समर्पण + ध्यान = समर्पण ध्यान
* मै एक पवित्र आत्मा हूँ
* मै एक शुद्ध आत्मा हूँ
* मै एक पवित्र आत्मा हूँ
* मै एक शुद्ध आत्मा हूँ
* मै एक पवित्र आत्मा हूँ
* मै एक शुद्ध आत्मा हूँ
**********************************
समर्पण + ध्यान = समर्पण ध्यान ।
ध्यान यानी अभ्यास [ प्रॅक्टीस ] समर्पण यानी समरस होना । माध्यम के साथ इतना समरस हो जाओ की वो माध्यमकि आत्मा के अंदर जो भी कुछ है , वो अपने अंदर प्रवाहित होना चालू हो जाएगा । जब अपने आपको छोटा करते है और उसी अवस्था में हम जो भी करते है वो स्थाई रूप में होता है । और उसे कोई भी पवित्र आत्मा ग्रहण करती है । इस अवस्था में दिया नही जाता और लिया नही जाता । प्रक्रिया घटित हो जाती है । समर्पण यानी अपना अस्तित्व शून्य करके माध्यममय हो जाना , परमात्मामय हो जाना । परमेश्वर का रूप नही होता है , स्वरूप होता है । उस स्वरूप को मानना एक उच्च अवस्था होती है । रूप आया तो दोष आते ही है ।
पूज्य गुरुदेव
Comments
Post a Comment