समर्पण + ध्यान = समर्पण ध्यान

* मै एक पवित्र आत्मा हूँ
      * मै एक शुद्ध आत्मा हूँ
* मै एक पवित्र आत्मा हूँ
      * मै एक शुद्ध आत्मा हूँ
* मै एक पवित्र आत्मा हूँ
      * मै  एक शुद्ध आत्मा हूँ
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समर्पण + ध्यान = समर्पण ध्यान ।
ध्यान  यानी  अभ्यास [ प्रॅक्टीस ] समर्पण  यानी  समरस  होना । माध्यम  के  साथ  इतना  समरस  हो  जाओ  की  वो  माध्यमकि  आत्मा  के  अंदर  जो  भी  कुछ  है , वो  अपने  अंदर  प्रवाहित  होना  चालू  हो  जाएगा । जब  अपने  आपको  छोटा  करते  है  और  उसी  अवस्था  में  हम  जो  भी  करते  है  वो  स्थाई  रूप  में  होता  है । और  उसे  कोई  भी  पवित्र  आत्मा  ग्रहण  करती  है । इस  अवस्था  में  दिया  नही  जाता  और  लिया  नही  जाता । प्रक्रिया  घटित  हो  जाती  है । समर्पण  यानी  अपना  अस्तित्व  शून्य  करके  माध्यममय  हो  जाना , परमात्मामय  हो  जाना । परमेश्वर  का  रूप  नही  होता  है , स्वरूप  होता  है । उस  स्वरूप  को  मानना   एक  उच्च  अवस्था  होती  है । रूप  आया  तो  दोष  आते  ही  है ।

पूज्य गुरुदेव

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