! Evening 5:30 we gathered for normal evening tea ,finishing our tea swamiji said " come on, lets go to the garden" like how we usually do...didn't know a different experience was waiting for me to be experienced. In normal talks swamiji said "i have an experiment to do....would u and ambareesh join me in this?", it was obvious who will say no for being a part of his Experiment? Swamiji made me and ambareesh sit on the lawn far from each other ,and said "slowly close ur eyes and follow my instructions!". And the meditation started with the usual Soul Mantra "I am a holy soul, I am a pure soul" swamiji recites but somehow neither me nor ambareesh was in a state to speak it out loud hence repeated inside silently . But n

जीवन में दरवाज़ा खोलने पर ही प्रकाश अंदर आ सकता है।

जीवन में दरवाज़ा खोलने पर ही प्रकाश अंदर आ सकता है। अतिरिक्त ऊर्जा मिल सकती है। आपके जीवन में आपके दरवाज़े पर दस्तक देने का कार्य सदगुरु करता है। वह भी परमात्मा का ही रूप होता है। अद्र्श्य परमात्मा को  अतिरिक्त ऊर्जा समजते है। HSY 3 pg 396

आवश्यकता है संतुलन कि और उस संतुलन को बनाए रखने कि

ऐसा  कहते  है  कि  अगर  नारियल  में  अच्छा  खोबरा  अंदर  तयार  हो  गया  और  अच्छी  मिठास   उसमे  प्राप्त  हो  गई  तो  फिर  नारियल  में  पानी  भीतर  नही  रहेगा  क्योंकि  वही  पानी  खोबरे  में  परिवर्तित  हो  गया  होता  है । और  जिस  नारियल  में  पानी  भी  मात्रा  में  अधिक  होता  है  और  भीतर  का  पानी  मीठा  होता  है , ऐसे  नारियल  में  खॉबरा  नही  होता  है । यह  एक  रूपांतरित  कि  प्रक्रिया  है । मनुष्य  के  भीतर  का  भाव  ही  बाद  में  समय  के  साथ -साथ  बुद्धि  में  परिवर्तित  हो  रहा  है । इसीलिए  समय  के  साथ -साथ  भाव  कम  हो  रहा  है  और  बुद्धि  अधिक  विकसित  हो  रही  है । लेकिन  आवश्यकता  है  संतुलन  कि  और  उस  संतुलन  को  बनाए  रखने  कि ।... ************* परमपूज्य गुरुदेव ही .का .स .योग भाग ५ पृष्ठ ९९

सदगुरु परमात्मा का एक स्वरूप

सदगुरु  परमात्मा  का  एक  स्वरूप  है , जो  समय  समय  पर  समय  की  आवश्यकता  नुसार  रूप  बदलते  रहता  है । बदलते  रहता  है  या  बदलना  ही  आवश्यकता  हो  जाती  है । मानव  शरीर  तो  ईश्वर  के  स्वरूप  का  केवल  एक  माध्यम  है । वाहन  है । ही .का .स .यो . भाग ५ पृष्ठ २५०

जीवन एक बहती धारा है

जीवन एक बहती धारा है इसमें तो बहते जाना है । ऊँची नीची राह मिले गर पथरीला हो तेरा रास्ता चट्टानों से राह बनाकर बस तुझको बढते जाना है । उछलकूद करते जाना है बस तुझको बहते जाना है । राह में स्नेह मिले जिससे भी उसे सहेज अपनी स्मृतियों में स्नेह कुंज के स्नेह कणों को सब तक पहुचाते जाना है। स्नेहसभर जीवन हो सबका यह प्रयास करते जाना है जीवन एक बहती धारा है इसमें तो बहते जाना है। " माँ " पृष्ठ -२२५

ગુરુશક્તિઓ આદિ અને અંત બંને છે.

'ગુરુશક્તિઓ' આદિ અને અંત બંને છે. જ્યાં અંત લાગે છે, ત્યાં જ ફરી શરૂઆત થઈ જાય છે. અને શક્તિઓનું ચક્ર ચાલતું જ રહે છે. એક જન્મ આ રહસ્યને સમજવા  માટે પુરતો નથી . તેથી આપણી સંસ્કૃતિમાં ગુરુપૂજાનું મહત્વ અનાદિકાળથી છે કારણ, આ પૂજાના બહાને આપણે તે શક્તિઓની સાથે જોડાઈએ છીએ . ખરેખર, આપણે સામૂહિકતા સાથે જોડાતા નથી. પોતાના અલગ અસ્તિત્વને જ સામૂહિકતામાં વિસર્જિત કરી દઈએ છીએ.  આપણે જયારે વિસર્જિત કરીએ છીએ, તો આત્માનુ સત્યસ્વરૂપ સામે આવી જાય છે. એક એકલો આત્મા પોતાના કર્મોના ચક્કરમાંથી પોતાની જાતને મુકત ન કરી શકે, પરંતુ સામૂહિકતામાં તે મુક્ત થઈ જાય છે. " હિ.સ.યોગ. ૩, પેજ. ૨૧૨.

आध्यात्मिक क्षेत्र में जल्दबाजी नही होती है

आध्यात्मिक  क्षेत्र  में  जल्दबाजी  नही  होती  है । हमे  इस  क्षेत्र  में  शांति  से  और  बड़े  धीरज  के  साथ  चलना  पड़ता  है । हमारी  ऊपर  चढ़ने  की  गति  धीमी  हुई  तो  भी  चलेगा  लेकिन  उस  स्थान  पर  हमे  जमे  रहना  अति  आवश्यक  है । ही .का .स .योग भाग ५ पृष्ठ ४१४

आत्मा की बाती ध्यान से प्रकाशित रहती है

अंधकार  से  उषा  तक  का  सफर  आत्मा  के  प्रकाश  के  बिना  संभव  नही । आत्मा  की  बाती  ध्यान  से  प्रकाशित  रहती  है । ध्यान  के  लिए  वीचारशून्न्यता  की  अवस्था  आवश्यक  है  और  उसके  लिए  समस्त  भावों  का  समर्पण  आवश्यक  है । विचार  या  तो  भविष्य  की  चिंता  के  कारण  आते  है  या  भूतकाल  के  किए  कर्मों  के  कारण  आते  है । कर्म  जो  हमने  किए  और  वें  कर्म  जो  औरों  ने  हमारे  लिए  किए , वें  ही  विचारों  को  जन्म  देते  है । यदि  हम  अपने  द्वारा  किए  गए  सभी  कर्म  समर्पित  कर  सके  तथा  मन  की  सभी  भावों  को  समर्पित  कर  पाए  तभी  विचारशून्य  अवस्था  प्राप्त  हो  सकेगी । तभी  ध्यान  कर  पाएँगे  या  कहे  ध्यान  लगेगा । और  नियमित  ध्यान  से जीवन  की  उषा -संध्या  का  भेद  मिट  जाएगा ।... गुरुमाँ पुष्प  २/ ४६

परमात्मा से प्राप्त ज्ञान को आपके माध्यम से हजारों लोगों तक पहुँचना चाहिए |"

"सदैव साधक को  भी परमात्मारूपी  वृक्ष की वह   टहनी बनना चाहिए जिस पर सैंकड़ों  छोटी टहनियाँ और हज़ारों पत्ते निर्भर हैं |परमात्मा से  प्राप्त ज्ञान को आपके माध्यम से हजारों लोगों तक पहुँचना चाहिए |" हि.स.यो.१/ ३५

प्रगती

आज सुबह एक साधक अपनी नयी कार की पुजा कराने आया था तब पुजा के अन्य साधको से भी मीला उसमेसे एक साधक ने कहा स्वामीजी सभी पुराने साधको की आथीेक प्रगती हो गयी है जो कल सायकल पर घुमते थे वे सभी कार वाले होगये है  । जैसे समपेण की आथीेक प्रगती हुयी वैसे सभी की हो गयी है मैने उसे कहा यह बाहरी प्रगती है यह तो सामुहीकता मे रहने से वैसे ही हो जाती है पर अपनी भीतरी प्रगती तो अपने को अपनी ही करना पडती है । अब वह कीतनी हो रही है उधर प्रत्येक साधक ने ध्यान देना चाहीये हमने गुरूशक्तीयो का सानीध्य उस प्रगती के लीये प्राप्त कीया है।     बाबा स्वामी ३१/७/२०१७

સમર્પણ ધ્યાનના સૂત્ર

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मोक्ष मृत्यु के बाद नहीं मिलता है

"'मोक्ष' मृत्यु के बाद नहीं मिलता है। उसे अपने जीवनकाल में ही साधनारत रहकर प्राप्त करना होता है। वह एक स्थिति है। वह ध्यान की वह स्थिति है जो सामान्यतः १२ साल की सतत ध्यानसाधना करने से प्राप्त हो सकती है। जिसे भी यह स्थिति प्राप्त हुई उसे कम से कम १२ साल लगे ही हैं, यह मेरा अनुभव है।और १२ साल में ध्यान की नियमितता और स्वयं का समर्पण भाव इसी पर सबकुछ निर्भर होता है। सर्वप्रथम अपने शरीर के विकारों प र नियंत्रण कर उससे मुक्ति पाना होती है। बाद में अपने पूर्वजन्म के कर्मों को भी भोगना होता है। पूर्वजन्म के कर्म भोगते समय और नए कर्म उत्पन्न न हों, इसका भी ध्यान रखना होता है। आत्मज्ञान अधिकृत आत्मा के द्वारा किया गया एक प्रकार का संस्कार ही है।" ~ श्री डॉक्टर बाबा पूज्य स्वामीजी से, पुस्तक - "हिमालय का समर्पण योग" भाग-५

हिंदू धर्म प्राचीन है

"हिंदू धर्म प्राचीन है। वास्तव में, हिंदू धर्म ही नहीं है क्योंकि न उसकी कोई एक निश्चित मूर्ति है और न ही कोई निश्चित धर्मग्रंथ है। हिंदू धर्म तो खुली किताब की तरह है कि अभी उसके पन्ने खाली है। कोई भी सदगुरु आए और अपनी चार अनुभूतियाँ उसमे जोड़ दे। वास्तव में, हिंदू धर्म नहीं, संस्कृति है जो प्रकृति से जुड़ी हुई है।और प्राचीन व विशाल संस्कृति है। और इसी संस्कृति में से अनेक धर्म, पंथ निकले है। पर जो धर्म यहाँ चल पाए, वे यहाँ चले और जो नहीं चल पाए, वे बाहर जाकर बाहर की दुनिया में फैले है।" ~ बौद्ध गुरु स्वामिजी से, 'हिमालय का समर्पण योग' भाग - २

सामुहिकता मे अपनी प्रगति करने का एकदम सरल उपाय

* सामुहिकता मे अपनी प्रगति करने का एकदम सरल उपाय : * " आपका ह्रदय सबके लिये खुला होना चाहीये,आपके मनमेँ सबके प्रति अच्छा भाव होना चाहीयेँ । सामनेवाला आपके लिये क्या सोच रहा है उससे आपको कोई लेना देना नही है । वो उसका भाव है , वो उसका क्षेत्र है , वो उसका स्तर है , वो नीचे के स्तर पे है , तुमको उसके लिये नीचे के स्तर पे जाने की कुछ आवश्यकता नही है । तुम तुम्हारा स्तर बनाकरके रखो । आत्मा का स्तर बनाकरके रखो । आत्मिक स्तर के उपर तुम्हारे मन मे सबके प्रति अच्छा भाव होना चाहीये, सबके प्रति एक अच्छा भाव तुम्हारी खुदकी आध्यात्मिक प्रगति करेगा । वो आपके प्रति कैसा भाव रख रहा है उधर ध्यान मत दो । तुम तुम्हारी जगह सही रहो, वो उसकी जगह गलत है । एक दिन उसकी आँख खुलेगी, उसको पता लगेगा, तुम तो सही थे ही__गलत वो था । लेकिन वो गलत है ईसलिये तुम गलत मत हो जाओ । वो नीचे की सीड़ी पे है ईसलिये तुम नीचे की सीड़ी पे मत जाओ । ईँतजार करो , राह देखो , एक दिन उसे भी वो स्तर प्राप्त हो जायेगा ।" -H.H.Shivkrupanand Swamiji, Guru-Purnima-'2008.

मन खुलेगा , आपका मन बड़ा होगा

जब  आप  किसी  के  लिए  कुछ  करेंगे  ना , आपका  अंदर  से  मन  खुलेगा । और  जब  आपका  मन  खुलेगा , आपका  मन  बड़ा  होगा । जितना  आपका  मन  बड़ा  होगा , आपका  पात्र  बड़ा  होगा ।आपका  पात्र  बड़ा  होगा  तो  आप  अधिक  चैतन्य  ग्रहण  कर  पाएँगे । * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * चैतन्य महोत्सव      २०१४

पैसा तो माध्यम है, गुरुदक्षिणा तो माध्यम है, उस माध्यम से वो अपने भाव को वृद्धीगत कर रहे हैं

मैं ये भी नहीं कहता कि मेरे को पैसे का ज़रूरत नहीं है। क्यों नहीं कहता? क्योंकि *पैसा तो माध्यम है, गुरुदक्षिणा तो माध्यम है, उस माध्यम से वो अपने भाव को वृद्धीगत कर रहे हैं ,* उनके भाव को वृद्धिगत करना चाहता हूँ। तो मैं चाहता हूँ उसके भाव को वृद्धिगत करके, मैं उस पैसे का इनवेस्टमेंट, उस पैसे का नियोजन मेरे समाधी स्थल के लिए करूँ। *मैं मेरा समाधी स्थल उन्हीं के पैसे से निर्माण करूँगा, उससे उनका भाव और वृद्धिगत होगा।* तो मैं नहीं चाहता कि उस पैसे का सदुपयोग ना हो। इसीलिए उसका सबसे अच्छा सदुपयोग समाधि स्थल है। - *पूज्य गुरुदेव* गुडीपाडवा प्रवचन,२८मार्च२०१७

दान वही है जो निष्काम भाव से किया जाए

सत्य  अर्थ  में  दान  वही  है  जो  निष्काम  भाव  से  किया  जाए । "मैने  दान  दिया " यह  भाव  आगे  जाकर  अहंकार  को  जगाता  है । "दान  दिया " यह  भाव  हमे  कर्म  बंधन  में  भी  बांधता  है । जिस  प्रकार  बादल , धरती , सूर्य , नदियाँ  तथा  प्रकृति  से  दान  प्राप्त  कर  हम  जीवन  जीते  है  वैसे  ही  निष्काम  भाव  से  किया  श्रमदान , ज्ञानदान  , समयदान , धनदान , सेवादान  ही  सत्य  अर्थ  में  दान  है ।. . . आपकी                गुरु माँ

जन्म का उद्देश

मनुष्य जब जन्म लेता है तो उसके जन्म का उद्देश ही उसके पूवॅकमोॅ के भोगों को भोगना होता है हिमालय का समपॅण योग भाग 3

सदगुरु का अंग-प्रत्यंग कुछ कहते रहता है

" सदगुरु का अंग-प्रत्यंग कुछ कहते रहता है , कुछ बोलते रहता है , कुछ अनुभव करते रहता है , उसका भव्य कपाल एक आनंदित अनुभूति को अनुभव कराते रहता है । उसके कान सब कुछ सुनते रहते हैं सब कुछ जानते रहते हैं छोटी से छोटी घटना को छोटी से छोटी बात को आत्मसात करते रहते हैं। उसकी आँखे एक अथांग सागर की तरह अनुभव होती है जिसका दूसरा सिरा खोजना भी मुश्किल हो जाता है उसके होठ कुछ न बोलते हुए भी बहोत कुछ बोलते रहते हैं । उसके बाल चैतन्य को सदैव प्रवाहित करते रहते हैं । उसके खंधे मानो सारी मनुष्यता का बोज ही अपने ऊपर लिए हुए महेसुस होते हैं । और उसके हृदय में सबके प्रति एक सा भाव है समान भाव है इसलिये की वो जानता है सब में ही मैं हूँ और मुझ में ही सब है । सदगुरु का पेट एक समाधान का संतोष का तृप्ति का अहेसास दिलाते रहता है । उसके पैर सदैव अपने साधकों को गोद में ले के चलते ही रहते हैं ... चलते ही रहते हैं ... उसकी उँगलियाँ सारे संसार को नचाने की शक्ति रखती है। ऐसे सदगुरु के सान्निध्य में ऐसे सदगुरु के साथ एक क्षण बैठना आत्मा को पुलकित कर देता है । ऐ

सत्य का सूर्य दिखेगा

हम दोनों के बीच समय का  अंतराल है | जिस दिन समय का यह अंतराल समाप्त होगा, दोनो  को  सत्य का सूर्य दिखेगा | सत्य  सदैव एक होता है , निश्चित होता  है किसी को  जल्दी मालूम  होता है , किसी  को सत्य जानने मे समय व्यतीत करना पड़ता है बस, हम दोनों  में यही एक अंतर है | हि.स. यो. १ / २९

समाधान

" समाधान को बाहर खोजोगे, भटकोगे तो जीवन में समाधान बाहर कभी नहीं मिलेगा | और समाधान को बाहर नहीं खोजोगे और भीतर जाओगे तो समाधान की बरसात होगी |" हि.स.यो-१ पृष्ठ-१९२

ગુરુના સાનિધ્યમાં રહેવું જ સર્વસ્વ નથી.

"  ગુરુના સાનિધ્યમાં રહેવું જ સર્વસ્વ નથી. આપણે આ ગુરુસાનિધ્યનો ઉપયોગ કઇ દિશામાં કરી રહયા છીએ,  તે મહત્વપૂર્ણ છે.  ગુરુસાનિધ્ય આપણને નવી શક્તિઓ આપે છે, પરંતુ દિશા નહિ.  દિશા આપણું ચિત્ત જ નક્કી કરે છે. મહત્વપૂર્ણ છે- આપણે ગુરુસાનિધ્યમાં રહેતા હોઈએ ત્યારે આપણું ચિત્ત ક્યાં રહે છે,  આપણું ચિત્ત જ્યાં હોય તે તરફ જ આપણી પ્રગતિ થશે અને આપણું ચિત્ત જે દિશામાં હશે,  આપણે તે દિશામાં જ આગળ વધીશુ અને ગુરુસાનિધ્યમાં રહેતી વખતે ચિત્ત મોક્ષ તરફ જ હોય, તે જરૂરી નથી. ચિત્ત જો ખોટી દિશામાં હોય, તો આપણે ખોટી દિશામાં જ આગળ વધી જઈશુ અને શિષ્ય તે ખોટી દિશામાં  જ આગળ વધીને, ત્યાં જઈને પણ વિચારે છે કે હું તો ખોટી દિશામાં આવી ગયો અને ફરી પાછો પોતાના ગુરુ તરફ વળે છે, તો ત્યાં સુધીમાં ગુરુનુ નિર્વાણ થઈ ગયું હોય છે.  એટલે કે શિષ્યની સ્થિતિ ધોબીના કુતરા જેવી થઈ જાય છે; તે નથી ઘરનો રહેતો કે નથી ઘાટનો. " હિ.સ.યોગ.૩, પેજ.૨૧૦.

नामकरण की applications

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सभी पुण्यतमाओं को मेरा नमस्कार, पिछले कई वर्षों से मेरे पास साधकों के पास से अलग-अलग नए जन्मे शिशुओं से लेकर व्यवसायों तक के नामकरण की applications आती है । इन सभी applications को समय पर जवाब मिल सके इसके लिए हाल ही में अनुराग एवं IT टीम ने अनुभूति पोर्टल के एक भाग के रूप में नामकरण module बनाया है । इस में एक सरल सा फ़ॉर्म है जिसे भर सकते है । इसमें आपके द्वारा दिए गए ईमेल address पर आपको नामकरण की जानकारी दी जाएगी । *इस online सिस्टम में मुझे सुंदर व्यवस्था यह लगी की हर नामकरण को एक सुंदर पत्र के रूप में भेजा जाएगा, इससे निश्चित ही साधक को और अधिक संतुष्टि प्राप्त होगी । online form भरने के लिए http://namakaran.shivkrupanandji.guru पर logon करें ।* आप सभी इस व्यवस्था का भरपूर लाभ लें….. आप सभी को खूब-खूब आशीर्वाद .... बाबा स्वामी website : http://namakaran.shivkrupanandji.guru/

मैं आज के भगवान के माध्यम को मानता हूँ,

गुरुदेव' कहना , यानी, मैं आज के भगवान के माध्यम को मानता हूँ, यह कहना हो जाता है। 'गुरुदेव' शब्द में ही सबकुछ आ गया है। - HSY1 pg 478

हिमालय का अपना ही एक आकर्षण है।

हिमालय का अपना ही एक आकर्षण है। उसे शब्दों में बताया नहीं जा सकता है। वह तो केवल अनुभूति है और अनुभूति को केवल अनुभव ही किया जा सकता है। उसे अभिव्यक्त करना संभव ही नहीं है। HSY 3 pg 386

समर्पण + ध्यान = समर्पण ध्यान

* मै एक पवित्र आत्मा हूँ       * मै एक शुद्ध आत्मा हूँ * मै एक पवित्र आत्मा हूँ       * मै एक शुद्ध आत्मा हूँ * मै एक पवित्र आत्मा हूँ       * मै  एक शुद्ध आत्मा हूँ ********************************** समर्पण + ध्यान = समर्पण ध्यान । ध्यान  यानी  अभ्यास [ प्रॅक्टीस ] समर्पण  यानी  समरस  होना । माध्यम  के  साथ  इतना  समरस  हो  जाओ  की  वो  माध्यमकि  आत्मा  के  अंदर  जो  भी  कुछ  है , वो  अपने  अंदर  प्रवाहित  होना  चालू  हो  जाएगा । जब  अपने  आपको  छोटा  करते  है  और  उसी  अवस्था  में  हम  जो  भी  करते  है  वो  स्थाई  रूप  में  होता  है । और  उसे  कोई  भी  पवित्र  आत्मा  ग्रहण  करती  है । इस  अवस्था  में  दिया  नही  जाता  और  लिया  नही  जाता । प्रक्रिया  घटित  हो  जाती  है । समर्पण  यानी  अपना  अस्तित्व  शून्य  करके  माध्यममय  हो  जाना , परमात्मामय  हो  जाना । परमेश्वर  का  रूप  नही  होता  है , स्वरूप  होता  है । उस  स्वरूप  को  मानना   एक  उच्च  अवस्था  होती  है । रूप  आया  तो  दोष  आते  ही  है । पूज्य गुरुदेव