कभी-कभी लगता है कि आत्मा और परमात्मा के बीच यह ' मैं ' ही है |
" कभी-कभी तो लगता है, मनुष्य सोने के खजाने के ऊपर बैठकर भीख माँग रहा है | उसे पता ही नहीं है कि वह जहाँ बैठ है, उसके नीचे ही खजाना है | जब तक ' मैं ' नहीं गिरता , तब तक उसकी आँखों का संबंध उसकी आत्मा से नहीं हो सकता है | जब तक वह ' मैं ' नहीं गिरता , तब तक उसके कानों का संबंध उसकी आत्मा से नहीं हो सकता है | माँ, कभी-कभी लगता है कि आत्मा और परमात्मा के बीच यह ' मैं ' ही है | यह शरीर का दोष है और इसे शरीर में रहते हुए ही दूर करना है | यह शरीर छूट जाने के पहले यह ' मैं ' छूट जाना चाहिए अन्यथा बहुत देर हो जाती है | इसके लिए एक बड़ी, सतत् प्रकिया की आवश्यकता होती है | उस प्रकिया को ही ' आत्मासाधना ' कहते हैं | अपने-आपको इतना जागृत करो, इतना जागृत करो कि ' मैं ' कब समाप्त हो गया, इसका पता ही न चले ....
-हि.स.यो-३
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