अम्बरीष

हर दिन एक नया दिन होता ज़रूर है लेकिन उससे स्मरणीय और अर्थपूर्ण एक आत्मा को छूने वाली घटना ही बनाती है। ऐसी ही एक घटना मेरे साथ आज हुई। आज मैं, शाश्वती जी और हमारे स्वामीजी के साथ चाय पीने के बाद नियम अनुसार बागीचे में जा कर बैठे। आज जो होने वाला था उसकी कल्पना नही थी बस जो होगा उसके बारे में स्वामीजी ने कुछ बाते पिछले दिनों की थी।

मैं एक पत्थर पर बैठा था और स्वामीजी ने मुझे उनके समीप बुलाया और हम दोनों को कहा नीचे घास में बैठ जाने के लिए,

मेरे मन मे कोई विचार उठे उससे पुर्व स्वामीजी ने बोले “ आज हम एके नया प्रयोग करेंगे”

मैंने तुंरत पूछा कैसा प्रयोग, मंन में आया उसी प्रयोग के विषय होगा जिसके संदर्भ में स्वामीजी ने हमे पूर्व सूचित किया था।

उनके बोलते ही हम दोनों एक शांत और आरामदायक स्थिति में ध्यान हेतु बैठे।

मेरी आँखें स्वयं ही बंद हो गई थी, लगा जैसे किसी समुद्र के अंदर दुब से रहे हो और शरीर मुक्त हो रहा था। स्वामीजी ने मुझे कहा आंखे खोल , धीरे धीरे आंखे खोली और उनकी तरफ देखा उन्होंने कहा “ मैं जो जो कहूँ उसका शब्दों का पालन बीना किसी भेद के करना। मैं ध्यान नही करूँगा आज, बस तुमसे ध्यान यहाँ हो जाएगा।”

उनके शब्द मन तक पहुँचे और जो अनुभूति हो रही थी उससे गुरुपौर्णिमा के उनकेे शब्द याद आ गये, “ आप के आभामंडल में गुरु आता है और आप किसी गुरुके आभामंडल में आकर ध्यान के लिए बैठते है उसमें ज़मीन आसमान का अंतर है”

वैसा ही अनुभव हो रहा था आंखे बंद हो गई थी और मन जो कि विश्व मे कहीं भी जा सकता है वो आज जैसे उनके आभामंडल में बंध सा गया था। उसको कही और जाने के लिए शरीर का प्रयत्न लगता, लेकिन जैसे ही स्वामीजी ने अपने मुख से बोला “ मैं एक पवित्र आत्मा हूँ, मैं एक शुद्ध आत्मा हूँ”

मेरे मुख से शब्द नही निकले, लेकिन स्वामीजी के शब्द प्रतीत हो रहे थे जैसे मेरे ही शब्द हो और वह भाव जैसे मेरा ही भाव हो आत्मा का यह अनुभव हो रहा था। मैं वहाँ था लेकिन मेरा शरीर वहाँ महसूस नही हो रहा था।

धीरे धीरे जैसे स्वामीजी अपन शब्दो सेे और अपनी संकल्प शक्ति से हमें ध्यान में स्वयं ही उतार रहे थे, मेरा सिर धीरे धीरे झुक नीचे रहा था जैसे उसमे कोई चुम्बक लगा हो वह किसी तरफ झुकते हुए भी खोज कर रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे मैं कोई जल धारा हूँ, और स्वामीजी कोई खड्डा बनाने वाली शक्ति जो मुझे नीचे की तरफ बहाते हुए दिशा दे रही थी।

उस बहने में मेरे शरीर ने आखिरी एक ज़ोर लगाने का प्रयत्न किया ज़रूर था लेकिन स्वामीजी के शब्द पहाड़ो में जैसे गूंजते है वैसे मेरे भीतर गूँजते हुए मेरे आत्मा भाव को जैसे प्रोत्साहन दे रहे थे।

उसके बाद क्या हुआ वह याद नही बस जब उठ के चल रहा था तो जो मस्तक में जो चुम्बक के खीचने वाली वह अनुभूति के कारण शायद चलने में कठिनाई हो रही थी। जहां देख रहा था वहाँ पैर नही रख पा रहा था, उठ कर देखा तो स्वामीजी और शाश्वती वहां नही थे, लेकिन में उन्हें ढूंढने की इच्छा में भी नही था, एक खुले आसमान के नीचे जो फर्श दिखा वहाँ जा कर लेट गया, आंखे बंद हो रही थी लेकिन कुछ देर बाद खुली आकाश और हर जगह चमचमाहट दिख रही थी। कुछ देर बाद स्वामीजी आये शाश्वति जी के साथ और बगीचे के बेंच पर बैठे। मंन बोहोत खुश था, जनता नही था इतना अच्छा क्यों लग रहा था, मुह से शब्द निकल नही रहे थे क्योंकि विचार ही नही हो पा रहा था। स्वामीजी को इस सुंदर अनुभूति के लिए बस धन्यवाद ही दे सकता हूँ।

यह किस प्रकार का प्रयोग था इसकी कोई समझ नही है मुझमें लेकिन यह कह सकता हूँ कि जब मन और शरीर स्वस्थ हो ऐसे समय मे जैसे संध्या या सुबह को , गुरु के आभामण्डल में और गुरु के नियंत्रण में जो स्थान हो उस स्थान पर यह अनुभूति होना सरल है , संभब है।

आपका परम मित्र
  अम्बरीष

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