आत्म-अनुभूती को केवल पाना काफी नहीं है

यानी आत्म-अनुभूती को केवल पाना काफी नहीं है,  प्राप्त हुई अात्म-अनुभूति को वृध्दिगत करना होगा । और वह वृध्दिगत होगी साधना से । इसके लिए प्रतिदिन साधना करनी होगी । शरीर में अनुभूति का बोध जैसे-जैसे बढ़ेगा वैसे-वैसे शरीर का बोध कम होता जाएगा । यह काफी समय के अभ्यास से ही संभव हो सकता है । क्योंकि जागृति तो अात्मा की हुई है,  शरीर की नहीं तो आत्मा की अनुभूति भी बिना आत्मरूप हुए प्राप्त होना कठिन ही है । और इसके लिए उपयुक्त वातावरण चाहिए । यानी या तो मनुष्य अच्छे प्राकृतिक वातावरण में  , जंगल में ही चला जाए या तो समाज में रहते हुए पवित्र आत्माओं की सामूहिकता में चला जाए । क्योंकि समाज में रहते हुए  तो अकेले ध्यान करना संभव ही नहीं है । इसलिए आध्यात्मिक प्रगति के लिए समाज में रहते हुए सामूहिक प्रयास करना पड़ेगा । यही मार्ग उचित मालूम पड़ता है । क्योंकि सामूहिकता की अपनी एक विशिष्टि शक्ति होती है और उसके कारण हम उस स्थान के योग्य भी नहीं हों फिर भी हम उस स्थान तक़ पहुँच जाते हैं । वह केवल सामूहिकता में रहने के कारण ही होता है ।       

- HSY-4

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