सदगुरु का अंग-प्रत्यंग कुछ कहते रहता है
" सदगुरु का अंग-प्रत्यंग
कुछ कहते रहता है ,
कुछ बोलते रहता है ,
कुछ अनुभव करते रहता है ,
उसका भव्य कपाल
एक आनंदित अनुभूति को अनुभव कराते रहता है ।
उसके कान
सब कुछ सुनते रहते हैं
सब कुछ जानते रहते हैं
छोटी से छोटी घटना को
छोटी से छोटी बात को
आत्मसात करते रहते हैं।
उसकी आँखे
एक अथांग सागर की तरह
अनुभव होती है
जिसका
दूसरा सिरा खोजना भी मुश्किल हो जाता है
उसके होठ
कुछ न बोलते हुए भी
बहोत कुछ बोलते रहते हैं ।
उसके बाल
चैतन्य को सदैव प्रवाहित
करते रहते हैं ।
उसके खंधे
मानो सारी मनुष्यता का बोज ही अपने ऊपर लिए हुए महेसुस होते हैं ।
और
उसके हृदय में
सबके प्रति
एक सा भाव है
समान भाव है
इसलिये की वो जानता है
सब में ही मैं हूँ
और
मुझ में ही सब है ।
सदगुरु का
पेट
एक
समाधान का
संतोष का
तृप्ति का
अहेसास दिलाते रहता है ।
उसके पैर
सदैव अपने साधकों को गोद में ले के चलते ही रहते हैं ...
चलते ही रहते हैं ...
उसकी उँगलियाँ
सारे संसार को नचाने की
शक्ति रखती है।
ऐसे सदगुरु के सान्निध्य में
ऐसे सदगुरु के साथ
एक क्षण बैठना
आत्मा को पुलकित कर देता है ।
ऐसे गुरुओं के केवल साथ में रहने मात्र से जो आशीर्वाद
जो ब्लेसिंग्ज़ मिले
उसी के कारण ये कार्य इतना तेजी के साथ विकसित हो सका
मैं तो केवल एक बाँटने की शुद्ध इच्छा ले के चला था ।"
- श्री शिवकृपानंद स्वामीजी
- गुरुपूर्णिमा -2008
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