मैं आप ही के लिए समाज में आया हूँ।
मैं आप ही के लिए समाज में आया हूँ। जब मेरे गुरुदेव ने समाज में भेजा था तो मेरे ही मन में प्रश्न उठा था कि इतनी सारी 'ध्यानयोग' पद्धतियाँ प्रचलित है, इतने सारे लोग उसमें ध्यान कर रहे हैं तो और एक नई पद्धति समाज में क्यों लेकर जाएँ? और लेकर भी गए तो कौन उसे अपनाएगा? तब भी मेरे गुरुदेव ने मुझे कहा था कि *योग का अर्थ है - शरीर को आत्मा से जोड़ना और दोनों को जोड़कर जीना। इस योग में 'शरीर का समर्पण आत्मा के प्रति होता है।' इसलिए इसका नाम रखा है- "समर्पण ध्यान योग।"*
*सभी ध्यान योग पद्धतियों का लक्ष्य होता है -- मोक्ष की स्थिति प्राप्त करना। और वह स्थिति एक बार जीवन में मिल जाए तो फिर मार्ग का महत्व नहीं रह जाता है की कौन किस मार्ग से पहुँचा।* क्योंकि मार्ग समाप्त होने पर ही मंजिल मिलती है। मंजिल और मार्ग में अंतर है। लोग मार्ग से मंजिल तक पहुँचते हैं, मंजिल से मार्ग तक नहीं। कई नादान, अज्ञानी मार्ग को ही मंजिल मानकर मार्ग पर ही बैठ जाते हैं।
-- सद्गुरू के हृदय से, पृष्ठ:६४
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